कानपुर के रहने वाले कथावाचक मुकुट मणि सिंह यादव की इटावा के दादरपुर गांव में चोटी काट ली गयी और सिर मुंड़ा दिया गया। उनका दोष सिर्फ़ इतना था कि ग़ैर-ब्राह्मण होते हुए भी वे भागवत कथा का वाचन कर रहे थे। इस घटना ने उस मध्यकाल की याद दिला दी है, जिसे अंधकार युग कहा जाता है, लेकिन इस आधुनिक जगमगाहट में पैबस्त जातीय अंधेरे के लिए मध्यकालीन अंधेरे में टिमटिमाते कई ग़ैर-ब्राह्मण जुगुनुए आज भी दीए का काम करते हैं।
इतिहास के पन्नों में अक्सर मध्यकाल को अंधकार युग के रूप में चित्रित किया जाता है, लेकिन इस एकतरफा दृष्टिकोण के पीछे बहुत कुछ छिपा रह जाता है। अगर हम ईमानदारी से इस युग का विश्लेषण करें, तो हमें कई ऐसे क्षण दिखाई देते हैं, जब समाज ने जाति-धर्म की सीमाओं को लांघकर ज्ञान को सम्मान दिया- विशेषकर उन समयों में जब ब्राह्मणेतर विचारकों, संतों और शिक्षकों की शिक्षाएँ न केवल समाज में स्वीकार की गईं, बल्कि उन्होंने सामाजिक चेतना को नया स्वरूप भी दिया। इस दृष्टि से देखा जाए, तो कुछ मामलों में मध्यकाल आधुनिक समय से अधिक समावेशी, अधिक श्रवणशील और ज्ञान-सम्मानक दिखाई देता है।
ज्ञान का लोकतंत्र: कबीर, रैदास और नानक की स्वीकृति
15वीं–16वीं शताब्दी में उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन ने जो सामाजिक क्रांति की, वह जातीय वर्चस्व को सीधे चुनौती देने वाली थी। कबीर, जो जुलाहा थे, एक उच्चकोटि के संत और विचारक बने। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म की व्याख्या ऐसे समय में की, जब ब्राह्मणों के पास धर्म और शास्त्रों पर एकाधिकार माना जाता था। फिर भी, कबीर के दोहे आज भी उतनी ही श्रद्धा से पढ़े जाते हैं, जितनी वेद की ऋचाएँ।
इसी तरह संत रविदास, जो चर्मकार समुदाय से थे, समाज को ‘बेगमपुरा’ का सपना दिखाते हैं- एक ऐसा समाज जहाँ कोई जात-पात, दुख-दर्द न हो। रविदास की रचनाएँ सिख धर्म के गुरुग्रंथ साहिब में भी स्थान पाती हैं। गुरु नानक, स्वयं एक कट्टर जाति-विरोधी संत थे, जिन्होंने जाति व्यवस्था को खारिज करते हुए ‘एक ओंकार’ की सार्वभौमिकता का संदेश दिया।
इन सभी उदाहरणों में यह बात उभरकर आती है कि समाज, विशेषकर निम्नवर्ग और मध्यवर्ग, इन ब्राह्मणेतर संतों की बातों को न केवल सुनता था, बल्कि उन्हें जीवन में आत्मसात भी करता था। यह स्थिति आज की ‘उच्च शिक्षित’ आधुनिकता की तुलना में कहीं अधिक जनतांत्रिक और विचार-सम्मत थी।
आधुनिक युग की ‘डिग्री आधारित जाति व्यवस्था’
आधुनिक काल में जाति का स्वरूप बदला ज़रूर है, लेकिन उसका प्रभाव कहीं गहराया है। आज ज्ञान को मान्यता ‘डिग्रियों’ और ‘संस्थानों’ के नाम से दी जाती है, न कि विचारों की गुणवत्ता के आधार पर। ब्राह्मणवाद भले नाम से गायब हो गया हो, परंतु सांस्कृतिक पूंजी का एक नया स्वरूप जन्म ले चुका है। इसमें तथाकथित ‘विद्वान’ वही माने जाते हैं, जो अभिजात्य पृष्ठभूमि या विदेशी संस्थानों से आते हैं। किसी कबीर, रविदास, या समकालीन दलित-विचारक की बात तब तक नहीं सुनी जाती, जब तक वह किसी प्रतिष्ठित मंच से न बोल रहा हो।
आज विश्वविद्यालयों और मीडिया हाउसों में गिने-चुने ‘स्वीकृत विचारक’ ही स्थान पाते हैं। वहीं, पिछड़े, दलित या अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले विचारकों की बातों को या तो हाशिये पर रख दिया जाता है या उन्हें ‘राजनीति प्रेरित’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। यह स्थिति उस मध्यकाल से कहीं पीछे प्रतीत होती है, जहाँ एक साधारण जुलाहा कबीर भी संत बन सकता था, और एक चर्मकार रविदास भी ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता था।
मध्यकालीन समाज की श्रवणशीलता
मध्यकाल के समाज की सबसे बड़ी विशेषता उसकी श्रवणशीलता (Listening Culture) थी। भक्ति आंदोलन हो या सूफी आंदोलन समाज ने शब्द और भाव की गहराई को स्वीकार किया, न कि वक्ता की जाति या जन्म को इसका आधार बनाया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और निज़ामुद्दीन औलिया जैसे सूफी संतों को हिन्दू समाज के बड़े हिस्से ने भी उतना ही सम्मान दिया जितना मुस्लिम समाज ने दिया। उनके दरगाहों पर हिन्दू-मुस्लिम सभी उपस्थित होते थे। यह परंपरा आज के धार्मिक ध्रुवीकरण और संकीर्ण सोच की तुलना में कहीं अधिक मानवीय और समावेशी थी।
आधुनिकता की चुनौतियाँ, इतिहास के सबक
यह मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुछ दृष्टिकोणों से मध्यकाल आधुनिक काल से बेहतर था — खासकर उस समय जब समाज में विचार और ज्ञान को जाति, धर्म या सामाजिक पृष्ठभूमि से ऊपर रखा गया। आज, जब जातीय पहचानें फिर से उभार पर हैं, और विचारों की स्वीकृति केवल सत्ता, संस्थान या ब्रांड से जुड़कर मिलती है, तब हमें मध्यकालीन श्रवणशीलता और विचार-स्वतंत्रता से कुछ सीखने की आवश्यकता है।
आज के समाज को यह समझना होगा कि विचार की महत्ता वक्ता की जाति, धर्म या पद से नहीं तय होनी चाहिए, बल्कि उस विचार की प्रासंगिकता, मानवीयता और विवेक से तय होनी चाहिए। यदि हम फिर से एक कबीर, एक रविदास या एक नानक की बात खुलकर सुनने को तैयार हो जाएँ, तो यह आधुनिक युग वास्तव में एक सभ्य और समतामूलक समाज की ओर अग्रसर हो सकता है। इस कसौटी पर क्या मुकुट मणि यादव की भागवत कथा वाचन की श्रवणशीलता से अस्वीकृति हमारे मनुष्य होने पर कठोर सवाल नहीं उठाती?
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)