विश्व बाल श्रम निषेध दिवस : छिने हुए बचपन की राख में क्या आपने सपनों की चिंगारी देखी है ?

आज एक बार फिर विश्व बाल श्रम निषेध दिवस आ गया है। कैलेंडर के इस दिन को हम कैंडल मार्च, हैशटैग,सौशल-मीडियाई क्रान्तिकारी घोषणाएं और ब्रैनस्टार्मिंग विमर्श के उजास से रोशन करते हैं ; और फिर अगली सुबह सब कुछ जस का तस…यानी बाल श्रमिक वहीं हैं , चाय की दुकानों पर, ईंट भट्टों में, मैकेनिक शेड के कोनों में, और भीड़भरी ट्रेनों में चाय या पॉलिश की आवाज लगाते हुए।

यह सच है कि जब बाल श्रमिकों की वास्तविकता सरकार की फाइलों से बाहर झांकती है, तो उन आंखों में ‘चाय’ नहीं ,भूख, पीड़ा और छिने हुए बचपन की परछाइयां नजर आती हैं।

जनजातीय बच्चों के श्रम और सीखने को बाल श्रम न समझें : बस्तर से मिजोरम तक, हमारे आदिवासी अंचलों में बच्चे बचपन से ही जंगल की भाषा, मिट्टी की गंध, मौसम का मिज़ाज और बीजों की पहचान सीखते हैं। गर्मी की छुट्टियों में खेतों में काम कर के वे फीस और यूनिफॉर्म का खर्च खुद निकालते थे। यह ‘श्रम आधारित शिक्षा है,‘शोषण आधारित बाल श्रम’ नहीं।
यदि कानून की भाषा जनजातीय जीवन की प्रकृति नहीं समझेगी, तो वह विकास नहीं, विघातक हस्तक्षेप बन जाएगी।
“बाल श्रम रोकने के नाम पर अगर आप बाल ज्ञान को मारते हैं, तो आप सिर्फ एक पीढ़ी नहीं बल्कि एक परंपरा को समाप्त कर रहे हैं।”

आंकड़े बोलते हैं, लेकिन नीति मौन है :

ILO-UNICEF की रिपोर्ट (2021) कहता है कि भारत में 1 करोड़ से अधिक बाल श्रमिक हैं।

2022 में सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 1% से भी कम बच्चे पुनर्वास योजनाओं तक पहुंचे।

‘बचपन बचाओ आंदोलन’, ‘प्रथम’ और ‘सेव द चिल्ड्रन’ जैसे संगठन ज़मीनी स्तर पर कुछ कर रहे हैं , लेकिन ये सारे प्रयास रेगिस्तान में प्याले भर जल जैसे हैं।

सुधार गृह’ बनते जा रहे हैं अपराध की प्रयोगशालाएं :

बाल संरक्षण गृहों की स्थिति कई बार डरावनी होती है। वहाँ सुधार की जगह अपराध की ट्रेंनिंग मिलती है। राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग ने पाया कि 35% सुधार गृहों में बच्चों को शारीरिक या मानसिक शोषण झेलना पड़ता है।
क्या इन स्थानों से बच्चे “सुधर कर” लौटते हैं या “बदलकर”?

भीख मांगते बच्चे और अदृश्य माफिया : हमें उन बच्चों की कहानी भी देखनी चाहिए जो ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगते हैं या कचरा बीनते हैं। ये केवल गरीबी नहीं बल्कि एक संगठित आपराधिक गिरोह की कड़ी है, जो बच्चों को अपहरण कर, विकलांग बनाकर, या भय दिखा कर सड़कों पर उतारता है। सरकारी तंत्र, अक्सर इस विषय पर मौन साध लेता है। कोई बच्चा मज़े से मजदूर नहीं बनता। बच्चों को हाथ में खिलौनों के बजाय फावड़ा, किताबों के बजाय कप प्लेट क्यों पकड़ाने पड़ते हैं? क्योंकि पिता बीमार हैं, मां अकेली है, घर में कमाने वाला कोई नहीं है, रसोई में चूल्हा नहीं जलता। अब बच्चा काम नहीं करेगा तो घर में खाना नहीं बनेगा। ऐसे में उसे स्कूल भेजने से पहले रसोई और राशन की गारंटी ज़रूरी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि “एक भूखा बचपन किताबों से नहीं, रोटियों से शुरू होता है।”

संकल्प के लिए समय यही है :

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस केवल भाषणों का दिन न बने, इसके लिए हमें ज़मीनी बदलाव की ओर कदम बढ़ाने होंगे।

बाल श्रमिक परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना होनी चाहिए, शिक्षा और श्रम के बीच सांस्कृतिक रूप से संतुलित नीति का बनाया जाना जरूरी है। बाल सुधार गृहों में निगरानी, पारदर्शिता और न्याय प्रणाली हो। NGO और ग्राम स्तरीय जागरूकता अभियान को नीति में जगह मिले।

“रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था “बच्चे ईश्वर का यह संदेश हैं कि वह अभी मनुष्य से निराश नहीं हुआ”

तो आइए, इस ईश्वर के संदेश की रक्षा करें। हर बच्चे को वो बचपन मिले जो किताबों, रंगों, खेल और सपनों से सजा हो , न कि मजदूरी, गाली और ग्रीस से। क्योंकि बचपन खोने से केवल एक जीवन नहीं बल्कि एक सभ्यता पीछे लौटती है।

(लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं तथा अखिल भारतीय किसान महासंघ के राष्ट्रीय-संयोजक हैं।)

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