भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) पर बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी दल भारत दौरे पर है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक वार्ता अपने “अंतिम चरण” में प्रवेश कर गई है। इसलिए अमेरिकी दल के इस दौरे के समय बीटीए के आयात शुल्क से संबंधित हिस्से को अंतिम रूप दिया जा सकता है। पिछले महीने वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधिमंडल जब वॉशिंगटन गया था, तभी ये सहमति बन गई थी कि बीटीए तीन चरणों में पूरा होगा। पहला चरण टैरिफ से संबंधित होगा, जबकि बाकी दो चरणों में टैरिफ से इतर मसले तय होंगे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप कह चुके हैं कि उनके प्रशासन की 70 से अधिक देशों से व्यापार वार्ता चल रही है। पिछले महीने के आखिर में ट्रंप प्रशासन ने इन तमाम देशों से कह दिया कि उनका जो आखिरी ऑफर है, उसे वे लिखित रूप में आठ जून तक दे दें। अमेरिकी अधिकारियों ने कहा कि वे हर देश के साथ अलग-अलग बारीकी से बातचीत करने के मूड में नहीं हैं। इसलिए आखिरी पेशकश के मुताबिक अमेरिकी नीति तय होगी। जिन देशों का ऑफर संतोषजनक नहीं होगा, उन पर आठ जुलाई से reciprocal टैरिफ लग जाएंगे, जिसकी दरों की घोषणा अमेरिका ने बीते दो अप्रैल को की थी।
ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरोलीन लीविट ने तीन जून को पुष्टि की कि आखिरी ऑफर मंगवाने के लिए सभी देशों को पत्र भेज दिए गए हैं। इन देशों में भारत है या नहीं, इसकी पुष्टि नहीं हुई है। बहरहाल, ऐसी खबरें हैं कि अमेरिकी दल की ताजा यात्रा बीटीए को अंतिम रूप देने का आखिरी मौका है। ऐसा नहीं हुआ, आठ जुलाई से अमेरिका होने वाले भारतीय निर्यात पर 26 फीसदी टैरिफ लग जाएगा।
भारत सरकार अमेरिका से आयात होने वाली कई वस्तुओं पर शुल्क में छूट का एलान पहले ही कर चुकी है। उसने अमेरिकी कंपनियों के माफिक अपने कुछ कानूनों में बदलाव की घोषणा भी की है। इसके अलावा एलन मस्क की कंपनी स्पेस-एक्स की स्टारलिंक सेवा को भारत में दी गई मंजूरी भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। मगर इससे अमेरिका संतुष्ट नहीं है। इसलिए ऐसी खबर है कि वार्ता के ताजा दौर में भारत अमेरिका से कच्चे तेल, हथियारों, सोयाबीन, मक्का, ह्विस्की और ओटोमोबाइल के आयात पर भी रियायत देने पर राजी होगा। इनके जरिए अमेरिका के व्यापार घाटे को पाटने की कोशिश की जाएगी।
लेकिन यह तय है कि इससे भी बात नहीं बनेगी। तय इसलिए है कि अमेरिका क्या चाहता है, इसे इसी हफ्ते वहां के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने दो टूक बता दिया। लुटनिक ने कूटनीतिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए वो शर्तें दो-टूक बताईं, जो अगर भारत अमेरिका के ‘गुड बुक’ में रहना चाहता है, तो उसे माननी होगी। इससे इस बात की भी पुष्टि हो गई कि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन के टैरिफ वॉर का मकसद सिर्फ आयात शुल्क में रियायतें पाना नहीं है। बल्कि इसके जरिए वे विश्व व्यापार और यहां तक कि भू-राजनीति को भी अमेरिकी हित में पुनर्गठित करना चाहते हैं।
हॉवर्ड लुटनिक ने यूएस- इंडिया स्ट्रेटेजिक फोरम को संबोधित करते हुए कहा कि
- भारत ने रूस से हथियार खरीद कर अमेरिका को नाराज किया है।
- इसके अलावा वह ब्रिक्स का सदस्य है, जिसका मकसद डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देना है।
- उन्होंने दो टूक कहा कि इन दोनों मामलों में भारत को राह बदलनी होगी।
- उन्होंने भारत को यह नुस्खा भी दिया कि वह अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक उपभोग केंद्रित करे- यानी निवेश बढ़ाने के चक्कर में ना पड़े।
(https://x.com/MattooShashank/status/1929766804366258210)
विदेश नीति पर निर्णय और अर्थव्यवस्था की दिशा तय करना देशों का संप्रभु अधिकार है। मगर ट्रंप प्रशासन खुल कर इन मामलों में भारत सहित तमाम देशों को नीति और दिशा बता रहा है। इस क्रम में वह उन नियमों और कथित नियम आधारित विश्व व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रहा है, जिसे खुद अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद आकार दिया था। ये व्यवस्था भी अमेरिकी वर्चस्व के हित में काम करती रही है। मगर ग्लोबल साउथ- खासकर चीन के उदय ने कहानी बदल दी। तो अब ट्रंप प्रशासन दूसरे विश्व युद्ध के पहले के दौर में दुनिया को लौटाना चाहता है, जब साम्राज्यवादी लूट बेलगाम और बेपर्द थी।
लुटनिक ने लूटने के उसी नजरिए को खुलेआम जताया है। अगर भारत ने उनकी शर्तों को मंजूर किया, तो ऐसा आत्म-हानि का जोखिम उठाते हुए ही किया जाएगा। हथियारों की खरीदारी के मसले पर ध्यान दें। फरवरी में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वॉशिंगटन गए थे, तभी से यह चर्चा में है कि अमेरिका भारत पर अपने एफ-35 लड़ाकू विमानों की खरीदारी के लिए दबाव डाल रहा है। मगर ये ध्यान में रखना चाहिए कि हाल में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जो हथियार भारत के सर्वाधिक काम आए, वो ब्रह्मोस मिसाइलें और एस-400 इंटरसेप्टर हैं। इन दोनों का संबंध रूस से है।
लड़ाकू विमानों की खरीदारी के मामले में भारत को चयन अमेरिका के एफ-35 और रूस के सुखोई-57 के बीच करना है। रूस अपने विमान की तकनीक ट्रांसफर करने को भी तैयार है, जबकि अमेरिका ऐसा किसी के साथ नहीं करता। फिर पहले से भारत के पास रूसी हथियार प्रणालियां हैं, जिनकी वजह से वहां के हथियारों का यहां समन्वय बनना आसान होता है। रूस हर संकट के वक्त काम आया दोस्त है, मगर अमेरिकी दबाव में भारत सरकार पहले से ही वहां से हथियारों की खरीदारी घटाती चली गई है। इन आंकड़ों पर ध्यान दीजिएः
- 2010-14 के बीच भारत ने अपने 72 फीसदी हथियार रूस से खरीदे।
- 2015-19 में यह संख्या 55 प्रतिशत रह गई।
- 2020-24 में यह 36 फीसदी पर आ गई।
- और, अब अमेरिका का नया दबाव है!
इस ट्रेंड का असर अब रूस के नजरिए पर दिखने लगा है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान रूस ने तटस्थ रुख अपनाया। वह लगातार भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत पर जोर देता रहा। मध्यस्थता की पहल भी की। इस कार्रवाई के बाद जब भारतीय ससंदीय प्रतिनिधिमंडल ने रूस का दौरा किया, तो वहां उसकी मुलाकात उप-विदेश मंत्री एवं ड्यूमा (संसद) की विदेश मामलों संबंधी समिति के अध्यक्ष से हुई। जबकि उसके कुछ ही रोज बाद जब पाकिस्तान का दल वहां गया, तो उससे विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव मिले। मतलब समझा जा सकता है। (https://www.telegraphindia.com/world/pak-envoy-gives-sharifs-letter-to-putin-lavrov-urges-india-pak-direct-dialogue/cid/2105980)
दूसरी अहम बातः भारत ग्लोबल साउथ का हिस्सा है, जिसके बीच समन्वय का प्रभावी मंच आज ब्रिक्स है। क्या उससे अलग होना भारत के फायदे में होगा? जिस समय दुनिया भर के देश ब्रिक्स में शामिल होने की कतार में खड़े हैं, इस मंच के संस्थापक सदस्य भारत से अमेरिका इससे दूरी बनाने को कह रहा है!
जहां तक उपभोग केंद्रीयता की बात है, तो आम समझ यही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले ही इसका आधिक्य हो चुका है। भारत को जरूरत अधिक निवेश और उत्पादन की है। वरना अपने उपभोग को पूरा करने के लिए भारत की आयात पर निर्भरता बढ़ती जाएगी।
अब देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि नरेंद्र मोदी सरकार किस हद तक अमेरिकी दबाव में आती है। मगर उसे यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि विश्व समीकरण तेजी से बदल रहे हैं और अमेरिका की हैसियत अब वैसी नहीं रह गई है, जैसी कुछ वर्ष पहले तक होती थी। ट्रंप उस हैसियत को बहाल ज़रूर करना चाहते हैं, मगर अब तक उन्हें ज्यादातर मोर्चों पर निराशा ही हाथ लगी है।
बुधवार को ट्रंप ने अचानक रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर सवा घंटे तक बातचीत की। मकसद यूक्रेन पर रूस के संभावित भीषण हमलों को रोकना था। बीते शनिवार की रात यूक्रेन ने रूस के रणनीतिक ठिकानों पर जोरदार हमले किए थे। उसके बाद से चर्चा है कि रूस जवाबी हमलों की तैयारी में है। इन हालात ने ट्रंप प्रशासन की पहल पर चल रही शांति वार्ता को बेमतलब बना दिया है। बुधवार को ही ट्रंप से बातचीत के पहले यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेन्स्की की पुतिन से सीधी वार्ता की पेशकश के बारे में पूछे जाने पर रूसी राष्ट्रपति ने कहा था कि जब ‘यूक्रेन ने आतंकवाद का रास्ता पकड़ लिया है, तो अब बातचीत करने के लिए कुछ नहीं बचा।’
और ट्रंप से बातचीत में भी उनका शायद यही लहजा रहा। इसे खुद ट्रंप ने स्वीकार किया। अपने सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने बताया- ‘यह अच्छी बातचीत थी, लेकिन इससे तुरंत शांति की संभावना नहीं बन सकी। पुतिन ने कहा, और जोरदार ढंग से कहा, कि उन्हें हालिया हमलों का जवाब देना ही होगा।’ जब यूक्रेन पर बातचीत नहीं बनी, तो ट्रंप ने पुतिन से ईरान से चल रही परमाणु वार्ता में भूमिका निभाने की गुजारिश कर डाली।
गौरतलब है कि अमेरिकी दबाव को ठेंगा दिखाते हुए ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खोमेनई अपने सोशल मीडिया पोस्ट में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी भी सूरत में ईरान यूरेनियम के संवर्धन का काम नहीं रोकेगा। इसी कारण ट्रंप ने ईरान को मनाने की उम्मीद पुतिन से अब जोड़ी है।
उधर चीन के साथ व्यापार को संभालने की ट्रंप की मंशा भी बंद गली में पहुंच गई लगती है। ट्रंप ने यह कहते हुए भी कि वे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को बहुत पसंद करते हैं, मंगलवार को ये रहस्यमय टिप्पणी की- ‘शी बहुत सख्त हैं और उनसे डील करना बहुत कठिन है।’ इसके पहले अमेरिकी मीडिया में जोरदार चर्चा थी कि ट्रंप और शी के बीच शुक्रवार को वार्ता होने वाली है। लेकिन अगर ट्रंप- शी वार्ता हुई भी, तो उससे कुछ निकलने की संभावना नहीं है। व्यापार युद्ध अपना तर्क ग्रहण कर चुका है, जिसका समाधान एक फोन वार्ता से असंभव है।
निष्कर्ष यह है कि टकराव के हर बिंदु पर ट्रंप को निराशा हाथ लग रही है। क्यों? इसलिए कि ट्रंप के हाथ में वह ट्रंप कार्ड नहीं है, जो पहले अमेरिका के पास होता था। यह उसकी हैसियत में गिरावट की पुष्टि है। उस हाल में भारत सरकार उसके दबाव में आई, तो उसे इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)