यह निर्विवाद है कि इजराइल की राजधानी तेल अवीव में 13-14 जून की रात बर्बादी का जैसा नज़ारा देखने को मिला, वह फिलस्तीन की जमीन पर औपनिवेशिक परियोजना के तहत जबरन बसाए गए इस देश के 80 साल के इतिहास में अभूतपूर्व है। इजराइली ठिकाने इस तरह तब भी निशाना नहीं बने थे, जब 1967 के छह दिवसीय युद्ध में उसे मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की साझा ताकत या 1973 के योम किप्पूर युद्ध में मिस्र और सीरिया की साझा ताकत का मुकाबला करना पड़ा था।
इस बार ईरान ने जब लगभग 18 घंटे पहले खुद पर हुए हमलों का जवाब दिया, तो उसे ना सिर्फ इजराइली सेना और अमेरिका की पूरी बचाव प्रणाली का मुकाबला करना पड़ा, बल्कि इस दौरान इजराइल के बचाव में सऊदी अरब, कतर, जॉर्डन और यहां तक कि मिस्र जैसे देश भी खड़े थे। ईरान ने इन देशों से पेश आने वाली भौगोलिक चुनौतियों को बेअसर करते हुए इजराइल की राजधानी और दूसरे स्थलों पर मिसाइलों की बारिश की। उससे हुई क्षति का नजारा दुनिया देख रही है।
बहरहाल, ईरान की इस कामयाबी के बावजूद शुक्रवार (13 जून) को उठे सवाल अपनी जगह बने हुए हैं। उस रोज सुबह से देर शाम तक इजराइल ने तेहरान सहित ईरान के विभिन्न शहरों को निशाना बनाया। इस दौरान उसने ईरान के वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों और प्रमुख परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या कर दी। परमाणु ठिकानों पर भी हमले हुए, लेकिन उन्हें शायद क्षति नहीं पहुंची। फिर भी ईरान खुद मान चुका है कि इजराइली हमलों में लगभग 80 लोगों की जान गई और 320 से अधिक जख्मी हुए। अनेक संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ।
इस दौरान जिन बातों ने ध्यान खींचा, उनमें संभवतः सबसे प्रमुख यही है कि जब हमलों की खुली धमकियां दी जा रही थीं, तो ईरान का पूरा सुरक्षा तंत्र उतना निश्चिंत कैसे बना रहा? सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को ज्ञात ठिकाने पर क्यों इकट्ठा होने दिया गया? और ईरान को अपने एयर डिफेंस सिस्टम को सक्रिय करने में कई घंटे क्यों लग गए?
ईरान से हमदर्दी रखने वाले अनेक विशेषज्ञों का कहना है कि उपरोक्त लापरवाहियों का कारण पश्चिम, खासकर अमेरिका पर अति भरोसा बनाए रखना है। इसलिए जब डॉनल्ड ट्रंप ने गुरुवार को कहा कि इजराइल हमले की तैयारी में है, मगर ईरान से अमेरिका की तय परमाणु वार्ता को देखते हुए वह रविवार तक हमला नहीं करेगा, तो संभवतः ईरानी नेतृत्व ने इसे गंभीरता से ले लिया। जबकि बाद में खुद ईरानी मीडिया ने माना कि इस तरह अमेरिका और इजराइल आपसी मिलीभगत से ईरान को धोखे में रखने में सफल हो गए।
ऐसा क्यों हुआ, इसकी कुछ अधिक वजहों को समझने की कोशिश भी इस मौके पर की गई है। इसके मुताबिक,
- ईरान के सत्ता तंत्र में हमेशा पश्चिम के प्रति झुकाव रखने वाला एक खेमा रहा है। यह खेमा बातचीत से टकराव दूर करने की वकालत करता रहा है। मौजूदा राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान भी इसी खेमे से संबंधित रहे हैं।
- ईरान का इस्लामिक नेतृत्व इजराइल और पश्चिम से अपने टकराव को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के संदर्भ में नहीं, बल्कि ‘अच्छाई’ और ‘बुराई’ के टकराव के रूप में देखता है। नतीजतन, वह मौजूदा दुनिया के मूलभूत अंतर्विरोधों (fundamental contradictions) की समझ से परे है। परिणाम यह हुआ है कि मौजूदा विश्व शक्ति संतुलन को बदलने की दीर्घकालिक रणनीति पर उसने कोई सोच विकसित नहीं की है।
- इस नजरिए का असर सुरक्षा तैयारियों पर पड़ा है।
इसी सिलसिले में अपने विवादास्पद विचारों के लिए (जिनसे यह स्तंभकार बिल्कुल सहमत नहीं है) बहुचर्चित रूस के धुर-दक्षिणपंथी विचारक अलेक्सांद्र दुगिन का यह दावा महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि कुछ महीने पहले सैनिक गठजोड़ बनाने की रूस की पेशकश को ईरान ने ठुकरा दिया था।
दुगिन के बारे में राय है कि रूस के सत्ता तंत्र में उनके विचारों से प्रभावित एक मजबूत समूह है। इस नाते वहां उनकी गहरी पैठ है। शुक्रवार को दुगिन ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा- ‘नए भू-राजनीतिक यथार्थ के बीच ईरान बहुत पीछे छूटा हुआ है। हमने उसके सामने निकट सैनिक गठबंधन बनाने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन तेहरान में ऐसी ताकतें मौजूद हैं, जो पश्चिम से डील करने को लेकर आशान्वित हैं। एक विचार यह भी आया था कि रूस और ईरान का संघ बनाया जाए। लेकिन ऐसे विचारों को तेहरान में किसी ने गंभीरता से नहीं लिया।’
गौरतलब है कि इसी वर्ष रूस और ईरान ने व्यापक रणनीतिक भागीदारी समझौते पर दस्तखत किए। इसी साल रूस ने डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (उत्तर कोरिया) के साथ भी ऐसा समझौता किया। इन दोनों समझौतों में फर्क यह है कि जहां उत्तर कोरिया और रूस के समझौते में सामूहिक सुरक्षा का प्रावधान शामिल है, वहीं ईरान से समझौते में यह बिंदु गायब है। इस प्रावधान का अर्थ है कि किसी एक देश पर हमला होने की स्थिति में दूसरा देश भी उसे अपने ऊपर हमला मानेगा।
उत्तर कोरिया की मार्गदर्शक जुचे (राष्ट्रीय आत्म-निर्भरता) विचारधारा मार्क्सवाद- लेनिनवाद से प्रेरित है। जाहिर है, उसमें मौजूदा वर्ग संघर्ष की स्थिति और वैश्विक अंतर्विरोधों की समझ है। इस कारण उत्तर कोरिया वर्तमान भू-राजनीति को साम्राज्यवाद बनाम इसके विरुद्ध नई विश्व व्यवस्था गढ़ने के संघर्ष के रूप में देखता है। अतः उसने इस अंतर्विरोध के अनुरूप रणनीति तथा अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ बनाए हैं।
उत्तर कोरियाई नेतृत्व की यही समझ है, जिस कारण वह तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अपने को परमाणु हथियार संपन्न बनाने के लिए संकल्पबद्ध रहा। 2007 में उसने ये हथियार बना लिए। नतीजा है कि आज उस पर धौंस जताना अमेरिका जैसी महाशक्ति के लिए कठिन हो गया है। सवाल है कि जो विकल्प उत्तर कोरिया ने अपनाया, वह ईरान क्यों नहीं अपना पाया?
कहा जा सकता है कि ईरान में इस्लामी क्रांति से पहले वाले नेतृत्व ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत कर दिए थे, जिससे ईरान के बंधे हुए हैं। मगर उस संधि के तहत ही ईरान को शांतिपूर्ण मकसदों के लिए यूरेनियम संवर्धन क्षमता हासिल करने का अधिकार है। जबकि हकीकत यह है कि इजराइल के खैरख्वाह पश्चिमी देशों ने उसे इस अधिकार से वंचित करने के लगातार प्रयास किए हैं। उन देशों ने यही माहौल बना कर ईरान पर कठोर प्रतिबंध लगाए कि वह परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है।
उन देशों को ही संतुष्ट करने के लिए ईरान ने 2015 में परमाणु समझौता किया और अपने सभी ठिकानों को अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के लिए खोल दिया था। मगर 2017 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही डॉनल्ड ट्रंप ने अपने देश को उस समझौते से बाहर कर लिया। उसके बाद वो समझौता अप्रभावी हो गया। जो बाइडेन ने 2020 में वादा किया था कि राष्ट्रपति बनने पर वे अमेरिका को फिर से उस समझौते का हिस्सा बनाएंगे। उनके कार्यकाल के चार गुजर गए, लेकिन अमेरिका ने ऐसा नहीं किया। और अब फिर ट्रंप राष्ट्रपति हैं!
सवाल है कि 2017 के बाद ईरान किन शर्तों के प्रति वचनबद्ध रह गया था? एक पक्ष अपना वचन निभाने से मुकर गया और ईरान की तमाम कोशिशों के बावजूद परमाणु बम बनाने का इरादा ना रखने के उसकी घोषणाओं पर पश्चिम भरोसा करने से इनकार करता रहा, तो क्या यह उचित नहीं होता कि ईरान सचमुच परमाणु अस्त्र बनाने योग्य यूरेनियम का संवर्धन करने की ओर बढ़ता?
वैसे भी यह दुनिया जानती है कि इजराइल पश्चिम के संरक्षण में एनपीटी को ताक पर रखते हुए पर परमाणु बम बना चुका है। उससे पश्चिम एशिया का शक्ति संतुलन बिगड़ चुका है। अनेक जानकारों की यह राय निराधार नहीं है कि उस संतुलन को बहाल करने का एक ही रास्ता है कि ईरान परमाणु बम बनाए। मगर ईरान का मौजूदा नेतृत्व ऐसा करने को “गैर-इस्लामी” मानता है!
इसीलिए 13 जून को जब ईरान इजराइल के मारक हमलों का निशाना बना, तो उससे हमदर्दी रखने वाले हलकों में व्यग्रता देखी गई। इजराइल की निंदा करते हुए भी वहां से कुछ गंभीर सवाल ईरानी नेतृत्व के बारे में भी उठाए गए। यह तो साफ है कि दुनिया एक बड़े युद्ध की तरफ बढ़ रही है। इसकी जड़ें पश्चिमी वर्चस्व के लिए खतरा पैदा कर रहीं ठोस वस्तुगत परिस्थितियों में हैं। इस युद्ध के कई मोर्चे हैं। व्यापार युद्ध, तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका और चीन की तीखी होड़, भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धाएं, और सैन्य टकराव के हॉट स्पॉट- ये सभी एक ही बड़े युद्ध के मोर्चे हैं।
जब ऐसे हालात सामने आते हैं, तब देशों और तमाम शक्तियों- समूहों के सामने चुनौती अपना पक्ष चुनने की होती है। प्रथम विश्व युद्ध के समय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर न्यायपूर्ण और अन्यायपूर्ण युद्धों की परिभाषा पर गंभीर बहस छिड़ी थी। व्लादीमीर लेनिन ने 1916 में इस बारे में The Military Programme of the Proletarian Revolution (सर्वहारा क्रांति का सैनिक कार्यक्रम) नामक दस्तावेज में अपनी समझ रखी। इसमें उन्होंने कहा था,
“अगर कल मोरक्को फ्रांस के खिलाफ, भारत इंग्लैंड के खिलाफ, फारस (Persia यानी आज का ईरान) या चीन रूस के खिलाफ जंग का एलान कर दें, तो वो न्यायपूर्ण, रक्षात्मक युद्ध होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनमें पहले हमला किसने किया है। हम सोशलिस्टों की सहानुभूति उत्पीड़ित, पर-निर्भर, विषमता के शिकार राज्यों के प्रति होगी, जो गुलाम बनाने वाली, अत्याचारी बड़ी ताकतों के खिलाफ लड़ रहे होंगे।”
यह एक पैमाना है, जो आज के हालात में भी काम आने वाला है। इस लिहाज से बेशक आज इजराइल/अमेरिका के खिलाफ ईरान या यूक्रेन/नाटो के खिलाफ रूस के युद्ध न्यायपूर्ण, रक्षात्मक युद्ध हैं।
चूंकि इसी कारण विश्व के न्यायप्रिय समूहों की हमदर्दी ईरान के साथ है, इसीलिए ईरान की रणनीतिक खूबियों या खामियों पर वहां चर्चा होना लाजिमी है। शुक्रवार का दिन ईरान की रणनीतिक खामियां उजागर होने का था, जिस पर उन खेमों में व्यग्र प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक माना जाएगा। बहरहाल, रात होते-होते उस व्यग्रता से आहत भावनाओं पर काफी कुछ महरम ईरान ने अपनी कार्रवाइयों से लगा दिया। और अब उन खेमों की अपेक्षा है कि ईरान अपनी हिफाजत के दूरगामी उपाय करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दे।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)