हाल के महीनों में भारत सरकार द्वारा परमाणु कानूनों में व्यापक बदलाव की दिशा में गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। यह बात विभिन्न अख़बारों और सरकारी बयानों के माध्यम से स्पष्ट हो चुकी है कि सरकार अब ‘एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1962’ और ‘सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट, 2010’ में संशोधन लाने पर विचार कर रही है। 2025–26 के केंद्रीय बजट में इसका संकेत वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दिया था, जहाँ छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) को विकसित करने के लिए एक विशेष मिशन की घोषणा की गई।
इसके बाद विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने कार्नेगी ग्लोबल टेक्नोलॉजी समिट में इस विषय पर खुलकर कहा कि मौजूदा कानून विदेशी निवेशकों में भरोसा जगाने में विफल रहा है और इसे फिर से देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “अगर एक बड़ी पहल ज़मीनी स्तर पर परिणाम नहीं देती, तो हमें ईमानदारी से खुद से पूछना चाहिए कि क्या बदलने की ज़रूरत है।”
इसके साथ ही डॉ. जितेंद्र सिंह (राज्य मंत्री, पीएमओ) ने संसद में बताया कि संबंधित विभागों-जैसे परमाणु ऊर्जा विभाग, परमाणु ऊर्जा विनियामक बोर्ड, नीति आयोग, विदेश मंत्रालय और कानून मंत्रालय-के विशेषज्ञों की समितियाँ इन संशोधनों पर चर्चा के लिए गठित की गई हैं। यह प्रक्रिया भारत की परमाणु नीति के लिए एक मील का पत्थर हो सकती है, जो 1958 से अब तक सरकार के एकाधिकार में रही इस क्षेत्र को निजी और अंतरराष्ट्रीय भागीदारी के लिए खोल सकती है।
इन सुधारों से न केवल निजी निवेश को आकर्षित करने की उम्मीद है, बल्कि भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते को भी फिर से गति मिल सकती है। यह प्रयास भारत के 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य को पाने में मददगार हो सकते हैं। इसके लिए बजट में 20,000 करोड़ रुपये के ‘न्यूक्लियर एनर्जी मिशन’ की घोषणा भी की गई है।
एतिहासिक परिपेक्ष्य:
स्वतंत्रता के बाद के भारत में जब देश पुनर्निर्माण के रास्ते पर चल रहा था, उस समय विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का एक नया सपना आकार ले रहा था। भारत की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए परमाणु के हृदय में पल रहा था। डॉ. होमी भाभा की दूरदृष्टि और नेतृत्व में देश ने 1948 के परमाणु अधिनियम के तहत इस यात्रा की शुरुआत की, जो आगे चलकर 1962 के अधिनियम में रूपांतरित हुआ। इस कानून ने परमाणु ऊर्जा पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण सुनिश्चित किया, जो उस समय की वैश्विक राजनीति और तकनीकी दृष्टिकोण से आवश्यक भी था।
लेकिन समय के साथ यह सख्त नियंत्रण निवेश और तकनीकी नवाचार के रास्ते में एक रुकावट बन गया। ऊर्जा की बढ़ती मांग के बीच, सरकार का यह रवैया एक ऐसे ताले जैसा प्रतीत होने लगा जिसकी चाबी किसी और के पास नहीं थी। सुरक्षा के नाम पर स्थापित यह एकाधिकार धीरे-धीरे अवसरों को रोकने वाला बंधन बन गया।
भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौता 2008
2008 में भारत ने एक ऐतिहासिक कूटनीतिक उपलब्धि हासिल की-भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौता। 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद पहली बार भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) से छूट मिली और वह वैश्विक परमाणु व्यापार में भाग लेने योग्य बना। यह केवल एक समझौता नहीं था, बल्कि भारत की एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकृति थी।
परंतु जब यह द्वार वॉशिंगटन में खोला गया, भारत में उसकी कुंजी हमारे अपने कानूनों की जकड़ में फँस गई। विशेष रूप से सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट, 2010 के धारा 17(b) ने आपूर्तिकर्ताओं के लिए जोखिम का वातावरण बना दिया, जिससे विदेशी कंपनियाँ पीछे ही रही और इस वजह से अभी तक उस कूटनीतिक उपलब्धि का इस मामले में लाभ पूर्णतः फलीभूत नहीं हो पाया है.
न्यायोचित और प्रासंगिक सुधारों की आवश्यकता
आज जब भारत 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु ऊर्जा का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है, तब इन पुराने कानूनों को समकालीन वास्तविकताओं के अनुरूप ढालना अनिवार्य हो गया है। यह केवल एक कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु लक्ष्यों और वैश्विक साझेदारी का मुद्दा है।
इस दिशा में तीन मुख्य कानूनी इंस्ट्रूमेंट में बदलाव आवश्यक है: एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1962; सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज (CLND) एक्ट, 2010; और इसके अधीन बनाए गए 2011 के नियम। समय की जरूरतों के हिसाब से इन तीनों कानूनों में बुद्धिमत्ता, पारदर्शिता और साहस के समभाव के समभाव के साथ उचित बदलाव की जरुरत है।
परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 में संशोधन की जरुरत : सरकारी नियंत्रण से नियामक दृष्टिकोण की ओर
कई सालों से भारत का परमाणु कार्यक्रम एक सख्त और पुराने कानून के सहारे चल रहा है-जिसका नाम है परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962। भारत का परमाणु कानून लंबे समय तक सरकार के एकाधिकार वाला क्षेत्र रहा है। एक्ट की धारा 3 केंद्र सरकार को परमाणु प्रतिष्ठान स्थापित करने और संचालित करने का विशेषाधिकार देती है। इस कानून की धारा 3 एक ऐसी दीवार है, जो कहती है कि देश में परमाणु बिजली घर बनाने और चलाने का हक सिर्फ केंद्र सरकार को होगा।
जब ये कानून बना था, तब का ज़माना ही कुछ और था। 1960 के दशक में दुनिया में शीत युद्ध चल रहा था, और हर देश अपनी तकनीक और सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क था। उस वक्त भारत ने सोचा कि अगर कोई और इस क्षेत्र में घुसा, तो कहीं देश को किसी विदेशी शक्ति पर निर्भर न होना पड़े। तो ये नियम एक तरह की सुरक्षा बन गया-एक ऐसा दरवाज़ा जो बाहर वालों के लिए बंद था।
लेकिन अब जब ज़माना बदल गया है। दोस्त देश भी मदद करना चाहते हैं, तकनीक भी आगे बढ़ चुकी है, और निजी कंपनियां भी अब इस काम में हिस्सा लेना चाहती हैं। मगर यह पुराना कानून वैसे सहयोग प्राप्त कर पाने की दिशा में अवरोध का काम कर रहे हैं। जो दरवाज़ा कभी हमें बचाने के लिए बंद किया गया था, अब वही दरवाज़ा अपेक्षित सोह्योग को भी अंदर आने से रोक रहा है। अब ज़रूरत इस बात की है कि हम इस दरवाज़े को थोड़ा खोलें-सोच समझकर, सुरक्षा बनाए रखते हुए-ताकि देश को ऊर्जा के क्षेत्र में और आगे बढ़ाया जा सके।
भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र की कहानी अब एक नए मोड़ पर आ खड़ी हुई है। अब तक यह क्षेत्र पूरी तरह सरकार के हाथों में था-हर योजना, हर मशीन, हर जिम्मेदारी का बोझ सरकार ही उठाती रही। लेकिन वक्त बदल रहा है। लेकिन अब समय आ गया है कि इस प्रावधान को दोबारा परिभाषित किया जाए और सुनिशिचित किया जाय की सरकार की भूमिका को पुनर्भाषित किया जाय।
अगर भारत को भी परमाणु ऊर्जा के दिशा में सहयोग प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ना है, तो परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 की धारा 3 को परिवर्तित करना होगा। यह किसी भी तरह से देश की संप्रभुता को कमजोर करना नहीं होगा, बल्कि उसे नए तरीके से समझना और अपनाना होगा-जहां सरकार सब कुछ खुद करने वाली ताकत नहीं, बल्कि एक जिम्मेदार मार्गदर्शक की भूमिका में रहेगी। इसका मतलब यह हुआ की , ऐसा बदलाव होने से भारत सरकार अकेली खिलाड़ी नहीं, बल्कि खेल के नियम तय करने वाली निष्पक्ष रेफरी की भूमिका में होगी।
दुनिया के कई देश अब इस जिम्मेदारी को अकेले नहीं उठा रहे। उन्होंने निजी कंपनियों को भी साथ जोड़ा है-लेकिन इस शर्त पर कि नियम कड़े हों, निगरानी पूरी हो, और सुरक्षा में कोई ढील न हो। ब्रिटेन में, 2004 के एनर्जी एक्ट के तहत, निजी कंपनियां परमाणु संयंत्र चला रही हैं और वहां की सरकारी एजेंसी ONR उनकी निगरानी करती है। दक्षिण कोरिया में KEPCO जैसी कंपनियां परमाणु संयंत्र बना रही हैं, लेकिन उनके ऊपर सरकार की लाइसेंस व्यवस्था की सख्त नजर है।
अब समय आ चुका है जब भारत भी इस सोच को अपनाए, और सरकार का दायित्व मशीनें चलाने वाले इंजीनियर से हटकर उस वास्तुकार जैसा होना चाहिए जो पूरा खाका तैयार करता है-हर चीज़ की रूपरेखा, हर नियम की नींव।
अब बात आती है परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 के धारा 14 की। ये धारा सुरक्षा और लाइसेंसिंग से जुड़ी है। अभी तक ये काम AERB नाम की संस्था करती है, लेकिन दिक्कत ये है कि ये संस्था उसी मंत्रालय के अधीन है जो परमाणु ऊर्जा को चलाता है। यानी जाँच करने वाला खुद उसी टीम का हिस्सा है-जिसे जाँचना है। यह बात आमतौर पर खेलों में मंजूर नहीं होती-कोई भी टीम अपने ही रेफरी को पसंद नहीं करती।
दुनिया के कई देशों ने इस गलती को पहले ही सुधारा है। अमेरिका में NRC नाम की संस्था ऊर्जा मंत्रालय से पूरी तरह अलग है और स्वतंत्र रूप से काम करती है। कनाडा में CNSC सीधे संसद को जवाबदेह है। भारत को भी ऐसी ही स्वतंत्र संस्था चाहिए, जो न सिर्फ कानूनी रूप से मजबूत हो, बल्कि जिसमें नियुक्तियाँ पारदर्शी हों, कार्यकाल तय हो और उसका बजट भी स्वतंत्र हो।
यह बदलाव सिर्फ निजी निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए नहीं है-बल्कि देश की जनता को यह भरोसा दिलाने के लिए है कि सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होगा, चाहे संयंत्र कोई भी चला रहा हो।
अब बात करें परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 के धारा 16 की, जो रेडियोएक्टिव पदार्थों की हैंडलिंग, ट्रांसपोर्ट और निपटान से जुड़ी है। यह धारा सरकार को बहुत अधिकार देती है-लेकिन ये अधिकार आज की ज़रूरत के मुताबिक थोड़े पुराने पड़ गए हैं। अगर निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में आने दिया जाएगा, तो फिर नियम भी वैसी ही पारदर्शिता और जवाबदेही से भरे होने चाहिए, जैसी शेयर बाज़ार या अंतरराष्ट्रीय निवेशकों की दुनिया में होती है।
आज के दौर में परमाणु ऊर्जा किसी के हाथ में हो-सरकारी या निजी-अगर कोई गलती होती है, तो असर सब पर पड़ता है। इसलिए कानून में ये साफ़-साफ़ लिखा होना चाहिए कि रेडियोएक्टिव कचरे का क्या होगा, उसका भंडारण कैसे होगा, निगरानी कब तक चलेगी, और जिम्मेदारी किसकी होगी।
दुनिया के विकसित देशों ने इस पर काफी काम किया है। फ्रांस में, 1991 का एक कानून पूरे देश में रेडियोएक्टिव कचरे के लिए गहरी ज़मीन के अंदर भंडारण की योजना चलाता है। स्वीडन में, परमाणु कंपनियों से पहले ही एक फंड लिया जाता है, ताकि जब संयंत्र बंद होगा, तो सफाई और सुरक्षा का खर्च पहले से जमा हो।
भारत में अभी तक ये बातें नीति दस्तावेज़ों और सरकारी आदेशों में हैं-लेकिन ये अब कानून का हिस्सा बननी चाहिए। कोई भी कंपनी परमाणु संयंत्र लगाए, उससे पहले ही यह तय हो जाए कि जब प्लांट बंद होगा, तो उसका क्या होगा। बजट भी तय हो, योजना भी तैयार हो, और टाइमलाइन भी।
एक और जरूरी बात-डीकमीसनींग, यानी जब संयंत्र की उम्र पूरी हो जाए और उसे हटाना पड़े, तो क्या होगा? कई देशों ने इसके लिए कानून बना दिए हैं। अमेरिका में NRC के नियमों में बताया गया है कि संयंत्र बंद होने के बाद भी कई सालों तक उसका पर्यावरण पर असर जांचा जाएगा, आम जनता से राय ली जाएगी, और पैसे का इंतज़ाम पहले से होगा।
परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 की धारा 16 में भी अब यह साफ होना चाहिए कि सरकारी और निजी, दोनों कंपनियां पहले से ही ऐसा फंड बनाएंगी, जो किसी आर्थिक संकट से भी सुरक्षित रहे। ताकि ये काम कभी टल न जाए या आने वाली सरकारों पर न छोड़ा जाए।
और अंत में, सुरक्षा-जिसे हम न्यूक्लियर सेक्युरिटी कहते हैं-इसमें कोई ढिलाई नहीं हो सकती। कानून में साफ़ होना चाहिए कि हर निजी कंपनी को IAEA जैसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करना होगा, कर्मचारियों की पृष्ठभूमि की जांच होगी, साइबर सुरक्षा मजबूत होगी, और हर कुछ सालों में एक स्वतंत्र संस्था उसकी जांच करेगी।
इसलिए अब ज़रूरत है कि धारा 16 केवल सरकार को आदेश देने वाला अधिकार न रहे, बल्कि एक ऐसा नक्शा बन जाए जिसमें हर चीज़ तय हो-जिम्मेदारियां भी, जवाबदेही भी। आज परमाणु ऊर्जा सिर्फ एक तकनीकी उपलब्धि नहीं है, यह भविष्य की पीढ़ियों से किया गया एक वादा है।
जैसा कि फ्रांस के लेखक ला रोशफूको ने कहा था-“भविष्य को पहले से देख लेना ही सच्चे शासक की पहचान है।” और अब वक्त आ गया है कि हमारा कानून भी वैसी ही दूरदृष्टि दिखाए-क्योंकि आज का फैसला, कल की सुरक्षा तय करेगा।
सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट, 2010 में सुधार की जरुरत
सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज (CLND) एक्ट, 2010 की धारा 17(b), जो ऑपरेटर को आपूर्तिकर्ता से हर्जाना वसूलने का अधिकार देती है, विदेशी कंपनियों के लिए चिंता का विषय रही है। जरुरत और बर्तमान परिदृश्य से अनुरूपता लाने के लिए इसे केवल उसी स्थिति में सीमित किया जाना चाहिए जब अनुबंध में स्पष्ट रूप से इसकी बात की गई हो। इस संशोधन से भारत अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन ऑन सप्लिमेंटरी कॉम्पेन्सेशन (CSC) के अनुरूप आ सकेगा।
इसके अतिरिक्त, धारा 6 में निर्धारित ₹1,500 करोड़ की देनदारी सीमा को अद्यतन किया जाना चाहिए ताकि यह वर्तमान आर्थिक परिस्थिति और रिएक्टर की क्षमताओं के अनुरूप हो। सरकार द्वारा गठित ‘न्यूक्लियर लायबिलिटी फंड’ को इस संदर्भ में एक मजबूत सहारा बनाया जा सकता है।
सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज (CLND) 2011, नियमों को अनुरूप बनाना
2011 में बनाए गए CLND नियम, विशेषकर नियम 24, को अधिक स्पष्ट और आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। आपूर्तिकर्ता अनुबंधों के लिए एक समान प्रारूप, देनदारी की स्पष्ट समय-सीमा (जैसे 5-7 वर्ष), और विवाद समाधान हेतु एक अर्ध-न्यायिक ‘न्यूक्लियर लायबिलिटी क्लेम्स कमीशन’ की स्थापना इस दिशा में ठोस कदम हो सकते हैं।
नतीजतन, अगर भारत को 2047 तक परमाणु ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनना है और दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना है, तो कानूनों में बदलाव सिर्फ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि हमारे ऊर्जा भविष्य की मजबूत बुनियाद होने वाले हैं। अब वक्त आ गया है कि भारत अपने पुराने कानूनों को समझदारी, नई सोच और हिम्मत के साथ नए दौर के चुनौतियों के मुताबिक ढाले, ताकि वह एक ऐसा परमाणु राष्ट्र बन सके जो न सिर्फ सुरक्षित हो, बल्कि सक्षम और आगे बढ़ने के लिए तैयार भी हो।
(डॉ. सत्यदीप कुमार सिंह, एडवोकेट और रविशंकर शुक्ला, IAS, हैं)