बिहार चुनाव देश में लोकतंत्र का भविष्य तय करेगा

बिहार चुनाव में चंद महीने बचे हैं। इस बीच वहां एक अभूतपूर्व सियासी बवंडर उठ खड़ा हुआ है। विपक्ष के आरोप के अनुसार लगभग दो करोड़ मतदाताओं को मतदाता सूची की सघन जांच के नाम पर मतदान से वंचित करने की तैयारी है। जांच के लिए जिस तरह के दस्तावेज मांगे गए हैं, वे जाहिर है हाशिए के तबके के लोग उपलब्ध नहीं करा सकते। इसलिए इसकी गाज सबसे ज्यादा उन्हीं के ऊपर गिरनी है। यह आजाद भारत के इतिहास का अकल्पनीय घटनाक्रम है जिसमें करोड़ों लोगों का चुनाव के मूल अधिकार से वंचित हो जाना तय है।

यह एक तरह से लोकतंत्र की हत्या है। क्या बिहार की जनता इसे यूं ही स्वीकार कर लेगी? बहुत कुछ विपक्ष के रुख पर निर्भर है। क्या विपक्ष जनता के मन में उमड़ते आक्रोश को जनांदोलन का रूप दे पाएगा जो चुनाव आयोग को इस तानाशाही वाले निर्देश को वापस लेने के लिए मजबूर कर सके। यह तय है कि एक बड़े जुझारू जनांदोलन के बिना चुनाव आयोग को कदम पीछे खींचने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।और जनादेश की डाकाजनी को रोका नहीं जा सकता।

इस समय वहां सुशासन बाबू के नेतृत्व में भाजपा के साथ मिलकर डबल इंजन की सरकार चलते (बीच के छोटे अंतराल को छोड़कर ) बीस साल होने को हैं।

एक समय जैसे भारत दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में था, वैसे ही बिहार की एक अत्यंत ही समृद्ध विरासत है, आधुनिक काल में ब्रिटिश राज में हुए स्थाई बंदोबस्त ने बिहार के विकास को काफी पीछे धकेल दिया। यहां अलग-अलग इलाकों में जमींदार बना दिए गए जिन्हें किसानों से हर हाल में वसूलकर निश्चित मात्रा में लगान देना था। इसका उपज से कोई संबंध नहीं था। इसलिए सरकार उपज बढ़ाने के लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं करती थी। जबकि मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में, रैयतवारी व्यवस्था में लगान उपज से जुड़ी होती थी इसलिए सरकार भी कृषि के विकास के लिए सार्वजनिक खर्च करती थी, इन इलाकों में किसान तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र और समृद्ध थे।

जमींदारी व्यवस्था की जकड़न ने बिहार को देश के सबसे पिछड़े राज्यों में बदल दिया। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन के बावजूद, वह कागज पर ही रह गई। तमाम तिकड़मों से सत्ता के संरक्षण में जमींदार, मठ, महंत न सिर्फ जमीन बड़े पैमाने पर बचाने में सफल रहे, बल्कि सामंती धाक भी कायम रही। इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ बिहार का विकास अवरुद्ध रहा बल्कि गरीब जनता नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त रही। इसी के खिलाफ जमीन, मजदूरी और सम्मान के लिए लड़ते हुए भाकपा माले ने एक खास इलाके में अपनी जड़ें जमाई और अब विस्तार के लिए प्रयासरत है।

अपने से पहले के शासन को नीतीश-भाजपा जंगल राज कहते नहीं अघाते। लेकिन खुद उनके शासन की उपलब्धि क्या है।बिहार दरअसल आज देश का सबसे पिछड़ा हुआ राज्य है। बेरोजगारी, गरीबी, निम्न साक्षरता दर, निम्न प्रति व्यक्ति आय, औद्योगिक गतिरुद्धता, बंद चीनी मिलों का न खुलना, 65% आरक्षण को संविधान के 9th शेड्यूल में न डालना आदि विपक्ष के अनेकों सवालों के घेरे में सरकार है।

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से वहां गरीबी दर आज 33.76% है, अर्थात करीब एक तिहाई लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। मानव विकास सूचकांक में भारत का औसत जहां 0.644 है, केरल का 0.775 है, जबकि बिहार का 0.551 है, यह पाकिस्तान के 0.540 और जिम्बाब्वे के 0.550 के आसपास है। 2022 के आंकड़े के अनुसार प्रति व्यक्ति आय तेलंगाना में जहां 3 लाख है, वहीं बिहार में यह मात्र 49000 रुपये है। बिहार में एक लाख आबादी पर जितने अस्पताल के बेड हैं उसका 10 गुना ज्यादा बंगाल और महाराष्ट्र में हैं। महिलाओं की सामाजिक जीवन में भागीदारी हिमाचल प्रदेश में बिहार की तुलना में 12 गुना ज्यादा है।

साक्षरता दर की दृष्टि से बिहार आज भी सबसे निचले पायदान के राज्यों में है। शिक्षा के क्षेत्र में ड्रॉप आउट रेट देश में सर्वाधिक है। तमाम स्कूलों में न बिजली है, न अध्यापक हैं, न कंप्यूटर है, न लाइब्रेरी है। 78120 स्कूलों में से 16529 स्कूलों में बिजली नहीं है, केवल 5.57% स्कूलों में कंप्यूटर है। 2637 स्कूलों में केवल एक अध्यापक हैं। 117 स्कूलों में कोई अध्यापक नहीं है। 70% कॉलेज में बिल्डिंग नहीं है जिनमें 120 पटना में हैं। उच्च शिक्षा में कुल एनरोलमेंट अनुपात 17.1% है। 18 से 23 वर्ष आयु वर्ग के कुल 1.36 करोड़ युवाओं में केवल 23.37 लाख स्नातक तक पहुंचते हैं अर्थात 1.13 करोड़ उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।एक लाख छात्रों पर केवल 7 कालेज बिहार में हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 30 कॉलेज है।

युवाओं की जिंदगी से खिलवाड़ हो रहा है। भ्रष्टाचार का चरम बोलबाला है। हाल के वर्षों में दस पेपर लीक हो चुके हैं। जाहिर है सत्ता के विभिन्न स्तरों पर संरक्षण और सहभागिता के बिना यह संभव नहीं है। कई बार तो लोगों को संदेह होता है कि सरकार दरअसल नौकरी देना ही नहीं चाहती और पेपर लीक, मुकदमेबाजी में फंसाकर इसे अंजाम दिया जाता है।

कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि पेपर लीक माफिया के हौसले इतने बुलंद हैं कि बाकायदा तय रेट पर पेपर लीक किए जाते हैं। नीट पीजी के पेपर 70 से 80 लाख के बीच, नीट यूजी के पेपर 30 से 40 लाख में, बैंक पीओ के पेपर 15 से 20 लाख, पुलिस एस आई 25 लाख, कांस्टेबल के 10 से 15 लाख का रेट चल रहा है। समग्र शिक्षा अभियान जिसमें 60% केंद्र और 40% राज्य देता है, का बुरा हाल है क्योंकि केंद्र द्वारा दी जाने वाली राशि घटती जा रही है।

गौरतलब है कि यूपी में चल रही उनकी डबल इंजन सरकार ने 5000 सरकारी स्कूल बंद करने का ऐलान किया है जबकि तेलंगाना में जहां केवल एक बच्ची पढ़ रही है वहां भी स्कूल चल रहा है।

औद्योगिक विकास के पैमाने पर बिहार में कल कारखानों तथा मजदूरों की संख्या की दृष्टि से वृद्धि होने की बजाय गिरावट ही हुई है। 2015/16 में जो संख्या 3623 थी, वह घटकर 2017/18 में 3461 रह गई। कई सालों से कारखाना मजदूरों की संख्या लगभग 1 लाख के आसपास बनी हुई है अर्थात आबादी का मात्र 0.1%। बिहार राज्य के सकल उत्पाद में उद्योग का योगदान मात्र 19% है जो देश में सबसे कम है। वैसे एक सरकारी आंकड़े में यह  बताया गया कि 2006/7 के 15 लाख से बढ़कर MSME इकाइयों की संख्या 35 लाख हो गई है।

बहरहाल गहराई में जाने पर पता लगा कि पकौड़ा बेचने के ठेले और पान गुटखा बेचने वाली गुमटियों को भी माइक्रो उद्योग में शामिल कर लिया गया है, तब यह भारी भरकम संख्या आई है। जबकि स्वयं सरकार के अनुसार ही रोजगार आधारित कसौटी की बजाय 1 करोड़ निवेश तथा 5 करोड़ टर्न ओवर पर माइक्रो सेक्टर माना जाएगा। बहरहाल श्रम कानूनों के बदलाव में सुशासन बाबू किसी से पीछे नहीं रहे। कई अन्य राज्यों की तर्ज पर काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया है।

बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे नीचे 49470 है। जबकि केरल में 228767 रुपए, महाराष्ट्र में 215233, यहां तक UP में 70792 रुपए और झारखंड में 78660 रुपए है। बिहार में हेल्थ सिस्टम की स्थिति चिंताजनक है। यहां डायरिया, टायफाईड, टीबी, HIV, डायबिटीज, कैंसर, हार्ट अटैक जैसी कई बीमारियों ने प्रदेशवासियों को जकड़ रखा है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार सरकारी अस्पताल का हाल सबसे बुरा बिहार में है। प्रति लाख आबादी पर केवल 6 बेड हैं, राष्ट्रीय औसत 22 बेड है, यह दिल्ली में 59, कर्नाटक में 33 है। केवल 8 अस्पतालों में टेस्टिंग की सुविधा है।

CAG की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में जांच-उपकरण की भारी कमी है। उपकरणों की आपूर्ति में कमी है। सरकार द्वारा आवंटित बजट भी पूरी तरह से खर्च नहीं किया जा रहा है। कांग्रेस ने वायदा किया है कि गहलोत सरकार द्वारा राजस्थान में लागू हेल्थ मॉडल को बिहार में लागू किया जाएगा। उसने 25 लाख तक फ्री इलाज की योजना शुरू की थी, जिससे लोगों को खूब फायदा मिला। साथ ही, अस्पतालों की हालत भी सुधर गई।

विपक्ष ने आरोप लगाया है कि भारत सरकार की आयुष्मान योजना से आबादी के बहुत कम हिस्से को लाभ मिल पाता है। जाहिर है इस बदहाली के बाद नीतीश भाजपा गठजोड़ निष्पक्ष चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर सकता। इसीलिए अब चुनाव आयोग की मदद से बड़े पैमाने पर लोगों को मताधिकारी से वंचित करने की तैयारी है। इसके तहत मतदाता सूची की सघन जांच के नाम पर बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम खारिज किए जाएंगे।

कुल 7.9 करोड़ मतदाताओं में से 4.74 करोड़ को अब यह साबित करना होगा कि वे मतदाता हैं यानी वैध नागरिक हैं। यह एक तरह से चोर दरवाजे से NRC को घुसाया जा रहा है। इसमें एक तो कोई न कोई दस्तावेज सबको देना है। 2003 में हुई आखिरी सघन जांच के बाद जो लोग मतदाता थे, उन्हें इसका प्रमाण मतदाता सूची से जमा करना होगा।

1 जुलाई 1987 से 2003 तक पैदा हुए यानी 20 से 38 साल की उम्र के बीच के लोगों को माता या पिता की जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण देना होगा। 2 दिसंबर 2004 के बीच जन्म लेने वालों को अपना तथा माता और पिता दोनों का जन्मदिन तथा जन्मस्थान का प्रमाण पत्र देना होगा।

सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड आदि को कोई प्रमाण नहीं माना जाएगा। वरना बिहार के जिन 88% लोगों का आधार कार्ड बना हुआ है उनके लिए किसी और प्रमाण की जरूरत न होती। अब बिहार जैसे राज्य से जो आने वाले दिनों में बाढ़ में डूबा रहेगा, जहां से सबसे ज्यादा पलायन के कारण लोग बाहर होंगे, शिक्षा निम्न स्तर पर है,वहां यह अपेक्षा करना कि एक महीने के अंदर लोग सारे दस्तावेज हासिल करके जमा कर देंगे, यह एकदम अव्यावहारिक और असंभव है।

इंडिया ब्लॉक के नेताओं ने चुनाव आयोग से मिलकर अपना प्रतिवेदन दिया है और आरोप लगाया है कि इससे 2 करोड़ मतदाताओं का मताधिकार छिन जाएगा। न सिर्फ इंडिया ब्लॉक बल्कि NDA के घटक दलों ने भी इस पर चिंता व्यक्त की है।

कहा जा रहा है कि बिहार से शुरू करके इसे बंगाल होते हुए पूरे देश में लागू किया जाएगा। जाहिर है फिलहाल निशाना बिहार और बंगाल हैं, उत्तर भारत के जिन दो बड़े राज्यों में भाजपा अब तक अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है, और जिसकी महत्वाकांक्षा संघ-भाजपा बहुत दिन से पाले हुए हैं। यह साफ है कि इस पूरी कवायद के निशाने पर अल्पसंख्यकों समेत समाज के हाशिए के तबके और विपक्षी दलों के मतदाता होंगे।

विपक्ष महाराष्ट्र में चुनाव धांधली को लेकर लड़ रहा था, मतदाताओं के अप्रत्याशित ढंग से नाम बढ़ने के बारे में। उस पर किसी संतोषजनक कार्रवाई की बजाय चुनाव आयोग ने उल्टे ही एक ज्यादा scientific rigging का रास्ता निकाल लिया। बताया जा रहा है कि सघन जांच की यह प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है।

यह समय विपक्ष के लिए जीवन-मरण का क्षण है। यदि विपक्ष जनादेश का सम्मान चाहता है तो सड़क पर उतरने और एक निर्णायक जनांदोलन का कोई विकल्प नहीं है, और किसी संस्था से इसके रोकने की उम्मीद मृगमरीचिका ही साबित होगा। अगर बिहार जैसे राज्य में जो जनांदोलनों की धरती रही है और राजनीतिक जागरूकता के मामले में देश में अव्वल है, सरकार चुनाव आयोग से मिलकर गरीब जनता को मताधिकार से वंचित कर जनादेश का अपहरण करने में सफल हो जाती है, तो फिर देश के अन्य हिस्सों में क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

More From Author

पूर्ण पारदर्शिता अपनाएंगे और सुनिश्चित करेंगे कि कोई बाहरी ताकतें सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के कामकाज में हस्तक्षेप न करें: सीजेआई गवई

डिजिटल जेल में कैद लोकतंत्र : हमारी ख़ामोशी पर भी सरकार का पहरा

Leave a Reply