यूपी के स्कूलों में रामायण और वेदों पर केन्द्रित कार्यशाला? 

(उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में गर्मियों के दिनों में रामायण और वेदों पर केन्द्रित कार्यशाला चलाने का निर्णय पिछले दिनों सामने आया था। बताया जा रहा गया है कि ऐसी कार्यशालाएं अयोध्या स्थित ‘इंटरनेशनल रामायण एण्ड वैदिक रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के तहत संचालित की जाएंगी। प्रस्तुत निर्णय किस तरह ‘संविधान के प्रावधानों की अवहेलना’ करता है, इसे फोकस बनाते हुए, इलाहाबाद स्थित उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका में चुनौती दी गयी थी।

इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ यही ख़बर आयी कि याचिका को खारिज किया गया हैं। माननीय उच्च न्यायालय के तर्कों से हम फिलवक्त़ अवगत नहीं हैं, अलबत्ता प्रस्तुत आलेख में  हम संविधान के प्रावधान, विभिन्न अदालतों के फैसले की चर्चा कर रहे हैं ताकि इससे जुड़े आयाम साफ हो।)

“No religious instruction shall be provided in any educational institution wholly maintained out of State Funds” unless “established under any endowment or trust which requires that religious instruction shall be imparted in such institution”. ( Article 28 of the Indian Constitution)

(‘सरकारी खर्चे से चलने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’’ सिवाय ऐसे मामलों के ‘‘जहां किसी ट्रस्ट के तहत या अक्षय निधि /एनडोनमेण्ट/ के तहत स्कूल का निर्माण हुआ हो, इसके लिए जरूरी है कि ऐसी संस्था में धार्मिक शिक्षा दी जाए। / भारत के संविधान की धारा 28/ )

पचहत्तर साल का लम्बा वक्फा गुजर गया जब संविधान के संस्थापकों ने यह साफ साफ रूख अपनाया था कि ‘सरकारी खर्चे से चलने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’ यही वह वक्त़ था जब वह नवस्वाधीन भारत के भविष्य की रूपरेखा कैसे होगी इसका खाका पेश कर रहे थे। अगर हम उन दिनो की  संविधान समिति की बैठकों को देखें तो यह बात साफ होती है कि समिति के सदस्य-जिनका बहुलांश आस्तिक था-इस राय के थे कि स्कूल, जिनका बुनियादी मकसद बच्चों के दिमागों को खोलना है और बेकार की सूचनाओं का कूड़ादान नहीं बनाना है, वहां किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।

दरअसल वह विभाजन के दौरान हुई प्रचंड आपसी हिंसा के अपने अनुभव से इस बात को देख पा रहे थे कि धार्मिक उन्माद से प्रेरित शिक्षा किस तरह मनों को विषाक्त बना सकती है और किस किस्म का कहर बरपा कर सकती है और वह इस बात के लिए संकल्पबद्ध थे कि आज़ाद भारत का निर्माण धर्मनिरपेक्ष आधारों पर ही किया जाएगा।

यहां इस बात पर भी जोर देना जरूरी है कि संविधान की धारा 28 इस मामले में बिल्कुल साफ है और किसी भी किस्म की अस्पष्टता नहीं छोड़ती, जहां तक उस पर अमल करने का सवाल है। :

“No person attending any educational institution recognised by the state or receiving aid out of state funds shall be required to take part in any religious instruction that may be imparted in such institution or to attend any religious worship that may be conducted in such institution or in any premises attached thereto unless such person or, if such person is a minor, his guardian has given his consent thereto cultural and educational rights.”

(‘‘कोई भी व्यक्ति जो राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या उसके द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त संस्थान से शिक्षा ग्रहण कर रहा है उसे उपरोक्त शिक्षा संस्थान में प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा में सहभागी होने की आवश्यकता नहीं है या उसे ऐसे संस्थानों में संचालित की जाने वाली  धार्मिक पूजा में भी शामिल होने की जरूरत नहीं है, जब तक ऐसा व्यक्ति अल्पवयस्क हो और उसके अभिभावक ने सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को लेकर अपनी सहमति प्रदान की हो।’’)

आखिर धार्मिक शिक्षा से हमारे क्या मायने हैं? 

यहां धार्मिक शिक्षा का सीमित मतलब है। इसके मायने यही हैं कि रूढ़ि/प्रथा, पूजा के तरीके, रस्म, अनुष्ठान, धार्मिक संस्कार आदि की शिक्षा राज्य द्वारा वित्त पोषित शिक्षा संस्थानों में नहीं दी जा सकती।

वैसे इस अन्तराल में गंगा, यमुना और मुल्क की तमाम नदियों से ढेर सारा पानी बह चुका है और अब लगने लगा है कि रफता रफता ही सही संविधान के इस अहम प्रावधान को हल्का करने की कोशिश चुपचाप चल रही है और पिछले दरवाजे से सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के लिए रास्ता सुगम किया जा रहा है।

पिछले दिनों  उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के शिक्षा विभाग की तरफ से  सरकारी स्कूलों में रामायण और वेदों को लेकर कार्यशालाएं चलाने का निर्णय लिया गया।

बताया गया  है कि ऐसी कार्यशालाएं अयोध्या स्थित ‘इंटरनेशनल रामायण एण्ड वैदिक रिसर्च इन्स्टिटयूट’ के तहत संचालित की जाएंगी और उसमें रामलीला, रामचरितमानस का पाठ, वैदिक मंत्रोच्चार, पेंटिंग और मुखौटा बनाना आदि गतिविधियां शामिल होंगी। (https://en.themooknayak.com/education/up-government- mandates-ramayana-and-vedic-workshops-in-schools-bhim-army-chief-calls-it-a-constitutional-violation)

जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि अचानक सामने आये सरकार के इस निर्णय के चलते प्रबुद्ध जनता के एक हिस्से में सवाल पैदा हुए। 

            -एक, वह संविधान की धारा 28 के बिल्कुल खिलाफ पड़ता है और इस तरह संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों  का निषेध है।
             -दो, एक ऐसे राज्य में जहां अलग अलग आस्थाओं से जुड़े लोग सदियां से साथ रहते आए हों, वहां बहुसंख्यकों के धर्म को वरीयता प्रदान करना – सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ तथा गिनेचुने नास्तिक छात्रों  के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव का मामला है।
              -तीसरे, ऐसी कार्यशालाएं इन धार्मिक ग्रंथों  में गहरे रूप में नज़र आने वाले जेण्डर और जाति भेदभावों को नयी मजबूती प्रदान करेंगी।

इस योजना को लेकर  दो तरह की प्रतिक्रिया सामने आयी 

एक तरफ जागरूक नागरिकों ने इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद की है, इस योजना को संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन बताया है। भीम आर्मी के नेता और सांसद चंद्रशेखर रावण ने इस योजना का विरोध करते हुए साथ साथ सरकार को यह सुझाव दिया है कि अगर वह सरकारी स्कूलों में कार्यशालाएं आयोजित करना चाहतीन है, तो उसका फोकस संविधान पर ही रहे। 

मुमकिन है उन्हें अभिप्रेत रहा हो कि छात्रा-छात्राओं को संविधान के अलग पहलुओं से, उसके इतिहास से और उसके बुनियादी सिद्धांतों से अवगत कराया जाए, उन्हें यह बताया जाए कि मुल्क के बंटवारे के वक्त जब धर्म के नाम पर राष्ट्र  बनाने का उन्माद उरूज पर था- जिसके चलते अलग मुल्क भी बन गया- उस वक्त़ हमारे संविधान निर्माताओं ने किस तरह एक भविष्य के भारत का नक्शा देखाा और यह तय किया कि स्वाधीन भारत का निर्माण धर्मनिरपेक्षता के रास्तों पर होगा, जहां किसी के साथ धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।

दूसरे, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है और अदालत से गुहार लगायी है कि वह इस ‘संविधान विरोधी योजना’ को खारिज करे और इक्कीसवीं सदी की इस तीसरी दहाई में संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों को बचाने के लिए चल रहे संघर्ष को मजबूती प्रदान करे।

एक ऐसीही याचिका को लेकर पिछले दिनों उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में सुनवाई भी हुई और उसमें अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा है। [https://countercurrents.org/2025/05/ramcharitmanas-and-vedic-workshops-in-uttar- pradesh-schools-a-public-interest-litigation-against-an-unconstitutional-move/] 

प्रस्तुत पिटिशन का उद्देश्य न केवल ‘‘संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना है बल्कि साथ ही साथ यह सुनिश्चित करना है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक चिन्तन से ओतप्रोत बनी रहे ’ याचिका में मांग की गयी कि 5 मई 2025 और 8 मई 2025 को जारी दोनों आदेशों को निरस्त किया जाए और पीटिशनर को निम्नलिखित सहायता प्रदान की जाए:

1.स्कूलों में खास धार्मिक किताबों को प्रोत्साहित करने से बचने के लिए सरकार को आदेश दिया जाए।
2.इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षा समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक बनी रहे।
3.जेण्डर और जातिगत भेदभाव को वैधता और पवित्रता प्रदान करने वाले धार्मिक पाठों से छात्रों के एक बड़े हिस्से को बचाया जाए, ऐसी शिक्षा को रोका जाए।

पीटिशन इस बात को भी साफ करता है कि योगी सरकार की यह योजना किस तरह ‘असंवैधानिक’ है : [https://countercurrents.org/2025/05/ramcharitmanas-and-vedic-workshops-in-uttar- pradesh-schools-a-public-interest-litigation-against-an-unconstitutional-move/] 

धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन ?

हर कोई जानता है कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को बुनियादी विशेषता मानता है / देखें, एस आर बोम्मई बनाम भारत सरकार, 1994/ सरकारी स्कूलों में रामचरितमानस और वेदों को अनिवार्य बनाना- जो हिन्दू धार्मिक ग्रंथ है- एक तरह से खास धर्म का प्रचार करना है। यह कदम संविधान की धारा 28/1 का उल्लंघन करता है, जो सरकारी स्कूलों मे धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करती है। अरूणा राॅय बनाम संघीय सरकार /2002/ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन संभव है लेकिन एक खास धर्म को प्रोत्साहित करना असंवैधानिक है।

वैज्ञानिक चिन्तन पर हमला

संविधान की धारा 51ए /एच/ हर नागरिक का यह कर्तव्य मानती है कि वह वैज्ञानिक चिन्तन, मानवतावाद, खोज की प्रव्रत्ति और सुधार को बढ़ावा दे। अगर हम स्कूलों में धार्मिक कितााबों को या मिथकीय ग्रंथों को प्रोत्साहित करें तो वह न केवल तार्किक चिन्तन और वैज्ञानिक खोज को कमजोर कर देगा। याद रहे सन्तोष कुमार बनाम सचिव, भारत का मानव संसाधन विकास मंत्रालय मामले में /1994/ आला अदालत ने यही कहा कि शिक्षा को चाहिए कि वह वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन को- न कि धार्मिक अंधश्रद्धा को- बढ़ावा दे।

अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन  

संविधान की धारा 29 और 30 अल्पसंख्यकों  को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह अपनी संस्कृति  और शैक्षिक स्वायत्तता की रक्षा करे अगर आप हिन्दू केन्द्रित रचना को मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों पर लादते हैं, तो यह उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों का हनन होगा। / सेन्ट झेवियर्स काॅलेज बनाम गुजरात सरकार, 1974/

वैसे अगर हम हाल के वर्षों की समीक्षा करें तो  केन्द्र और तमाम राज्यों  में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद यही समा बना है कि तमाम रास्तों और तरीकों से धर्मविशेष को – हिन्दू धर्म को – प्रत्यक्ष तरीके से या परोक्ष रूप में अधिकाधिक बढ़ावा दिया जाए।

हम यूपी के पड़ोसी सूबा मध्यप्रदेश की इस ख़बर पर गौर कर सकते हैं जहां मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों  में हिन्दू धार्मिक पाठों को पाठयक्रम का हिस्सा बनाया गया।[https://www.indiatoday.in/india/story/madhya-pradesh-cm-shivraj-chouhan-inclusion-gita-mahabharat-ramayana-govt-school-curriculum-2325431-2023-01-23]  राजस्थान में  भाजपा के इसके पहले के कार्यकाल में उसका एक विवादास्पद कदम सूर्खियां बना था जब उसकी तरफ से सन्तों – महात्माओं के सरकारी स्कूलों में प्रवचनों की योजना बनायी गयी थी।   [https://www.newsclick.in/saints-schools]यह बात भी अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह हरियाणा सरकार ने प्रधानमंत्राी मोदी के पहले कार्यकाल के शुरूआती दिनों में ही भगवदगीता को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाया था। (https://caravanmagazine.in/vantage/haryana-bhagavad-gita-school-curriculum-skews-idea-education)

ऐसे कदम जो संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों का उल्लंघन करते दिखते है वह एक तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संविधान को लेकर ही लम्बे समय से चली आ रही बेचैनी को उदघाटित करते हैं। [https://www.newsclick.in/unending-discomfort-rss-constitution]यह बात अब पुरानी हो चुकी है कि जिस दिन संविधान सभा ने आज़ाद भारत के लिए संविधान के प्रारूप को अपनाया था / नवम्बर 1949/ उसके महज तीन दिन बाद ही राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रा समझे जाने वाले आर्गनायजर ने अपने सम्पादकीय में इसकी जबरदस्त आलोचला की थी और मनुस्म्रति की तारीफ की थी। /

 आर्गनाइजर का 30 नवम्बर 1949 का सम्पादकीय, देखें https://www.newsclick.in/unending-discomfort-rss-constitution/ गौरतलब है कि न केवल आर्गनायजर मनुस्मृति के कसीदे पढ़ रहा था और संविधान के बरअक्स उसे खड़ा कर रहा था बल्कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी आन्दोलन के दूसरे महारथी विनायक दामोदर सावरकर ने भी संविधान के मसविदे की  निंदा की  थी और इस बात पर जोर दिया था कि स्वाधीन भारत के कानूनों  का आधार मनुस्म्रति को बनाना चाहिए था।

इस बात पर भी जोर देना जरूरी है कि संविधान के इन उसूलों के अलावा अदालतों के ऐसे कई हस्तक्षेप हैं या फैसले हैं, जो इस बात के प्रति स्पष्ट हैं कि स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।

जबलपुर, मध्यप्रदेश के वकील विनायक शाह द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस याचिका पर गौर करें, जिसके तहत केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत  प्रार्थनाओं की प्रस्तुति को चुनौती दी गयी है। उनके द्वारा दायर याचिका के मुताबिक, ऐसा करना ‘सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देना है’ जो संविधान की धारा 28/3 का उल्लंघन  है, जो बताती है कि राज्य द्वारा मान्यताप्राप्त या वित्तीय सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थान में शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्र के लिए संस्थान के अंदर या उससे जुडे परिसर में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता बशर्ते वह अल्पवयस्क हो और उसके अभिभावकों ने इसके प्रति सहमति प्रदान की हो।

यह याचिका मूलतः तीन मुद्दों के इर्द गिर्द केन्द्रित है:

1.एक, यह उचित नहीं है कि सभी धर्मो के बच्चों  को, जिनमें ऐसे परिवार भी होंगे, जो नास्तिक हों या अज्ञेयवादी हो, हिन्दू प्रार्थना गाने के लिए मजबूर किया जाए।


2.दूसरे, इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूलों मं धार्मिक शिक्षा पर संवैधानिक प्रतिबंध है, देश भर में फैले 1,100 केन्द्रीय विद्यालयां में हर दिन ऐसी प्रार्थना सभाओं का आयोजन न किया जाए।


3.तीसरे, प्रार्थना गीत एक तरह से छात्रों में वैज्ञानिक चिन्तन के विकास को बाधित करते हैं, जो एक तरह से भारत के संविधान की धारा 51/ए/ का उल्लंघन है, जो कहती है कि हर नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक चिन्तन, मानवता, खोज एवं सुधार की प्रव्र्रति को विकसित करे।

इस मुददे की व्यापक अहमियत देखते हुए न्यायमूर्ति रोहिन्टन नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरण की द्विसदस्यीय पीठ ने इस मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश को संदर्भित किया था ताकि समूची संवैधानिक पीठ इस मामले की पड़तााल करे,जिसमें  कमसे कम पांच सदस्य शामिल हों।[https://www.ndtv.com/india-news/petition-on-sanskrit-prayers-in-schools-referred-to-constitution-bench-1984603

हम सूबा महाराष्ट के उस मामले पर भी गौर कर सकते हैं जब एक शिक्षक संजय सालवे ने, जो नाशिक के एक स्कूल में अध्यापररत थे, स्कूल के प्रबंधन के खिलाफ अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी, जिनकी वेतन में बढ़ोत्तरी को स्कूल ने रोका था क्योंकि वह स्कूल की प्रार्थना के वक्त़ हाथ नहीं जोड़ते थे। इस मामले को लेकर सालवे ने अदालत की शरण ली थी और उनकी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की मांग की थी। उनका कहना था कि स्कूलों में होने वाली प्रार्थना के वक्त़ उन्हें  खड़े होने और हाथ जोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रार्थना पढ़ना एक तरह से धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है, जो संविधान की धारा 28/1 का उल्लंघन है।  [https://www.newsclick.in/There-no-God-You-Can-Say-so]

मुंबई उच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय पीठ ने शिक्षक के पक्ष में निर्णय सुनाया था और कहा था कि ‘‘ प्रार्थना के वक्त हाथ जोड़ने के लिए शिक्षक को मजबूर करना बुनियादी अधिकारों का हनन होगा।’ [https://indianexpress.com/article/india/india-others/teacher-cannot-be-forced-to-fold-hands-in-school-prayers-bombay-hc/]

हम चाहें तो नेशनल काॅन्सिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग  /एनसीईआरटी/ द्वारा तैयार उस मैन्युअल पर भी गौर सकते हैं जिसमें उसने अल्पसंख्यक समुदायों की जरूरतों को लेकर विशेष तरीके से संवेदीक्रत करने पर जोर था।
(https://www.google.com/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=web&cd=&ved=2ahUKEwjZmt2z-uD2AhW64XMBHQwqBE4QFnoECAMQAQ&url=https%3A%2F%2Fncert.nic.in%2Fpdf%2Fannouncement%2FInclusion_in_Eduction.pdf&usg=AOvVaw38jPYIkHKWyf0lJbzEw3-z)

सूबा उत्तर प्रदेश में सत्तासीन योगी सरकार के ताज़ा आदेश के मददेनज़र इस मसले पर भी गौर करना जरूरी है कि क्या कोई शिक्षा संस्थान अपने छात्रों को नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक शिक्षा के लिए मजबूर कर सकता है क्या ? यह पूछने की वजह यही है कि अक्सर छात्रों को ‘मूल्यपरक’ शिक्षा देने के नाम पर धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाती है।

गौरतलब है कि संविधान की मसविदा कमेटी – जिसकी अध्यक्षता डा अम्बेडकर कर रहे थे – इस संभावना से वाकिफ थी और कमेटी ने इस बात को स्पष्ट किया था कि ऐसा कोई भी कदम संविधान की धारा 19 का उल्लंघन होगा, जो हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का अधिकार देता है और उसका उल्लंघन, एक तरह से संविधान के आर्टिकल 25 /1/ का उल्लंघन होगा जो कहती  है कि:

 “Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all person are equally entitled to freedom of conscience and the right to freely profess, practice and propagate religion.”
(‘‘सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य और इस हिस्से के अन्य प्रावधानांे को देखते हुए, सभी व्यक्तिसमान रूप से विवेक की स्वतंत्राता के हकदार हैं, और जिन्हें अपने धर्म के स्वीकार, आचरण और प्रसार का अधिकार होगा।’’)

अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो हम संविधान के इन विभिन्न आर्टिकल्स के प्रगतिशील स्वरूप को देख सकते हैं, जिनको संविधान समिति के उन सदस्यों ने ही परिभाषित किया जिनका बहुमत खुद आस्तिक था और उनमे से शायद ही कोई घोषित नास्तिक था – जो इस बात के लिए प्रतिबद्ध थे कि किसी भी सूरत में राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में किसी भी रूप में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। जाहिर है बंटवारे की विभीषिका को अनुभव करने के बाद, जिसमें धर्म को राष्टीयत्व को आधार बनाने की बात जनता के एक हिस्से को प्रभावित की थी, वह इस बात की भविष्यवाणी कर सकते थे कि धर्म को निजी दायरों तक सीमित क्यों रखना चाहिए।

(सुभाष गाताडे लेखक, अनुवादक, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (एनएसआई) से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं।)

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