ईरान पर इज़रायल के हमले से जब दोनों देशों के बीच युद्ध की शुरुआत हुई तो दुनिया भर में यही माना गया कि इज़रायल की अत्याधुनिक सामरिक शक्ति के आगे ईरान टिक नहीं पाएगा और जल्दी ही समर्पण कर देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ईरान ने बगैर कोई देरी किए जो जवाबी हमला इज़रायल पर किया, उससे उसने इज़रायल, अमेरिका तथा उनके समर्थक पश्चिमी देशों को बता दिया कि वह उतना कमजोर नहीं है जितना उसे समझा जा रहा था। इज़रायल को जितना नुकसान दशकों से जारी संघर्ष में फिलिस्तीनी लड़ाकों ने नहीं पहुंचाया, उससे कहीं ज्यादा नुकसान उसे महज एक सप्ताह में ही ईरान ने पहुंचा दिया है।
ईरान की मिसाइलों ने इज़रायल की धरती पर जो धमाके किए हैं, उनसे सिर्फ इज़रायल की चमचमाती गगनचुंबी इमारतें ही मटियामेट नहीं हुई हैं बल्कि आतंकवादी लहजे में ईरान को तबाह कर देने की डींग हांक रहे इज़रायली शासकों और उसकी हिमायती पश्चिमी दुनिया का दर्प भी दरक गया है। ईरानी हमलों से सहमा इज़रायली अवाम अब बंकरों में दुबक कर वही सब कुछ झेल रहा है जो ग़ज़ा, लेबनान और सीरिया के बाशिंदे सालों से झेल रहे हैं- बम, मलबा और मातम।
दूसरी ओर ईरानी गणराज्य है जो धर्म की आड़ में अपनी जनता के मौलिक अधिकारों को कुचलता है, अब वह राष्ट्रवाद के रथ पर चढ़ कर युद्ध का नायक बनने की चाहत रखता है। धार्मिक तानाशाही के चलते हर तरह से त्रस्त लोगों को कहा जा रहा है कि वे शहीद होने के लिए पैदा हुए हैं, इसलिए शहादत देने के लिए तैयार रहें। बूढ़े ईरानी शासक की आंखों में अपनी जनता की तकलीफें नहीं बल्कि शहादत का रोमांच है, जो किसी आसमानी किताब से नहीं, बल्कि सत्ता की हवस से निकला है।
कुल मिला कर इस युद्ध में कोई नायक नहीं है बल्कि दो देशों के खूंखार आततायी शासक हैं जो अपने-अपने अहंकार का परचम लहराते हुए एक दूसरे की मानव बस्तियों को कब्रिस्तान में तब्दील कर रहे हैं। हर तरफ से संकेत यही मिल रहे हैं कि यह सिलसिला लंबा खिंचेगा। अमेरिका, चीन और रूस जैसे ताकतवर देशों की प्रतिक्रियाओं से संकेत यह भी मिल रहे हैं कि अगर युद्ध लंबा चला तो दुनिया एक बार फिर दो ध्रुवों में बंट सकती है। सवाल है कि अगर ऐसा होता है तो भारत क्या करेगा या उसे क्या करना चाहिए?
वैसे तो भारत की विदेश नीति पारंपरिक रूप से गुट निरपेक्षता, सह अस्तित्व, रणनीतिक स्वायत्तता और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने पर आधारित रही है। इस नीति की नींव भारत के आजाद होने से पहले राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही पड़ चुकी थी। आजादी के बाद भी इसी नीति पर चलते हुए भारत दशकों तक तीसरी दुनिया की नेतृत्वकारी भूमिका निभाता रहा और विश्व की महाशक्तियों के बीच भी उसने अपनी अहम जगह बनाई।
हालांकि सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुट निरपेक्ष आंदोलन अप्रासंगिक होता गया मगर भारत का रुतबा बरकरार रहा। लेकिन पिछले एक दशक से भारत की पारंपरिक विदेश नीति में लगातार बदलाव आया है, जो कई मौकों पर दिखा है। हाल ही में इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में तो यह बदलाव बहुत ही हैरान करने वाला रहा है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में पिछले सप्ताह 12 जून को ग़ज़ा में तत्काल और बिना शर्त स्थायी युद्धविराम की मांग करने वाले प्रस्ताव पर मतदान हुआ, जिससे भारत ने अपने को अलग रखा। प्रस्ताव के पक्ष में 180 देशों में से 149 ने और विरोध में 12 देशों ने मतदान किया, जबकि 19 देश मतदान से दूर रहे। भारत के साथ मतदान से दूरी बनाने वाले 18 देशों में ज्यादातर तो ऐसे हैं, जिनके नाम भी भारत में कई लोगों ने नहीं सुने होंगे।
बाकी देशों की बात तो छोड़िए, नेपाल, भूटान, मालदीव, श्रीलंका जैसे देशों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया लेकिन खुद को विश्व गुरू कहने वाले भारत ने मतदान में भाग नहीं लिया। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार नेहरू की विरासत से नफरत करते-करते विदेश नीति के मामले में अपने राजनीतिक पुरखे अटल बिहारी वाजपेयी की विरासत को भी हिकारत से देखने लगी है। अलबत्ता प्रधानमंत्री मोदी वैश्विक मंचों पर अपने भाषणों में ज़रूर भारत को बुद्ध की भूमि बताते हुए शांतिपूर्ण और सुरक्षित विश्व की बात करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के स्थायी प्रतिनिधि पर्वतानेनी हरीश ने मतदान से पहले महासभा के सामने भारत का पक्ष रखते हुए कहा कि भारत हमेशा से शांति और मानवता का पक्षधर रहा है। उन्होंने कहा, ”भारत यह मानता है कि ग़ज़ा में मानवीय हालात सुधारने के लिए बचे हुए बंधकों की रिहाई और युद्धविराम महत्वपूर्ण है। आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता बातचीत और कूटनीति का है। इज़रायल और फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर भारत हमेशा से द्वि-राष्ट्र समाधान का समर्थन करता रहा है, जिसमें एक संप्रभु और स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना हो, जो शांतिपूर्ण तरीके से, सुरक्षित और मान्यता प्राप्त सीमाओं के भीतर इज़रायल के साथ-साथ रह सके।’’
फिलिस्तीन-इज़रायल विवाद पर भारत का यह पारंपरिक और सुविचारित दृष्टिकोण था लेकिन मतदान के मौके पर पता नहीं किस अदृश्य शक्ति के दबाव ने भारत को स्थायी युद्धविराम के प्रस्ताव पर मतदान से अलग रहने को मजबूर कर दिया। भारत का यह फैसला दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क), ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सभी सदस्य देशों के रुख से अलग है, जिन्होंने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। जी-7 देशों में से भी सिर्फ अमेरिका ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया, जबकि ब्रिटेन, कनाडा और जापान जैसे देशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया।
ग़ज़ा में युद्धविराम का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐसे समय पेश हुआ जब इज़रायल ने ईरान पर हमला शुरू कर दिया था। चूंकि भारत ने ग़ज़ा में 55,000 से ज्यादा लोगों के नरसंहार को नजरअंदाज करते हुए इस प्रस्ताव पर मतदान से अपने को अलग रखा है, इसलिए आसार यही है कि इज़रायल-ईरान युद्ध में भी तटस्थ न रहते हुए उसका झुकाव इज़रायल की तरफ रहेगा।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया भर के देशों की यात्रा कर उनके राष्ट्राध्यक्षों से गले मिलने और लिपटने को ही सफल विदेश नीति मान लिया है। इसी तरह उनके अंधाधुंध विदेशी दौरों के आधार पर उनके सरकार के ढिंढोरची बन चुके मीडिया के एक बड़े हिस्से में मोदी की छवि दुनिया के सबसे प्रभावशाली नेता की बना दी है। बस इसी आधार पर सत्ताधारी पार्टी और उसके समर्थक वर्ग को यह मुगालता हो गया है कि भारत विश्वगुरू बन चुका है। जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है।
पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के ठिकाने नष्ट करने के सिलसिले में पिछले दिनों पाकिस्तान के साथ हुए महज साढ़े तीन दिन के सैन्य टकराव के दौरान साफ हो गया है कि महाशक्ति या वैश्विक शक्ति तो दूर, भारत की हैसियत दक्षिण एशिया में भी एक बड़ी शक्ति के रूप में नहीं रह गई है। पाकिस्तान के साथ हुए उस सैन्य टकराव में दुनिया का एक भी देश भारत के समर्थन में आगे नहीं आया। इजरायल ने भी भारत की सैन्य कार्रवाई का महज मुंहजबानी समर्थन ही किया। जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान का चीन, तुर्किये, अजरबैजान जैसे देशों ने खुल कर साथ दिया। अमेरिका और चीन से मिले सैन्य उपकरणों के सहारे वह भारत से लड़ा। इसी दौरान अमेरिका ने उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 1.2 अरब डॉलर का कर्ज भी दिला दिया।
दरअसल मामला पाकिस्तान पोषित आतंकवाद से निबटने का हो या बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले का या फिर इज़रायल का फिलिस्तीन और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों से टकराव का, पिछले एक दशक से भारत की विदेश नीति का आधार रहा है- मुसलमानों से नफरत। इस सिलसिले में भारत के सत्ता प्रतिष्ठान और उसके समर्थक वर्ग ने इज़रायल को अपना आदर्श मान लिया है।
इज़रायल में उसे एक देवता नजर आता है- एक ऐसा देवता जो मुसलमानों को उनके घर में घुस कर मारता है, जो बिना किसी अपराधबोध के मासूम बच्चों और महिलाओं का कत्लेआम कर सकता है। भारत को बिल्कुल इज़रायल जैसा राष्ट्र बना देने की चाहत है-ऐसा राष्ट्र जो धर्म के नाम पर अपने नागरिकों से भेदभाव करे, जो ऐतिहासिक पीड़ा या अत्याचार का हवाला देकर कभी न खत्म होने वाला युद्ध छेड़े रखे, जो ताकत की भाषा बोले, इंसानियत व भाईचारे की बात को मजाक समझे और इज़रायल जो सुलूक फिलिस्तीनियों के साथ कर रहा है, वैसा ही सुलूक भारत में मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमजोर तबकों के साथ हो- किसी भी तरह की शर्म और नैतिकता के प्रति निरपेक्ष रहते हुए।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)