विश्व पर्यावरण दिवस : सांकेतिक एक दिवसीय मुहिम या एक सतत प्रकिया

विश्व पर्यावरण पर पहली बार चर्चा 1972 में स्काटहोम मे हुई, पहली बार पर्यावरण दिवस 5 जून 1973 में मनाया गया। हर साल एक थीम के तहत पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। बड़े-बड़े सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही संस्थानों द्वारा करीब एक महीना पहले से ही विश्व पर्यावरण दिवस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। करोड़ों का बजट इस कार्यक्रम को मनाने के लिए खर्च किया जाता है, पूरे देश भर में वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया जाता है। 

इस साल की थीम थी, प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना, जोकि वर्तमान समय में बढ़ते प्रदूषण का कारण बनती जा रही है। प्लास्टिक की खपत अब एक खतरनाक स्तर को पार चुकी है। अनेक शोध अध्ययनों से पता चलता है कि समुद्र, नदिया पहाड़ों आदि पर प्लास्टिक प्रदूषण का स्तर खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुका है। समुद्र में रहनेवाले कई जीवों की प्रजातियां प्लास्टिक प्रदूषण के चलते खतम होती जा रही हैं। समुद्री प्रजातियों के शरीर के अन्दर तक प्लास्टिक पाये गये हैं। इसकी वजह से उनकी जान चली गई।

यह ठीक है कि प्लास्टिक प्रदूषण को रोकना चाहिए क्योंकि यह पर्यावरण के लिए घातक बनती जा रही है। अब सवाल यह है कि हम क्या सिर्फ जबानी तौर पर प्लास्टिक प्रदूषण को रोक रहे हैं या इस पर बनी नीतियों का सख्ती से पालन कर रहे हैं। प्लास्टिक कई प्रकार के होते हैं, इसी प्लास्टिक के तहत सैशे प्लास्टिक भी आते है, जिसमें शैम्पू के पाउच, कुरकरे, चिप्स के पैकेट, गुटका, और भी अन्य प्रकार के पाउच हैं, जिसमें अलग-अलग तरह का सामान कम मात्रा में कम पैसे में मिडिल क्लास और निम्न मध्यम वर्ग को उपलब्ध करवाया जाता है।

सैशे प्लास्टिक करोड़ों अरबों सालों तक नष्ट नहीं होता है, प्लास्टिक में सबसे ज्यादा सैशे और मल्टी लेयर प्लास्टिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है, इसके सदंर्भ में अभी तक जो भी नीतियां बनी हैं, वह जमीनी स्तर पर कितनी लागू हो पा रही है, उसका विकल्प लोगों के सामने क्या है कि आसानी से कम पैसे में अपनी जरूरत का सामान ले सकें, अभी तक भी इसका कोई विकल्प नहीं है।

हर साल भारत में लाखों पौधे लगाये जाते है, एक पौधे को पेड़ बनने में कई साल, परन्तु जब अपने निजी स्वार्थो के लिए जंगलों को काटने की बात आती है तो वहां सरकार के कदम कॉरपोरेट के हित में उठाए जाते रहे हैं। अभी हाल ही में हैदराबाद युनिवर्सिटी में पूरा जंगल रातों रात उजाड़ दिया, कुछ दिन तक अखबारों और सोशल मीडिया पर यह खबर सुर्खियों में रही फिर उसके बाद सब सामान्य हो गया सिर्फ हैदाराबाद में ही नहीं छतीसगढ़ राज्य में हसदेव अरण्य के जगलों को निजी फायदे के लिए लगातार काटा जा रहा है, यदि हम इस तरह से पर्यावरण को बचना चाहते है तो शायद यह बहुत मुश्किल है। पर्यावरण दिवस पर पेड़ लगाने से ही पर्यावरण सुरक्षित नहीं हो सकता बल्कि जगलों को सुरक्षित रख कर ही हम पर्यावरण को सुरक्षित रखने की मुहिम को आगे बढ़ा सकते हैं। 

भारत सरकार की रिर्पोट के अनुसार बकायदा आकड़ों के साथ बताया गया की हर साल 5 जून को लगाये जाने वाले पौधों की देखभाल का कोई ठोस ढांचा केन्द्र और राज्य सरकारों के पास नहीं है। वृक्षारोपण के बाद पानी की व्यवस्था या पौधों की देखभाल को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बनी है, रिर्पोट में बताया गया की साल 2020 में उत्तर  प्रदेश में 25 करोड़ पौधे लगे जिसमें से 40 प्रतिशत एक साल के अन्दर ही सूख गये। यह आंकड़ा एक साल का है बाकी बचे 60 प्रतिशत पौधों का क्या हुआ इसके सदंर्भ में कोई जानकारी नहीं है।

अब अगर हम इसे आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो पता चलता है पौधों की खरीद में करोड़ों रूपये की लागत आती है पर उसे हम व्यवस्थित तरीके से चला नहीं पाते हैं जो कि अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। सरकारी आकड़ों के अनुसार पिछले दस सालों में शहरों में 35 प्रतिशत हरियाली में कमी आई है, पिछले दस साल के आंकड़ों के अनुसार यदि 35 प्रतिशत हरियाली में कमी है तो हर साल करोड़ों रूपये हम पर्यावरण दिवस पर क्या खर्च कर रहे हैं इसकी कोई पारदर्शिता या जवाबदेही नहीं है। आंकड़े शहरी हरियाली की बात कर रहा है। इसके विपरीत यदि हम गांव, कस्बों और ऐसी जगहों को देखें जहां चंद लोगों के मुनाफे के लिए जंगलों को तबाह किया जा रहा है, यह स्थिति भयावह है। 

अगर हम इस साल के थीम की बात करें तो प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम, आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति मिनट 250 किलोग्राम कूड़ा उत्पन्न होता है। हर साल कई टन ई-कचरा खुले में फेंका जा रहा है, ई-कचरे का निपटान करने में ही कई तरह की गैसों का उत्सर्जन होता है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए ही हानिकारक है। वर्तमान समय में ई-वेस्ट का निर्माण हो रहा है वह सामान इस तरह से बनाया जा रहा है कि वह साल दो साल के अन्दर ही खराब हो जाता है, तो हम फिर से नया खरीदते हैं तो सवाल है कि अपने फायदे के लिए कंपनियों ने वस्तुओं की गुणवता को खराब कर दिया है और सरकार इस पर कोई नीति या कोई कार्यवाही नहीं कर रही है। 

पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में सिर्फ सरकार ही नहीं हमारी भी भूमिका है, जिसे हम अपने स्तर पर कम कर सकते है। लगातार बदलती जीवनशैली में हम पुराने को फेकना और नये को घर लाने में अपनी शान में बढ़ोत्तरी समझते हैं। आजकल महंगे फोन रखना स्टेटस सिंबल बन चुका है।

हम कूड़े को अलग-अलग करने की बात करते है पर न सिर्फ बस्तियों में रहने वाले निम्न वर्ग के लोग मिक्स कूड़ा फेकते है बल्कि बड़ी-बड़ी सोसाइटियों में रहने वाले उच्च वर्ग के लोग भी कूड़े को मिक्स करके ही फेकते हैं, फिर चाहे वह कूड़ा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाये या फिर असंगठित क्षेत्र के कचरा बीनने वाले मजदूरों के स्वास्थ्य को प्रभावित करे। 

सरकार द्वारा 2014 में हरित भारत मिशन की शुरूआत की गई, जिसका उद्देश्य था वन क्षेत्र को सुरक्षित करना और नए हरित इलाकों को बढ़ाना। वन जहां तक सुरक्षित है इसका अंदाजा हैदराबाद यूनिवर्सिटी और हसदेव अरण्य के अभी हालिया गतिविधि से लगाया जा सकता है। इस मिशन का दूसरा उद्देश्य था वन आधारित आजीविका का बढ़ाना। फिर भी सवाल वहीं का वहीं है कि जब वन ही काटे जा रहे हैं तो आजीविका का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। 

पर्यावरण को बचाने की मुहिम सिर्फ एक दिन की मुहिम नहीं है, 5 जून को हमने पौधे लगाये और दिल को बहला लिया कि हमने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह एक सतत प्रकिया है, जिसे हमें अपने व्यवहार और सरकार को अपनी नीतियों में लाना होगा, वो नहीं जो कागजों पर हरी-भरी है और जमीनी स्तर पर सूख चुकी है और उनका नामो-निशान नहीं है। जिस तरह से निजी स्वार्थों में जगलों को काटा जा रहा है उसे सख्ती से रोकना होगा, कम से कम जो हमारे पास पहले से है उसे नष्ट ना करें।

(धर्मेंद्र यादव स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

More From Author

बिहार में सत्ता परिवर्तन की जरूरत: तुषार गांधी

मसूरी : दमघोटू ट्रैफिक ने पर्यटक की ले ली जान

Leave a Reply