Thursday, March 28, 2024

काशीराम ने कराया था दलितों को राजनीतिक सत्ता की जरूरत का एहसास

डॉ. अजय कुमार

5 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के एक गांव खवासपुर में काशीराम का जन्म हुआ था। काशीराम जिस परिवार में पैदा हुए थे, वह रमदासिया चमार जाति का परिवार था। लेकिन बाद में इस परिवार ने सिख धर्म को अपना लिया। उस दौर में पंजाब में हिंदू धर्म की पिछड़ी जातियों के कई परिवारों ने सिख धर्म अपनाया था। इसकी मूल वजह यह बताई जाती है कि जितना भेदभाव हिंदू धर्म में पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ होता था, उतना भेदभाव सिख धर्म में नहीं था।

काशीराम जिस परिवार में पैदा हुए थे, उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर ठीक-ठाक कहा जा सकता है। काशीराम के पिता हरि सिंह के सभी भाई सेना में थे। हरि सिंह सेना में भर्ती नहीं हुए थे क्योंकि जो चार एकड़ की पैतृक जमीन परिवार के पास थी, उसकी देखभाल के लिए किसी पुरुष सदस्य का घर पर होना जरूरी था। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से काशीराम को बचपन में उतनी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा था। काशीराम के दो भाई और चार बहनें थीं।  इनमें से अकेले काशीराम ने रोपड़ के गवर्नमेंट कॉलेज से स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। 

22 साल की उम्र में यानी 1956 में काशीराम को सरकारी नौकरी मिल गई। 1958 में उन्होंने डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) में काम करना शुरू कर दिया। वे पुणे के पास डीआरडीओ की एक प्रयोगशाला में सहायक के तौर पर काम करते थे। यहां आने के बाद उन्होंने देखा कि पिछड़ी जाति के लोगों के साथ किस तरह का भेदभाव या उनका किस तरह से शोषण हो रहा है। काशीराम के लिए यह स्तब्ध और दुखी कर देने वाला अनुभव था। यहीं से काशीराम में एक ऐसी चेतना की शुरुआत हुई जिसने उन्हें सिर्फ अपने और अपने परिवार के हित के लिए काम करने वाले सरकारी कर्मचारी के बजाय एक बड़े मकसद के लिए काम करने वाला राजनेता बनने की दिशा में आगे बढ़ा दिया।

काशीराम को अंबेडकर और उनके विचारों से परिचित कराने का काम डीके खपारडे ने किया। खपारडे भी डीआरडीओ में ही काम करते थे। वे जाति से महार थे लेकिन बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था।  खपारडे ने ही काशीराम को अंबेडकर की ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पढ़ने को दी। जिस रात काशीराम को यह मिली, उस रात वे सोए नहीं और तीन बार इसे पढ़ डाला। इसके बाद उन्होंने अंबेडकर की वह किताब भी पढ़ी जिसमें उन्होंने यह विस्तार से बताया है कि महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अछूतों का कितना बुरा किया है। कांशीराम ने बाद में कई मौकों पर माना कि इन दो किताबों का उन पर सबसे अधिक असर रहा।

बीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों में भारतीय राजनीति को काशीराम से ज्यादा किसी और नेता ने प्रभावित नहीं किया वे उत्तर-अंबेडकर दलित राजनीति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतकार और सफलतम संगठनकर्ता थे। राजनीतिक चिंतन और आचरण के अपने अनूठे तरीके से उन्होंने आरक्षण के गर्भ से निकली दलित नौकरशाही के आधार पर पहले एक सामाजिक आंदोलन का ताना-बाना बुना और फिर योजनाबद्ध तरीके से बहुत कम संसाधनों में उसे चुनाव लड़ कर सत्ता में आने वाली एक कामयाब राजनीतिक पार्टी में बदल दिया। उनकी मुहावरेदार अभिव्यक्ति से कई नए राजनीतिक फिकरे निकले।

काशीराम ने अंबेडकर को अपना गुरू माना, लेकिन नए हालत के मद्देनजर बड़ी सावधानी से डॉ.अंबेडकर की कई शिक्षाओं को पकड़ने और छोड़ने का कौशल दिखाया। आजादी के बाद से देश में चल रही अंबेडकरवादी राजनीति के नक्शे-कदम पर चलने से तो उन्होंने पूरी तरह इंकार ही कर दिया। काशीराम ने फुले द्वारा प्रतिपादित आर्य बनाम अनार्य थिसिस को उत्तर भारत में पुनर्जीवित करके बहुजनवादी विचारधारा गढ़ी, हालांकि अंबेडकर ने कभी पहले इस थिसिस को नस्लीय कहकर खारिज कर दिया था। काशीराम ने दलित राजनीति में ब्राह्मणवाद के ऊपर मनुवाद नाम की एक नई  धारणा को प्राथमिकता दी, यद्यपि अंबेडकर ने मनु को जातिवाद का संस्थापक मानने से इंकार कर दिया था।

उन्होंने समतामूलक नगर समाज बनाने के अंबेडकरवादी कार्यभार को नजरअंदाज किया । उन्होंने मुख्य रूप से बाबासाहेब की दो हिदायतों को रेखांकित किया। पहली राजसत्ता चाभियों की चाभी हैं और राजनीति का शक्ति संतुलन अपने हाथ में रखना ही दलितों की रणनीति होनी चाहिए। दूसरी चुनाव में जीत के लिए उत्पीड़ित वर्गों का मोर्चा बनाना होगा। काशीराम की सफलता के कारण दलित होना नुकसान के बजाय फायदे की चीज बन गया ।

जिस दौर में काशीराम दलितों के उत्थान के मकसद के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे, उस दौर में देश का प्रमुख दलित राजनीतिक संगठन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया था। काशीराम इससे जुड़े और जल्दी ही उनका इससे मोहभंग भी हुआ। 14 अक्टूबर, 1971 को काशीराम ने अपना पहला संगठन बनाया। इसका नाम था-शिड्यूल कास्ट, शिड्यूल ट्राइब, अदर बैकवर्ड क्लासेज ऐंड माइनॉरिटी एंप्लॉइज वेल्फेयर एसोसिएशन। संगठन के नाम से साफ है कि काशीराम इसके जरिए सरकारी कर्मचारियों को जोड़ना चाहते थे। लेकिन सच्चाई यह भी है कि उनका लक्ष्य ज्यादा व्यापक था और वे शुरुआत में कोई ऐसा संगठन नहीं बनाना चाहते थे जिससे उसे सरकार के कोपभाजन का शिकार होना पड़े। 

1973 आते-आते काशीराम और उनके सहयोगियों की मेहनत के बूते यह संगठन महाराष्ट्र से फैलता हुआ दूसरे राज्यों तक भी पहुंच गया।  इसी साल काशीराम ने इस संगठन को एक राष्ट्रीय चरित्र देने का काम किया और इसका नाम हो गया ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉइज फेडरेशन। यह संगठन बामसेफ के नाम से मशहूर हुआ। यह घोषणा देश की राजधानी दिल्ली में की गई।  80 के दशक की शुरुआत आते-आते यह संगठन काफी बढ़ा। उस वक्त बामसेफ ने दावा किया कि उसके 92 लाख सदस्य हैं जिनमें बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और डॉक्टर भी शामिल हैं।

काशीराम ने 1981 में डीएस-4 की स्थापना की। डीएस-4 का मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इसका मुख्य नारा था- ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4। यह एक राजनीतिक मंच नहीं था लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ दलितों को बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी करना चाह रहे थे।

डीएस-4 के तहत काशीराम ने सघन जनसंपर्क अभियान चलाया। उन्होंने एक साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में तकरीबन 3,000 किलोमीटर की यात्रा की। अगड़ी जाति के खिलाफ विष वमन करने वाले नारों के जरिए जो जनसंपर्क अभियान काशीराम चला रहे थे, उससे वह वर्ग उनके पीछे गोलबंद होने लगा जिसे साथ लाने के लिए काशीराम ने डीएस-4 बनाया था। उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए वहीं का कोई दलित चेहरा चाहिए था। ऐसे में उन्होंने मायावती को चुना जो 3 जून, 1995 को प्रदेश की पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। 

इसी बहुजन सामाजिक पूंजी से उत्साहित होकर काशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को एक राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। बसपा ने सियासत में जो भी हासिल किया, उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही जिसे काशीराम ने डीएस-4 के जरिए रखा था। काशीराम को यह मालूम था कि उत्तर प्रदेश में अगर वे खुद आगे आते हैं तो उनकी स्वीकार्यता बेहद व्यापक नहीं होगी।  क्योंकि उन्हें इस सूबे में बाहरी यानी पंजाबी के तौर पर देखा जाएगा। उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए वहीं का कोई दलित चेहरा चाहिए था।

ऐसे में उन्होंने मायावती को चुना जो 3 जून, 1995 को प्रदेश की पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। भले ही बसपा की स्थापना को उस वक्त मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हो लेकिन देश के सियासी पटल पर काशीराम के विचारों वाली बहुजन समाज पार्टी के उभार से राजनीति फिर कभी पहले जैसी नहीं रही। 9 अक्टूबर, 2006 को लंबी बीमारी के बाद काशी राम का नई दिल्ली में निधन हो गया।

काशीराम की इस तरह की राजनीति के संदर्भ में समाज विज्ञानी अभय कुमार दुबे कहते हैं कि नब्बे के दशक की शुरूआत तक काशीराम की राजनीति मुख्यतः बहिष्कारवादी और अलगाववादी रही। हर गैरदलित संरचना के प्रति वे घृणा प्रदर्शित करते रहे। 1992 में पिछड़ों और मुसलमानों के जनाधार वाली समाजवादी पार्टी से गठजोड़ के बाद काशीराम का यह बहिष्कारवाद कार्यनीतिक रूप से कुछ नर्म पड़ा। लेकिन फिर काशीराम अंधाधुंध समझौते करने लगे। भाजपा की मदद से बनी बसपा की पहली सरकार ने अपने को ‘बहुजन’ को नहीं बल्कि ‘सर्वजन’ की सरकार बताने का प्रयत्न किया।

यह कार्यनीतिक परिवर्तन काशीराम को थोड़ा महंगा पड़ा और उनके ‘बहुजन समाज’ में मुसलमानों की भागीदा धीरे-धीरे कम से कम होती चली गई। 1996 के उ0प्र0 विधान सभा चुनाव में काशीराम ने सवर्णों के प्रति आश्चर्यजनक रूप से नरम रूख अपनाया और संकेत दिया कि वे बहिष्कारवादी राजनीति और ज्यादा नहीं करेंगे।

मार्क्सवादी काशीराम को बड़ी उपेक्षा से जातिवाद भड़काने वाला नेता कहते हैं। उनकी निगाह में काशीराम ज्यादा से ज्यादा हिंदुत्व के हाथों इस्तेमाल हो सकने वाले दलित वोटों के ठेकेदार भर हैं। लगभग इसी नजरिए से उदारतावादी और वामपंथी बुद्धिजीवी काशीराम को देखने-समझने का यत्न करते हैं। उसी तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ काशीराम को विदेशी शक्तियों का एजेंट मानता रहा है। काशीराम ने भी शुरूआत में कई बार समाज परिवर्तन के नैतिक दायित्व को ओढ़ते हुए ऐसे कई वक्तव्य जारी किए थे जिनके कारण अंबेडकरवादी उनसे एक महान सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन छेड़ने की उम्मीद लगा बैठे थे।

लेकिन, ध्यान से देखने पर लगता है कि प्रारंभ से ही उनका मुख्य जोर येन-केन प्रकारेण खुद को या किसी अन्य दलित नेता को प्रतीकात्मक ढंग से सत्ता की कुर्सी पर बैठाना ही था। चूंकि देश की राजनीति अब केंद्र में भी विभिन्न पार्टियों के बजाय गठजोड़ों की आपसी होड़ पर निर्भर हो गई है, इसलिए उसमें विचारधारात्मक शुद्धता का धीरे-धीरे अभाव होता जा रहा है। काशीराम का मौजूदा रवैया इस राजनीतिक माहौल के अनुकूल बैठता है।

राजनीति अगर एक खेल है तो काशीराम इसके सबसे विकट खिलाड़ी हैं। 23 फरवरी, 1997 को उन्होंने दिल्ली में हुमायूं रोड वाले अपने घर पर उप्र के बसपा कैडर से अगले चुनाव की तैयारी करने को कहा और ठीक पांच दिन बाद चेन्नई में लाल कृष्ण आडवाणी के साथ उप्र में सरकार बनाने की खिचड़ी पका ली। 19 मार्च को जब मायावती ने पहले छह महीने के लिए भाजपा-बसपा सरकार के मुख्यमंत्री की शपथ ली, तो सबसे ज्यादा शांति काशीराम के चेहरे पर थी और सबसे ज्यादा उत्साह बसपा कार्यकर्ताओं में था।

लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में हुए शपथ ग्रहण समारोह में बैठे भाजपा नेताओं के चेहरे गंभीर सोच में डूबे हुए थे कि पता नहीं काशीराम छह महीने से बाद भाजपा का मुख्यमंत्री बनने देंगे या नहीं और पता नहीं छह महीने खत्म होने से पहले वे कौन सा दांव मारेंगे। 1995 में साढ़े चार महीनों के लिए मायावती को मुख्यमंत्री बनवा कर भाजपा खमियाजा भुगत चुकी थी। उसी मुख्यमंत्रित्व की बदौलत काशीराम ने अगले लोग सभा चुनाव में ही अपने वोट दस से बढ़ाकर 20 फीसदी से ज्यादा कर लिए थे और भाजपा का प्रतिशत पहले जितना ही रह गया था । इस बार भाजपा नेताओं को उम्मीद थी कि वे काशीराम को सारे देश के पैमाने पर तालमेल करने के लिए मना लेंगे लेकिन काशीराम ने एक-एक करके उनकी उम्मीदों पर तुषारापात कर दिया।

‘‘मैं किसी गठजोड़ के लिए कोई गारंटी नहीं दे सकता। बसपा अपने मिशन को पूरा करने क लिए अवसरों की तलाश में है। भाजपा मनुवादी पार्टी है और बसपा मानववादी फिलहाल दोनों के बीच बड़े पैमाने पर कोई गठजोड़ संभव नहीं है।’’ भाजपा को जब भी लगता है कि वह काशीराम के जरिये दलित वोट प्राप्त कर लेगी, वे उस गलतफहमी को दूर करने में जरा भी देर नहीं लगाते। अटल बिहारी वाजयपेयी जब काशीराम को राष्ट्रपति बनाने की योजना लेकर उनके पास गए तो उन्होंने उस प्रस्ताव को फौरन ठुकरा दिया क्योंकि वे राष्ट्रपति नहीं सिर्फ प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं।

‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देने वाले काशीराम सत्ता को दलितों की चैखट तक लाना चाहते थे। वे राष्ट्रपति बनकर चुपचाप अलग बैठने के लिए तैयार नहीं हुए। आखिर अटल बिहारी वाजपेयी काशीराम को राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहते थे। लेकिन जानकारों के मुताबिक अटल बिहारी वाजपेयी काशीराम को पूरी तरह समझने में थोड़ा चूक गए। वरना वे निश्चित ही उन्हें ऐसा प्रस्ताव नहीं देते। वाजपेयी के प्रस्ताव पर काशीराम की इसी अस्वीकृति में उनके जीवन का लक्ष्य भी देखा जा सकता है।

यह लक्ष्य था सदियों से गुलाम दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना।  मायावती के रूप में उन्होंने एक लिहाज से ऐसा कर भी दिखाया। काशीराम पर आरोप लगे कि इसके लिए उन्होंने किसी से गठबंधन से वफादारी नहीं निभाई। उन्होंने कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी से समझौता किया और फिर खुद ही तोड़ भी दिया। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि काशीराम ने इन सबसे केवल समझौता किया, गठबंधन उन्होंने अपने लक्ष्य से किया। इसके लिए कांशीराम के आलोचक उनकी आलोचना करते रहे हैं। लेकिन काशीराम ने इन आरोपों का जवाब बहुत पहले एक इंटरव्यू में दे दिया था। उन्होंने कहा था, ‘मैं उन्हें (राजनीतिक दलों) खुश करने के लिए ये सब (राजनीतिक संघर्ष) नहीं कर रहा हूं।’

जारी…..

(लेखक डॉ. अजय कुमार भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं।)

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