Friday, April 26, 2024

पुण्यतिथि पर विशेष: “सरकार की भूमिका बिचौलिये की और सरकारी राजनेता बन जाएंगे कमीशनखोर एजेंट”

(आज कम्युनिस्ट आंदोलन के अप्रतिम योद्धा कॉमरेड विनोद मिश्र की पुण्यतिथि है। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में जिन कुछ नेताओं ने मार्क्सवाद के सिद्धांत को जमीनी परिस्थितियों से जोड़ने का सफल प्रयोग किया है उनमें विनोद मिश्र का नाम सबसे ऊपर आएगा। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर नक्सलबाड़ी आंदोलन में शामिल होने वाले विनोद मिश्र 22 सालों के भूमिगत जीवन के बाद जब बाहर आए तो उनकी शख्सियत किसी नायक से कम नहीं थी। बेहद कम सालों के अपने खुले राजनीतिक जीवन में उन्होंने तमाम बुर्जुआ नेताओं को भी अपनी दृष्टि और सोच का लोहा मनवा दिया था। एक समय ऐसा आया जब मध्यमार्गी दलों के शीर्ष नेताओं वीपी सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ उनकी रफ्त-जफ्त शुरू हो गयी थी। मौजूदा भारतीय राजनीति के आर्थिक और सांप्रदायिक संकट को विनोद मिश्र ने बहुत पहले ही पहचान लिया था। इसीलिए एक तरफ जहां वह सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ मुकम्मल लड़ाई के लिए संकल्पबद्ध थे। वहीं आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक प्रायोजित आर्थिक नीतियों के आसन्न संकट को वह खुली आंखों से देख रहे थे। लिहाजा दोनों मोर्चों पर उन्होंने लड़ाई के लिए कमर कस ली थी। पार्टी के स्तर पर भौतिक रूप से कमजोर होने के बावजूद अपनी बेजोड़ सैद्धांतिकी और दूरदृष्टि के चलते तमाम राजनीतिक शक्तियों की वह धुरी बन गए थे। उनका विजन कितना विशाल और सोच कितनी व्यापक थी तथा तत्कालीन परिस्थितियों पर उनकी पकड़ कितनी गहरी थी यह नीचे दिए जा रहे दोनों लेखों (एक टिप्पणी, एक लेख) को पढ़कर समझा जा सकता है। पहला लेख डंकल की प्रस्तावित नीतियों के खतरों पर केंद्रित है जबकि दूसरा देश को लेकर उनकी अद्भुत दृष्टि की झलक देता है-संपादक)

“भारत जैसे देशों के लिए जो डेवलपमेंट स्ट्रेटेजी है, उसमें बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन ऊपर से आर्थिक  प्रक्रिया को गाइड करेंगे और नीचे स्वयंसेवी संगठन वेलफेयर का काम हथियाते हुए जनता को वांछित आधुनिकीकरण के लिए तैयार करेंगे। सरकार की भूमिका एक बिचौलिए की हो जाएगी और सरकारी राजनेता ( और पार्टियां ) कमीशनखोर एजेंटों में तब्दील हो जाएंगे। यह नव-औपनिवेशीकरण की योजना है, जिसे हम लैटिन अमेरिका में देख चुके हैं।….अंत में मैं कहना चाहता हूं कि भारत को banana republic बनाने की कोशिश हुई, तो लड़ाकू Popular Fronts और गुरिल्ला सेनायें भी अधिक दूर नहीं होंगी।”

मेरे सपनों का भारत:

समाज क़ी जटिलताओं क़ी अभिव्यक्ति क़ी माध्यम राजनीति के अलावा मेरी दिलचस्पी का इलाका खगोलशास्त्र (कास्मोलोजी) है। जहां ब्रह्माण्ड अनंत दिक्काल में प्रकट होता है ; जहां आकाश गंगाएं ब्रह्माण्ड की सतत विलुप्त होती सरहदों में एक दूसरे से तेजी से दूर चली जाती हैं ; जहां तारे अस्तित्व में आते हैं, चमकते हैं और विस्फोट के साथ मृत्यु का वरण करते हैं और जहां एकदम सटीक रूप से गति, पदार्थ के अस्तित्व की प्रणाली है।

गति, अर्थात परिवर्तन और रूपांतर। हमेशा नीचे से ऊपर क़ी ओर। यही इंसानी अस्तित्व की भी प्रणाली है। कोई विचार अंतिम नहीं होता, कोई समाज पूर्ण नहीं होता। जब-जब किसी समाज को किसी अंतिम विचार का मूर्तरूप माना गया, तब तब गहराईयों से उठे भूकंप के झटकों ने उस समाज क़ी बुनियाद को झकझोर कर रख दिया। और तब, चहुंओर पसरी निराशा के घुप्प अंधेरे के बीच नए सपने खिलखिला उठे। कुछ सपने कभी सच नहीं होते, क्योंकि वे इंसानी दिमाग मात्र (in itself) की बेलगाम मौज होते हैं। जो थोड़े से सपने साकार होते हैं वे मूलतः इंसानी दिमाग की ‘अपने लिए’ (for itself) गढ़ी गयी निरपेक्ष कृतियाँ होते हैं।

मेरे सपनों का भारत निश्चय ही एक अखंड भारत है जहां एक पाकिस्तानी मुसलमान को अपनी जड़ें तलाशने के लिए किसी वीजा क़ी ज़रूरत न होगी। ऐसे ही किसी भारतीय के लिए महान सिन्धु घाटी सभ्यता विदेश नहीं रहेगी। जहां बंगाली हिन्दू शरणार्थी आखिरकार ढाका की कड़वी याददाश्त के आंसू पोंछ लेंगे और बांग्लादेशी मुसलमानों को विदेशी कहकर चूहों की तरह खदेड़ा नहीं जाएगा।

क्या मेरी आवाज भाजपा से मिलती जुलती लग रही है? पर भाजपा तो भारत के मुस्लिम पाकिस्तान और हिन्दू भारत, हालांकि यह उतना ‘विशुद्ध’ नहीं, के महा-बंटवारे पर फली-फूली। चूंकि भाजपा इस बंटवारे को विनाशकारी नतीजों के साथ चरम तक ले जा रही है, ठीक इसीलिये इन तीनों देशों में यकीनन ऐसे महान विचारक पैदा होंगे जो इन तीनों देशों के बन्धुत्वपूर्ण एकीकरण के लिए जनमत तैयार करेंगे। खैर रखिये, वो दिन भाजपा जैसी ताकतों के लिए क़यामत का दिन होगा।

मेरे सपनों के भारत में गंगा और कावेरी तथा ब्रह्मपुत्र तथा सिन्धु एक दूसरे से मुक्त मन से मिलेंगी और सुबह की रोशनी में महान भारतीय संगीत की जुगलबंदी के साथ छा जायेंगी। और तब, कोई नायक अपने विवरणों को ‘भारत की पुनर्खोज’ में संकलित करेगा।

मेरे सपनों का भारत राष्ट्रों के समुदाय में एक ऐसे देश के रूप में उभरेगा जिससे कमजोर से कमजोर पड़ोसी को भी डर नहीं लगेगा और जिसे दुनिया का ताकतवर से ताकतवर मुल्क भी धमका नहीं सकेगा और न ही ब्लैकमेल कर सकेगा। चाहे आर्थिक ताकत के मामले हों य ओलम्पिक पदक के, मेरा देश दुनिया के अव्वल पांच देशों में होगा।

मेरे सपनों का भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा, जिसकी आधारशिला ‘सर्वधर्म समभाव’ क़ी जगह ‘सर्वधर्म विवर्जिते’ के वसूल पर टिकी होगी। किसी की व्यक्तिगत धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप किये बगैर राज्य वैज्ञानिक और तार्किक विश्व दृष्टिकोण को बढ़ावा देगा।

यह कहना बिल्कुल माकूल है कि धर्म, अपने परिवेश के सामने इंसान की लाचारी की अभिव्यक्ति है। लिहाजा इसका उन्मूलन भौतिक और आध्यात्मिक जीवन दशाओं में आमूल तब्दीली की मांग करता है, जहां इंसान परिवेश को अपने वश में करने के लिए खड़ा हो सके। भारत में जब कभी अनुदार दार्शनिक विचार प्रणालियाँ अवाम पर पहाड़ की तरह लद गयीं, तब-तब यहाँ सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ है। ऐसे ही, मैं वैज्ञानिक विचारों के पुनरुत्थान का सपना देखता हूं, जहां भगवान के रूप में पराई बन गयी आदमियत को इंसान फिर से हासिल कर सकेगा। इंसानी दिमाग के इस महान रूपांतरण के साथ-साथ एक सामाजिक क्रान्ति होगी, जहां संपत्ति के उत्पादक, अपने उत्पादों के मालिक भी होंगे।

मेरे सपनों के भारत में अछूतों को हरिजन कहकर गौरवान्वित करने का अंत हो जाएगा और दलित नाम की श्रेणी नहीं रहेगी। जातियां विघटित होकर वर्गों का रूप ले लेंगी और उनके हर सदस्य की अपनी व्यक्तिगत पहचान होगी।

मेरे सपनों के देश भारत के हर शहर में एक कॉफी हाउस होगा जहां ठंडी कॉफी की घूंटों के साथ बुद्धिजीवी गर्मागर्म बहस करेंगे। वहां कुछ विरही जन धुएं के छल्लों में अपनी प्यारियों के अक्स तलाशेंगे तो कई अतृप्त ह्रदय कला और साहित्य की विविध रचनाओं से मंत्रमुग्ध हो उठेंगे। तब कला और साहित्य की किसी रचना पर राज्य की ओर से कोई सेंसर न होगा। तमाम सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान सख्ती से मना होगा- बेशक- कॉफी हाउसों को छोड़कर।

शुरुआती बात पर लौटते हुए कहूं तो मेरा सपना है कि भारतीय अंतरिक्ष यान गहरे आकाश को भेदता हुआ उड़ेगा और भारतीय वैज्ञानिक-गणितज्ञ प्रकृति की मौलिक शक्तियों को एक अखंड में समेटने के समीकरण हल करेंगे।

अंततः, मेरे सपनों की मां मातृभूमि है, जिसके हर नागरिक की राजनीतिक मुक्ति सबसे ज्यादा कीमती होगी। वहां असहमति की वैधता होगी और थ्येन आनमेन चौक जैसी घटनाओं को नैतिक रूप से शक्तिशाली नेता और जनमिलीशिया की निहत्थी शक्तियां निपटाएंगी।

मेरे सपनों का भारत भारतीय समाज में कार्यरत बुनियादी प्रक्रियाओं पर आधारित है जिसे साकार करने के लिए मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने अपने खून की आखिरी बूंद तक बहाने की शपथ ले रखी है।

लेख को इस लिंक पर जा कर सुना भी जा सकता है-

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