माओवादी आन्दोलन एक बार फिर चर्चा में है, कहीं सरकारी कार्यवाहियों की निंदा हो रही है तो कहीं माओवादी कम्युनिस्टों की। यहाँ तक कि हमेशा की तरह स्टालिन भी ज़ेरे बहस हैं। बहरहाल, आप दुनिया के किसी भी दौर के किसी भी शासक के बारे में पढ़िए, उसके दामन पर खून के छींटे जरूर मिलेंगे। हमारे देश में जवाहरलाल नेहरू का बहुत सम्मान है, लेकिन उनका दामन भी इससे पाक नहीं है।
अब सवाल पैदा होता है कि क्या हिंसा शासन का अनिवार्य अंग है? इसी तरह “विधि के शासन” यानी “रूल ऑफ लॉ” की भी खूब वकालत की जाती है। सवाल पैदा होता है कि क्या “विधि के शासन” में भी हिंसा ज़रूरी है? और अगर नहीं, तो क्या आज तक किसी ने “विधि द्वारा शासन” किया ही नहीं? ये सवाल भी मायने रखता है कि दुनिया में हर दौर में शासन के लिए विधान बनाए गए, लेकिन कोई भी शासक ऐसा क्यों नहीं हुआ कि वह बिना हिंसा के शासन कर पाए? “विधि” और “विधि के द्वारा शासन” करने वाले शासक के बीच किसका रुतबा बड़ा है यह सवाल भी बहुत महत्वपूर्ण है।
शासन-प्रशासन के लिहाज से अगर विचार करें तो ज्ञात इतिहास में शासन-प्रशासन के मुख्यतः दो भाग किए जा सकते हैं: एक जब निजी संपत्ति का उदय नहीं हुआ था, और दूसरा जब निजी संपत्ति के इर्द-गिर्द अलग-अलग दौर में अलग-अलग तरह की शासन व्यवस्थाएँ पैदा हुईं।
पहली अवस्था में शासन-प्रशासन का जो रूप दिखाई देता है, उसमें कुछ थोड़े से लोग मिलकर किसी एक को मुखिया चुनते हैं, सभी मिलकर रहन-सहन के नियम बनाते हैं और सभी मिलकर इन नियमों का पालन करते हैं। नियमों का पालन न करने पर सज़ा का विधान है जो हिंसात्मक भी हो सकता है। इस दौर में मनुष्य की चार अहम ज़रूरतें हैं: भोजन, सेक्स, सुरक्षा और मनोरंजन। यहाँ परिवार या कबीला दूसरे परिवार या कबीलों से संघर्ष करता है। ये संघर्ष भी मुख्यतः भोजन, सेक्स और सुरक्षा के लिए ही होते हैं। यानी इस समाज में हिंसा जीवन का आवश्यक अंग है।
अब एक हाई जम्प लेते हैं और आते हैं उस दौर में, जब संपत्ति का उदय हुआ। निजी संपत्ति कैसे बनी इस सवाल को छोड़ते हैं, सीधे इससे आगे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के साथ ही निजी परिवार वजूद में आया, और एक समाज बना जिसमें हर किसी के पास निजी संपत्ति और निजी परिवार है। इनकी सुरक्षा के लिए एक व्यवस्थित सुरक्षा इकाई है जिसका रूप बदलता रहता है। निजी संपत्ति पर आधारित समाज आगे चलकर राज्य के रूप में बदलता है। निजी संपत्ति पर आधारित परिवार और समाज और इससे आगे बनने वाले राज्य की हर अवस्था में हिंसा राजकाज का अनिवार्य अंग बना रहता है। हालाँकि अभी भी अहम ज़रूरतें भोजन, सेक्स, सुरक्षा और मनोरंजन ही हैं, लेकिन इसे अब और जटिल बना दिया गया है। बढ़ते ज्ञान, तकनीक और समझ की वजह से जीवन को सरल होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और हिंसा लगातार बढ़ती गई।
भारतीय उपमहाद्वीप में अहिंसा की सदियों से बड़ी महिमा गाई जा रही है, लेकिन यह व्यवहार में कितना उतरा, इसे समझने के लिए यही देखना काफ़ी होगा कि हिंदू परंपरा के हर आराध्य के हाथ में कोई न कोई हथियार है। भारत से बाहर निकलें तो देखेंगे कि पैगंबर-ए-इस्लाम को खुद तलवार लेकर जंग करनी पड़ी, यही हाल कमोबेश तमाम धर्मों और परंपराओं का है। यानी यह बात बिल्कुल साफ़ है कि समाज व्यवस्था जो और जैसी भी हो, उसमें हिंसा किसी न किसी रूप में होगी, इसे रोका नहीं जा सकता। मुमकिन है भविष्य में ऐसा कुछ हो, लेकिन अब तक के इतिहास के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि सामाजिक जीवन में हिंसा एक अनिवार्य तत्व है।
हम सभी एक जीव के साथ एक व्यक्तित्व भी हैं। व्यक्तित्व निर्माण में परिवार, समाज और शिक्षा की अहम भूमिका है। यानी हम जिस तरह के समाज में रहते हैं, उसी के अनुरूप हमारा व्यक्तित्व बनता है। साथ ही हमारी स्वतंत्र चेतना भी है, इसलिए शिक्षा और अनुभव हमें हमारे समाज के बनाए दायरों का अतिक्रमण करने की भी क्षमता देते हैं। यही वजह है कि हर दौर में हर समाज में अलग-अलग तरह के क्रांतिकारी पैदा हुए हैं जिन्होंने लगभग ठहर चुके समाज को गति और दिशा दी है। हाँ, तत्कालीन समाज के ताकतवर या शासक वर्ग ने ऐसे क्रांतिकारियों का दमन करने का पूरा प्रयास भी किया क्योंकि ठहरे हुए समाज से उनके स्वार्थ जुड़े हुए थे। यानी क्रांति करने और क्रांति को रोकने की प्रक्रियाओं के दौरान भी हिंसा होती ही है।
अब सवाल पैदा होता है कि अगर यह हिंसा अनिवार्य है तो क्या इसका कोई सकारात्मक रूप भी हो सकता है? इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह भी है कि हिंसा कब और कैसे सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती है? मेरे विचार से इसे देखने के लिए दो नज़रिया हो सकते हैं। पहला: जो हिंसा व्यापक जनसमुदाय के विरुद्ध हो, उसे नकारात्मक कहेंगे; और जो व्यापक जनसमुदाय के हित में हो, वह हिंसा सकारात्मक कही जा सकती है।
इसे देखने का एक नज़रिया धर्म की संकीर्णता और राष्ट्रवाद से पैदा होता है। यानी “हमारे धर्म” के प्रति हिंसा नकारात्मक और दूसरे हमारे द्वारा दूसरे धर्म के प्रति हिंसा सकारात्मक, या हमारे देश के प्रति की गई हिंसा बुरी लेकिन हमारे ही देश के द्वारा दूसरे देश के प्रति की गई हिंसा बहादुरी। हिंसा की ये दोनों ही अवधारणाएँ हमारे आसपास दिखाई देती हैं।
अमेरिकी शासकों की हिंसा ने अमेरिका के रेड इंडियन लोगों के वजूद को लगभग मिटा दिया, ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत सहित दुनिया भर में करोड़ों लोगों की हत्या की, हिटलर और मुसोलिनी ने लाखों लोगों को मारा, स्टालिन और माओ पर भी ऐसे ही इल्ज़ामात हैं।
यहाँ जिन लोगों और इलाकों की ओर मैं संकेत कर रहा हूँ, उनकी हिंसा को इस नज़रीये से देखा जाना चाहिए कि इनकी हिंसा क्या व्यापक जनसमुदाय के हित में थी? अगर इस सवाल का जवाब हाँ है, तो हम इनकी हिंसा को स्वीकार्य कह सकते हैं। इसी तरह एक और सवाल — क्या ऐसा हो सकता है कि एक ही शासक या शासक समूह ऐसी हिंसात्मक कार्यवाही करे, जिनमें से कुछ तो व्यापक जनसमुदाय के हित में हों और कुछ निजी स्वार्थों से प्रेरित हों? मेरे ख्याल से ऐसा हो सकता है।
पिछले सवाल से जुड़ते हैं — जो व्यक्तित्व समाज के दिए साँचे में निर्मित हुआ है, भले ही वह समाज की प्रगतिशील धारा का हिस्सा बनता है, उसमें तत्कालीन समाज की कुछ बुराइयाँ रह सकती हैं। ऐसी सूरत में उसकी कुछ हिंसात्मक कार्रवाइयाँ जहाँ समाज के व्यापक हित में हो रही हैं, वहीं कुछ निजी स्वार्थों या महत्वाकांक्षाओं के लिए भी हो सकती हैं। लेकिन एक बार फिर, किसी व्यक्तित्व को खारिज करने से पहले हमें यह सोचना होगा कि उसके हिंसात्मक कार्य, जिनके आधार पर हम उसे खारिज कर रहे हैं, पूर्णता में व्यापक जनसमुदाय के हित में थीं या नहीं।
हम हमारे संविधान को बचाने के लिए लगातार प्रयासरत हैं। संविधान को खतरा उन्हीं से है जो इस संविधान के ही सहारे संविधान मिटाने की हैसियत तक पहुँचे हैं। और संविधान बचाने के लिए हमें इसी संविधान का सहारा लेकर इसके लिए खतरा बने लोगों से लड़ना है। यानी संविधान या विधान अपने आप में कोई शक्ति नहीं है, उसकी ताकत हम और आप हैं या वो जिन पर इसे सँभालने की जिम्मेदारी है। इस पर आगे आप सोचिए, मैं इसे फ़िलहाल यहीं पर छोड़ता हूँ।
आइए, अब बाकी सवालों पर चर्चा करते हैं।
आज एक बार फिर दुनिया भर में मानव समाज एक ऐसी अवस्था में पहुंच चुका है जहां बदलाव बहुत ज़रूरी है। दुनिया के एक प्रतिशत से भी कम लोगों का स्वार्थ समाज के इस ठहराव के साथ जुड़ा है, बाकी लोगों का हित बदलाव के साथ। लेकिन इन एक प्रतिशत लोगों के पास दुनिया के बाकी 99 प्रतिशत लोगों का मुकाबला करने के लिए हज़ार तरह के संसाधन हैं, जबकि 99 प्रतिशत लोगों को इन्हीं के संसाधन छीन कर या अपने तौर पर संसाधन तैयार कर इनसे लड़ना होगा। ताकतवर लोगों के हाथ में हथियार, सेना और मीडिया भी है, इसलिए ये अपनी हिंसा को “न्याय” और बदलाव की ताकतों की हिंसा को “अपराध” घोषित कर सकते हैं।
अब सवाल यह है कि हम क्या करें? यहाँ दो और बातें समझने जैसी हैं — पहली यह कि हिंसा के बिना समाज में व्यवस्था नहीं बनेगी, लेकिन इस हिंसा को व्यापक जनसमुदाय के हित में होना चाहिए। दूसरी, हिंसा की अनिवार्यता भले हो, यह मानव स्वभाव नहीं है, इसलिए राज्यों की तमाम बड़ी हिंसात्मक कार्रवाइयों को “शांति और अहिंसा के लिए” करार देने की पूरी कोशिश होती है।
हम कह सकते हैं कि अहिंसा और शांति मानव मन की प्यास है, समाज विकास का सर्वोच्च आदर्श है। यानी हमारे समाज के विकास की दिशा को उत्तरोत्तर इस आदर्श की तरफ बढ़ना है जहाँ राज्य और व्यक्ति दोनों के द्वारा की जाने वाली हिंसात्मक गतिविधियाँ कम होती जाएंगी।
एक अंतिम बात — आज व्यक्ति और राज्य दोनों की हिंसा में निजी संपदा की सुरक्षा सबसे बड़ा प्रेरक तत्व है। निजी संपदा का उन्मूलन और सामूहिकता की स्वीकार्यता, अहिंसा की ओर बढ़ना है। आप जिस किसी की हिंसा से आहत हैं, उसे नज़र में रख कर सवाल पूछिए कि उसकी हिंसा किसके लाभार्थ है? एक साथ कई सवालों के जवाब मिल जाएँगे।
(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)