Friday, April 26, 2024

रूपेश की गिरफ्तारी यानि लेखिनी को कैद करने की साज़िश

आज 100 दिनों से ज्यादा हो चुके हैं, पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की गिरफ्तारी के। जो पत्रकार जनता के जमीनी सवालों को हमारे समक्ष रखने का काम कर रहे थे, जो गरीब आदिवासी जनता या जरूरतमंदों की आवाज मीडिया में पहुंचा रहे थे, उनके साथ होने वाले अन्याय और उनकी जमीन की लूट को उजागर कर रहे थे, तीन महीने से अब कैद हैं। और उसके साथ ही वह लेखनी भी कैद हो गई है जो गरीब जनता के लिए एक रौशनी का काम करती थी, कभी भूख से मरी संतोषी, भूखल घासी जैसे लोगों के मौत पर सवाल के रूप में, तो कभी डोली मजदूर मोती लाल बास्के, रोशन होरो, ब्रह्मदेव सिंह सरीखे आदिवासी समुदाय से जुड़े लोगों को नक्सली कहकर हत्या की खबर के रूप में।

कभी आदिवासी इलाकों में स्कूल की जगह सीआरपीएफ कैंप बनाने की खबर बनकर, कभी पुलिस थाने में किसी शिक्षक की बेरहमी से पिटाई की रिपोर्टिंग कर।  कभी औद्योगिक प्रदूषण से ग्रामीणों की बदतर जिंदगी की खबर उजागर कर, तो कभी विस्थापितों के सवाल पर रिपोर्टिंग के रूप में।( यह तो सच है कि वर्तमान में रिपोर्टिंग का जो पैमाना बन चुका है, वो सत्ता की चापलूसी को छोड़ कुछ नहीं है, उनकी रिपोर्टिंग से रूपेश जी की रिपोर्टिंग बिल्कुल अलग है।) इतना तो तय था कि रूपेश जिन तीन महीनों से जेल में अपनी रचनाशीलता के साथ कैद हैं, अगर बाहर होते तो जरूर कोई नयी स्टोरी कवर कर रहे होते, जो जनता के सवालों को हमारे समक्ष रखती।

आज यदि वे बाहर होते तो उस बच्ची के इलाज की भी खबर हम तक जरूर आ जाती, जिसका चेहरा प्रदूषण से विकृत हो गया था या गिरीडीह औद्योगिक प्रदूषण पर शायद कोई नई रिपोर्टिंग फिर आ जाती। मगर अब सब कुछ बदल गया है। अब जनता के सवाल उठाने वाली कलम कैद में है।

और उस समाज को भी जिनकी खबरें उजागर हुआ करती थी, उसे  जरूर इसकी कमी खल रही होगी और अपने इस नुकसान को झेलने को विवश है।

17 जुलाई गिरफ्तारी का दिन

एक दिन पहले तक सोचा भी न था कि कल तक जिंदगी इतनी बदल जाएगी। न रूपेश ने, न परिवार के किसी सदस्य ने। (जिसमें मैं भी शामिल थी क्योंकि उस वक्त मैं भी वहीं थी।) वह एक मामले में व्यस्त थे और वह था गिरिडीह जिले के प्रदूषण का मामला और उस बच्ची का मामला जिसका चेहरा छह महीने में ही प्रदूषण ने विकृत कर दिया था, रूपेश की रिपोर्टिंग व ट्विटर पर इस मामले को प्रकाश में लाने के बाद कई लोग इलाज कराने के लिए पहल कर रहे थे और रूपेश से कॉंटेक्ट भी, रूपेश व्यक्तिगत रूप से भी उस बच्ची की स्थिति देखकर इतने विचलित हुए थे कि सिर्फ खबर लिख देने मात्र से वे संतुष्ट नहीं थे, जब इसके लिए डॉक्टरों का रिप्लाई आने लगा तो वे जी जान से इसके लिए लग गये थे, अपने खाने-पीने का भी उन्हें ख्याल नहीं था, कुछ डाक्टर से बात भी की गई थी, वे खुश थे कि अब शायद उस बच्ची जो कि एक बेहद ही गरीब परिवार की थी का इलाज हो जाएगा, और यही कहते हुए रुपेश उस रात सोए भी थे कि उम्मीद है अगले दिन इलाज के बारे में कोई ठोस कदम उठा लिया जाएगा।

पर दूसरी सुबह पूरी जिंदगी ही बदल गयी। प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रशासन के प्रहार का वह काला दिन था। कुछ वक्त से एक पत्रकार अपनी लेखनी के कारण कभी फॉल्स केस में फंसाया जा रहा था, तो कभी पेगासस जैसे जासूसी स्पाइवेयर द्वारा जबरदस्त निगरानी में था, और अब भारी पुलिस फोर्स के साथ उसकी गिरफ्तारी के लिए प्रशासन उसके दरवाजे पर खड़ी थी। सर्च वारंट के नाम पर पुलिस बल घर के अंदर दाखिल हुआ था, और अंत में अरेस्ट वारंट के साथ उन्हें अपने साथ ले गयी। (मेरी जब आंखें खुली थी सुबह, कुछ पुलिस वाले घर के अंदर दाखिल हो चुके थे। जब वे अंदर आए थे तो सिर्फ सर्च वारंट ही दिखाया था, वह भी एक डेढ़ घंटे की बात कर तलाशी शुरू की थी और 1 बजे तक वह सिलसिला चलता रहा। 1 बजे के बाद उन्होंने अरेस्ट वारंट दिखाया था।) वे रूपेश को गिरफ्तार करने आए हैं हमें पता न था। उस वक्त तक तो यह भी नहीं पता था कि पुलिस वालों में कौन-कौन है, किस पोस्ट का और कहां का है? बाहर भारी संख्या में हथियारबंद पुलिस बल को देखकर हम भौचक्के थे।

दिन का 1.40 का समय था, जब रूपेश को गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था। अचानक से अपने साथी की हुई यह गिरफ्तारी असहनीय थी और तब लगा इतिहास अब दोहरने वाला है। और इस तरह जो इंसान अब तक हमारे बीच था अचानक से पुलिस प्रशासन द्वारा चुरा लिया गया था, सात बोलेरो और 70-80 से ज्यादा पुलिस बल के जवानों के साथ। एक सच्चा और ईमानदार पत्रकार अपनी ईमानदार लेखनी की कीमत चुकाने की राह पर खड़ा किया जा चुका था। ईमानदार लेखनी जो जनता के मुद्दों, उन पर हो रहे अन्याय, उनके शोषण के सवालों पर थी।

कानून के नाम पर प्रशासन की मनमानी

किसी भी गिरफ्तारी के 24 घंटे बाद गिरफ्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने का नियम है। 17 जुलाई की रूपेश की गिरफ़्तारी के एक दिन के बाद 18 जुलाई शाम 5 बजे उन्हें कोर्ट में पेश किया गया था और फिर सरायकेला मंडलकारा भेजा गया था, जहां उन्हें चार संक्रमित रोग से ग्रसित कैदियों के साथ रख दिया गया था। अभी वे खुद को मानसिक रूप से इस माहौल के लिए तैयार भी न कर पाए होंगे कि उसके अगले दिन ही 19 जुलाई को 96 घंटा यानी चार दिनों का पुलिस रिमांड ले लिया गया। पुलिस रिमांड में कई तरह के लोग पूछताछ में उपस्थित थे।

रिमांड के दौरान कई मानसिक दबाव डालने वाले सवाल जवाब किए गए और चार दिनों बाद 23 जुलाई को पुनः जेल भेजा गया, जहां फिर वहीं कमरे में रखा गया, वहां हेपेटाइटस बी, कुष्ठ रोग, टीवी जैसी संक्रामक बीमारियों से ग्रसित कैदी थे। सोचने वाली बात है कि ये सारी बड़ी बीमारियों से ग्रसित कैदियों की जगह अस्पताल होनी चाहिए या जेल का कमरा जिसमें तीनों एक साथ रखे गये हों, और उसी कमरे में एक स्वस्थ व्यक्ति को रख देना कितना सही था?

क्या लेखन कोई अपराध है जिसके लिए गिरफ्तारी और रिमांड की जरूरत हो,जबकि वह लेखन जनता के सवालों को रचता हो, सिस्टम के भ्रष्टाचार पर लिखता हो? और क्या गिरफ्तारी के बाद प्रशासन को यह हक मिल जाता है कि वह बंदी के स्वास्थ्य के साथ ऐसा खिलवाड़ कर सके?

एक अच्छे-खासे जनहित में लिखने वाले पत्रकार को एक बड़े  केस में फंसाना, उस आधार पर उसे गिरफ्तार करना, उसके साथ एक पेशेवर अपराधी जैसा ट्रीटमेंट करना कहां तक सही है? हमने देखा था रिमांड के बाद जब कोर्ट ले जाया जा रहा था जहां हम अपने वकील के साथ थे, उनके हाथ में हथकड़ी थी और लम्बी रस्सी से बंधी हुई थी, क्या हर नियम को ताक पर रख देने का प्रशासन को भरपूर छूट है?

जेल प्रशासन की मनमानी और पहल का परिणाम

काफी विरोध के बाद रहने की जगह बदली गई और अब जहां रखा गया था, वह एक पुराना महिला वार्ड था। जो हर तरह से जर्जर था और उसकी छत टूट कर गिर रही थी। जहां वर्तमान में कोई नहीं रहता था, उसे कैदी भूतही हवेली कहते हैं। वार्ड के चारों तरफ लम्बे घास और झाड़ झंकाड़  थे, जहां जहरीले जीव हो सकते थे। रूपेश जी को अब वहां रखा गया था। चार-पांच दिन पहले जो व्यक्ति परिवार के बीच थे और एक जरूरतमंद बच्ची के इलाज के बारे में सोच रहे थे, समाज के जरूरतमंद मुद्दों पर कलम चला रहा थे, पहले गिरफ्तारी, फिर रिमांड, फिर रोगियों के साथ और अब इस तनहा सेल में रह रहे थे। पांच दिनों बाद यानी 28 जुलाई को 72 घंटे के लिए रूपेश को फिर पुलिस रिमांड पर लिया गया। पुलिस रिमांड के दौरान किस मानसिक टार्चर से गुजरना पड़ता है वह हम समझ सकते हैं। 31 जुलाई दोपहर उन्हें फिर जेल लाया गया, जहां फिर से उन्हें उसी तन्हा सेल में रखा गया, सवाल उठाने पर बताया गया कि वह आइसोलेट है। आइसोलेशन का टाइम 15 दिन होता है जबकि वे जब तक सरायकेला मंडलकारा में रहे उसी तनहा सेल में रहे। वह भी 31 जुलाई से 18 अगस्त तक लगातार जब तक अगला रिमांड पर न लेते जाया गया। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो हर दिन कई लोगों से मिलते हैं, कई चीजें देखते हैं, सुनते हैं, बिना किसी और के सम्पर्क के हमारे लिए रहना बहुत मुश्किल होता है, रूपेश एक लम्बे समय तक इस स्थिति को झेल रहे थे।

जेलों में खाना भी जेल मेन्युअल के हिसाब से तो बिल्कुल नहीं था, पर सामान्य रूप से भी वह बहुत खराब था,जिसके कारण रुपेश जी का हेल्थ भी गिर गया था। बदलाव के लिए रूपेश को बार-बार आवाज उठानी पड़ रही थी। खैर जेल मेन्युअल के हिसाब से खाना शायद ही किसी जेल में रहता हो, जबकि जेल मेन्युअल कैदियों के लिए ही तैयार किये गए हैं। जिनके पास पैसे होते हैं वे मोटी रकम अदा करके खाना खरीदते हैं।

वे जहां रह रहे थे, उसका छत टूट कर गिर रहा था, वर्षा के कारण  रहना भी मुश्किल हो गया था, बार-बार जगह बदले की अपील भी नहीं सुनी जा रही थी, तब उन्होंने 9 अगस्त को 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के दिन भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी, अपनी तीन मांगों के साथ जो कि खाना की बदतर क्वालिटी ठीक करने, लिखने पढ़ने के लिए कॉपी-कलम देने और सुरक्षित जगह रखे जाने को लेकर थी। जाहिर था जो व्यक्ति जेल में इसलिए डाला गया हो कि वह भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता था, जेल के भीतर के भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा तो नहीं बन सकता था। दूसरे दिन यानी 10 अगस्त को एक नये केस उन पर लगाए जाने का पता चला।

अपने कहे अनुसार 15 अगस्त को रूपेश ने भूख हड़ताल किया। दोपहर 12 बजे सरायकेला जेल सुपरिटेंडेंट ने उनसे मुलाकात की और उनकी मांगों को माऩने का आश्वासन दिया। पर वास्तव में कुछ खास नहीं बदला, बदलाव के तौर पर बस एक लड़के को उनके साथ रख दिया गया।

18 सितंबर को वे फोन पर बात कर ही रहे थे कि पता चला उन्हें रिमांड पर लेने के लिए लोग आए हैं, दोबारा कॉल कर उन्होंने बताया कि वे जगेश्वर बिहार केस के लिए आए हैं और फिर 72 घंटे के लिए यानी 18 अगस्त से 22 अगस्त तक रिमांड। 22 अगस्त जब उन्हें पुलिस वाले लेकर लौट रहे थे, उनका वाहन दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर अखबार में पढ़ने को मिली, यह खबर देख पूरा परिवार घबराया, पर बाद में पता चला उन्हें कोई चोट नहीं आई है। हाथ में थोड़ी चोट थी, जो कुछ दिनों में ठीक हुआ।

इस घटना के बाद छह दिनों तक रूपेश से फोन पर भी बातें न हो सकीं। जबकि वहां 1 दिन के बाद बातें हुआ करती थीं। यह निरंकुश प्रशासन व्यवस्था किसके लिए?

राष्ट्रपति को पत्र

कुछ दिनों के बाद जब बाकी मांगों का कोई परिणाम नहीं निकला, तो रूपेश ने राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए एक पत्र लिख डाला, जिसमें जतींद्र नाथ दास की शहादत दिवस 13 सितंबर को बंदी भूख हड़ताल की बात करते हुए जेल की बदतर व्यवस्था की बात रखी थी और उसमें बदलाव की अपील की गयी थी। यही पत्र हमें फोन पर पढ़कर भी सुनाया था, जो पूरा हुआ भी न था और फोन बीच में कट गया था। (वैसे जब भी कोई गंभीर विषय पर बात होती हैं, फोन कट जाता है।) पर पत्र की बात हमने सुन ली थी इसलिए राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए तुरंत एक पत्र रूपेश की तरफ से लिखा गया और उसे राष्ट्रपति को भेज दिया गया। यह एक दिवसीय भूख हड़ताल 13 सितंबर को करना था, स्थिति में सुधार न होने पर आगे जारी रखने की बात लिखी गई थी।

कोई खबर नहीं

रुपेश ने 9 सितंबर को कॉल में यह सारी बात बताई थी, जिसके बाद कॉल कट गया था, हर 1 दिन छोड़ कॉल करने का समय था पर 13 सितंबर भी गुजर गया और कोई कॉल तक न आया, जब इससे चिंतित हो उनके वकील को 15 सितंबर को मुलाकात के लिए जेल गेट पर भेजा गया तब गेट सिपाही ने बताया उन्हें सेंट्रल जेल रांची ट्रांसफर कर दिया गया है, कब? पूछने पर किसी ने 14 सितंबर कहा किसी ने 12, हम परेशान थे, कारण स्पष्ट था, 13 सितंबर से भूख हड़ताल की बात की गई थी, वास्तव में स्थिति क्या है हमें कुछ पता नहीं था।

बंद कमरे की यातना

इस छोटे से कमरे में अकेले उन्हें एक सप्ताह तक रखा गया, न कोई इंसान, न कोई बाहरी दृश्य, न मुलाकात, न कॉल करने का अधिकार, न और किसी तरह की सुविधा, पूरा एक सप्ताह एक बंद कमरे में रात-दिन, बिल्कुल अकेले। हम समझ सकते हैं  यह किस प्रकार की प्रताड़ना थी और क्यों? यह एक पेशेवर अपराधी के साथ नहीं किया जा रहा था, जनता की जमीनी हकीकत लिखने वाले पत्रकार के साथ किया जा रहा था, यह उस वक्त किया जा रहा था जब उन्होंने राष्ट्रपति को जेल के अंदर की अपनी स्थिति में सुधार की अपील लिखी थी। इस रवैए ने न्याय व्यवस्था पर प्रशासनिक भ्रष्टाचार के प्रभाव को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। स्पष्ट कर दिया था कि न्याय व्यवस्था की पकड़ प्रशासनिक व्यवस्था के सामने बौनी होती जा रही है।

अपनी लेखनी की सजा जेल और जेल के अंदर हक की लड़ाई की सजा के तौर पर यह रूख अपनाया गया था,एक इंसान अपने मनोबल से उन्हें टक्कर दे रहा था, तो यह उसके मनोबल को तोड़ने के लिए किया जा रहा था। जब सरायकेला जेल में तन्हा सेल में रखकर, लिखने-पढ़ने से वंचित करके, खराब खाना देकर इन्हें यातना दी जा रही होगी, तो शायद प्रशासन ने यह सोचा होगा कि ये अंदर से टूट जाएंगे, मगर परिणाम अलग आया, इन्होंने तो राष्ट्रपति महोदया को पत्र लिखने की पहल दिखा दी, तब तो इन्हें उसका परिणाम भुगतना ही था,और उन्हें होटवार में एक सप्ताह तक एक कमरे में बंद रखा गया, शायद यह समय और बढ़ सकता था अगर उनके मुलाकात का समय न आया होता। यह प्रशासन की मजबूरी हो गई होगी कि इस यातना को एक सप्ताह में ही खत्म करना पड़ा।

एक सप्ताह एक कमरे में बंद होने के कारण उनके पैरों के नस में जबरदस्त खिंचाव पैदा हो गया था और अब वे उसके लिए दवा ले रहे थे।

सर्कुलर सेल का कैदी और लेखन

वर्तमान में रुपेश को सर्कुलर सेल में रखा गया है, जहां कैदियों के लिए 25 कमरे हैं, जिसमें रूपेश के अलावा मात्र चार अन्य लोग रहते हैं। सभी बड़े क्रिमिनल केस में आए लोग हैं। रूपेश का कमरा लगभग 6×6 का है, जिसमें लैटरिंग रुम भी है, उसके अलावा पूरा दिन गुजारने के लिए 20×30 का बरामदा है, जहां पांचों घूम सकते हैं। पढ़ने के लिए किताबों की लिस्ट दी जाती है जिसके अधिकतर किताबें धार्मिक प्रकृति की रहती है, एक धर्मनिरपेक्ष देश को मुंह चिढ़ाती हुई।  देश के बड़े-बड़े लेखकों या विदेशी राइटरों की कोई किताब विरले ही यहां मिल सके, बाहर से किताब भेजने की बात पर बताया जाता है कि अंदर लाइब्रेरी है, बाहर से किताबें नहीं जा सकती, और रुपेश को लाइब्रेरी जाने का अधिकार नहीं है। रुपेश ने बताया तस्लिमा नसरीन की किताब को यहां बैन बताया जाता है। एक लिखने-पढ़ने वाले इंसान के लिए यह वाकई में एक यातना गृह ही है।

जब परिवार उनसे मुलाकात को जाते हैं उन्हें आने में काफी वक्त लगता है पूछने पर सिपाही ने बताया कि उनका सेल सबसे अंत में है, जहां जाने में वक्त लगता है। होटवार में बड़े-बड़े अपराधियों को भी नार्मल सेल में रखा गया है, मगर एक पत्रकार को ऐसे सेल में रखा गया है, जहां वे उन चारों के अलावा अन्य किसी से नहीं मिल सकते, न ही कहीं बाहर जा सकते। उस सेल में होने के कारण उन्हें 17वें दिन पर मिलना है, सप्ताह में एक दिन फोन से बात करना है,  जब मिलने आएंगे उनके साथ दो सिपाही जरूर रहेंगे। जो गिरफ्तारी ही काल्पनिक आधारों पर की गई हो, उसके आधार पर एक पत्रकार के साथ यह सब हो रहा है।

यह पूरी मुस्तैदी एक पत्रकार के साथ दिखाई जा रही है जो चापलूस लेखन नहीं करते, न ही कर सकते हैं। भ्रष्टाचार और अन्यायी व्यवस्था के लिए यह प्रशासन गूंगी-बहरी है, पर अलर्ट है तो सिर्फ भ्रष्ट सिस्टम पर सवाल खड़े करने वालों के लिए। वहीं रसूख रखने वाले लोगों पर जिन पर भ्रष्टाचार सहित कई बड़े आरोप लगे हैं, वही जेल प्रशासन उनके लिए हर सुविधा उपलब्ध कराता है। उनके लिए जेल में नियम नहीं होते है।

गिरफ्तारी का कारण

स्पष्ट है कि रूपेश की गिरफ्तारी उनकी लेखनी, जो भ्रष्ट सिस्टम का पोल खोलती है, हम तक सही खबरें पहुंचाती है के कारण ही की गई है भले ही इसके लिए माओवाद कनेक्शन का लेबल चिपकाया जा रहा है, रुपेश की अधिकांश लेखनी झारखंड की आदिवासी जनता के मुद्दों से जुड़ी है जाहिर है उनपर माओवाद का लेबल चिपकाना इनके लिए सबसे आसान है।

यह एक पत्रकार की गिरफ्तारी नहीं है, प्रेस की स्वतंत्रता को कैद करने की साज़िश है ताकि झारखंड की आदिवासी, मूलवासी और उत्पीड़ित जनता के सवाल क्षेत्र भर में ही दबकर रह जाए और कार्पोरेट जगत को पूरी स्वतंत्रता से जनता की जमीन की लूट के लिए आमंत्रित किया जा सके।

आज के समय में पूरे देश में हम देख रहे हैं कि जो लोग सत्ता की गलत नीतियों का किसी भी माध्यम से विरोध कर रहे हैं या गरीब जनता के साथ खड़े हैं, उन्हें झूठे केस में फंसाकर जेलों में बंद किया जा रहा है। जनता से जुड़े मुद्दों को, आंदोलनों को, लेखों को, भाषणों को अपराध की श्रेणी में डाला जा रहा है, यूएपीए के घेरे में रखा जा रहा है, लेखक, पत्रकार, एक्टिविस्ट सभी इस घेरे में शामिल किये जा रहे हैं। पर क्या सच में यह भ्रष्ट व्यवस्था हमारे देश को उन्नति की राह पर ले जाएगी?

अंत में हम यह जरूर कहना चाहेंगे कि 90 प्रतिशत जनता की जिंदगी, उनके हक अधिकार के लिए बोलने वाले लोगों की जिंदगी कोई मजाक नहीं है। सत्ता और प्रशासन सारे सिस्टमों को ताक पर रखकर अगर जिंदगियों के साथ यह मजाक कर रहे हैं तो हम इस मजाक के खिलाफ़ लड़ने को तैयार हैं। न ही एक सुखद समाज की कल्पना अपराध है और न ही उसके लिए आलोचनात्मक रचनाएं, स्वतंत्र लेखन कोई अपराध नहीं है।

(इलिका प्रिय लेखिका हैं और आजकल झारखंड के रामगढ़ में रहती हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles