Saturday, April 20, 2024

कृषक चेतना के अनूठे कवि : केदारनाथ अग्रवाल

बकौल खुद – ‘मेरा विश्वास है कि कथ्य और शिल्प अलग नहीं है। दोनों की सांघातिक इकाई एक है। उसे तोड़ा नहीं जा सकता। कालिदास और वाल्मीकि को पढ़ते हुए भी मुझे यह बात महसूस हुई है। इन कवियों ने यह भी सिखाया कि छोटे छोटे बन्दों में कितनी बंधी हुई, धारदार बातें कही जा सकती हैं। मैंने ऐसी कविताएं लिखने की सोची कि दुश्मन भी एक बार प्रशंसा करें।

रामविलास मेरे मित्र रहे हैं, उनसे बातें होती थीं। वे कविता पर बात करते हुए कटु आलोचक हो जाते थे। निराला मुझे बेहद प्रिय थे। वे न होते तो खड़ी बोली कविता क्या होती। मैंने मिल्टन और कीट्स की कविताएं भी पसंद की है। मेरी शिकायत आलोचकों से रही है। उन्होंने मेरी कविता को समझने की कोशिश नहीं की, प्रगतिशील आलोचकों ने भी। नामवर ने भी जाने किस किस को उठाया, हमारी ओर उनका ध्यान नहीं गया। किसी खेमे ने मुझे महत्व नहीं दिया। मैंने पार्टी की सदस्यता कभी ग्रहण नहीं की, अपनी मजबूरियों के कारण। मैंने सोचा कि नारे की कविताएं हमेशा नहीं लिखी जानी चाहिये। जब सामूहिक आन्दोलन जोरों पर हो, तब की बात छोड़कर। उस समय हमने भी लिखा और आगे लिखेंगे।

अभी हमें हिन्दी साहित्य को प्रगतिशील कविताओं से भरना है और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ानी है। हमें दुश्मन को बौद्धिक जवाब देना है। जवाब देने से पूर्व एक बात अच्छी तरह से समझ लेने की है कि संसार में यदि जिन्दा रहना, तो प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। यथास्थिति में परिवर्तन ना आया तो अलंदे और मुक्तिबोध मरते ही रहेंगे। हम लेखकों को प्रतिबद्ध रचनाएं लिखनी चाहिये- खतरे के बावजूद।

कबीर, रैदास छोटे तबके के लोग थे, चिंतक जागरूक। उन्होने भण्डाफोड़ किया व्यवस्था का। निराला ने यही किया। हमें कला का उपयोग व्यवस्था बदलने, लोगों की मानसिकता बदलने के लिए करना है। हमारे जवाब का यही रास्ता है। मैं सोचता हूं कि जब तक जिन्दा रहूं जब तक मौत न आए, जब तक जिऊं, उसका उपयोग करूं। मैं अपना विकास पाने के लिए बैचेन हूं। मुझे जीने का अर्थ, वेद में, उपनिषद में, कहीं नहीं मिला, मिला तो प्रतिबद्धता में। इससे घबराने की जरूरत नहीं। पैब्लो नैरूदा, मॉयकोब्सकी, नाजिम हिकमत की तरह जीने की जरूरत है । यही जिन्दगी का राज है और इसी से कविता बनती है।’

अतः उपरोक्त कथन के संदर्भ में हम यह देख सकते हैं कि सामान्यतया, समकालीन कविता अपने पाठक को साथ लेकर नहीं चल पाती। अपने पाठक से वह दिल से ज्यादा दिमाग का रिश्ता बनाने का प्रयास करती है किन्तु केदार जी ने कविता को अपने पाठक के हृदय के जितना नजदीक किया है, उतना शायद ही कोई अन्य कवि कर पाया हो।

आजादी की लड़ाई के उन उथल-पुथल भरे बरसों में उनकी कविता में सामंतवाद के विरूद्ध भारतीय किसान के संघर्ष का उद्घोष भी है और ब्रिटिश पूंजीवादी हितों के साथ नाभिनालबद्ध राष्ट्रीय नेताओं पर व्यंग्य भी। केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक दूरदर्शिता यहां देखी जा सकती है कि 1947 की आजादी को सत्ता हस्तांतरण मानने की जो समझ प्रलेस की एक दशक बाद बनी उसकी ओर संकेत उन्होंने 46 में ही कर दिया था- लन्दन गए-लौट आए/बोलो,आजादी लाए?/नकली मिली है कि असली मिली है?/कितनी दलाली में कितनी मिली है ? आजादी के बाद अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद का नवस्वाधीन देशों पर मंडराता कर्ज का मायाजाल हो, प्रशासकों- पूंजीपतियों- नेताओं का गठजोड़ हो या देश में घटित राजनीतिक मोड़- उदाहरणार्थ आपातकाल, हो, केदार की कलम सभी मुद्दों पर चली।

यूं तो केदारनाथ अग्रवाल ने 1946 के नौसैनिक विद्रोह, अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरूद्ध वियतनाम की जनता के संघर्ष, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम से लेकर डॉलर के बढ़ते वर्चस्व तक सभी वैश्विक मुद्दों पर कविताएं लिखीं किन्तु मूलत: और अंतत: उनकी कविता बुंदेलखंड के किसान का जयगान है। अपनी जमीन से गहरे जुड़ाव के चलते उन्होंने बुन्देलखंडी किसान की अटूट संघर्ष क्षमता का रेखांकन भी किया और उसके वर्गीय हितों की रक्षा के लिए उठ खड़े होने और संगठित होने का आह्वान भी-काटो काटो काटो कर्बी/मारो मारो मारो हंसिया /हिंसा और अहिंसा क्या है/जीवन से बढ़ हिंसा क्या है।

शमशेर ने केदारनाथ अग्रवाल के लिए लिखा था कि केदार बुनियादी तौर पर एक नार्मल रोमानी कवि हैं, छायावादी रोमानी नहीं। संभवत: यह उनकी कविता के बारे में सर्वाधिक सटीक टिप्पणी है। सबसे पहले कही बात से इसे जोड़ें तो -छायावाद का अंत रूमानियत का अंत नहीं था, हां यह जरूर था कि छायावादी रूमानियत जिस स्व के दायरे में जकड़ी हुई थी उसे इस वायवीयता से मुक्त करके केदारनाथ अग्रवाल ने उसमें सचेत और सायास वर्गीय चेतना का समावेश किया। केदारजी की प्रकृति केन्द्रित कविताओं में सदा ही प्रतीकों को निर्बल के पक्ष में प्रस्तुत कर कविता को वर्गीय धार दे देने की समझदारी रही है ,मसलन- एक बित्ते के बराबर /यह हरा ठिगना चना/बांधे मुरैठा शीश पर/छोटे गुलाबी फूल का/सजाकर खड़ा है, या फिर – तेज धार का कर्मठ पानी/चट्टानों के ऊपर चढ़कर मार रहा है घूंसे कसकर /तोड़ रहा है तट चट्टानी।

केदार जी का सारा जीवन बुन्देलखण्ड जनपद के बांदा कस्बे में व्यतीत हुआ। यहीं का लोकजीवन एवं प्रकृति का सौंदर्य उनकी कविता का विषय रहे। स्थानीयता उनकी काव्य रचना की आधारभूमि रही किन्तु उसे रचना में बदला उनकी विश्वदृष्टि ने। विश्वदृष्टि और स्थानीयता का अद्भुत सामंजस्य उनको सृजन की जितनी निजता, मौलिकता, प्रामाणिकता, गहराई और विस्तार देता है, उतनी ही ऊंचाई, उदात्तता और व्यापकता भी।

केदार जी की भाषा हिंदी के उस प्रचलित रूप के आस-पास चलती है जिसे भारत का आम़ हिंदी भाषी बोलता और समझता है। उन्होंने अपनी काव्य-भाषा के माध्यम से भी कबीर, तुलसी, प्रेमचंद और निराला की लोकवादी परंपरा को आगे बढ़ाया है। उनकी भाषा लोक प्रचलित जन भाषा है। केदार ने तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशी-अंग्रेजी, अरबी, फ़ारसी शब्दों का प्रयोग किया है। अतः भाषा के शिल्प का जहाँ तक तात्पर्य है- तो शब्द चयन के स्तर पर वे किसी वाद के आग्रही नहीं हैं। वे उन शब्दों का चयन करते हैं जो लोक संवेदना को प्रकट करने में सहजतः सक्षम हैं। काव्य शिल्प मुक्त छंद है। परंतु लय, गीत और बिंब विधान की बहुलता पायी जाती है। पूरी कविता में एक ऐसी सरिता का मंथर प्रवाह देखने को मिलता है जो पूरे काव्य को गीला किए हुए दोनों तटों से बांधे रहता है।

केदार की भाषा कभी एकदम सीधी-सहज, तो कभी बिंबधर्मी हो उठती है। किंतु शब्दों के चयन की कुशलता आर्थात कम से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह देने में वे निराला या शमशेर की तरह निपुण हैं। केदार की कविता की पंक्तियों में एक एहसास भरा होता है। शमशेर पर लिखा एक कभी न भूला पाने वाला शब्द-चित्र देखें- शमशेर – मेरा दोस्त

चलता चला जा रहा है अकेला

कंधे पर लिए नदी

मूंड पर धरे नाव।

केदार ने कविता को उस चरम लय तक पहुँचाने का सपना देखा था जिसमें कवि स्वयं लय हो जाय-

जैसा कोई सितारिया द्रुत सितारा को बजाए

लय में पहुँच कर वह स्वयं लय हो जाय

फिर न वह सितारा को बजाय

चलता हाथ ही बजाय।

केदार बाबू के काव्य की भाषा बिंबात्मक गतिशीलता लिए हुए है, इस ‘संवेगीय-चित्र-भाष- क्षमता’ के कारण पूरा कविता-विधान ‘जीती हुई जिंद़गी’ ज़ान पड़ती है-

दिन हिरण सा चौकसी भर के चला

धूप की चादर सिमटकर खो गई,

खेत घर वन गाँव का

दर्पन किसी मोड़ डाला

शाम की सोना चिरैया

निड़ में जा सो गई।

कहा जा सकता है कि केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं न केवल अपने कथ्य में अनूठी है, वरन भाषा और शिल्प-रचना में भी अनूठी हैं। कथ्य और भाषा व शिल्प के स्तर पर केदारनाथ अग्रवाल लोकधर्मी-संवेदना के कवि हैं एवं उनके काव्य में लोक-संवेदना व्यक्त हुई है। केदार जी की मान्यता रही है कि किसी कवि के हृदय में कविता, पहले से रची हुई कृति नहीं होती। रचना के लिए कवि को अपना इंद्रिय जगत खुला एवं सजग रखना पड़ता है। इंद्रियबोध से वह बहिर्जगत का ज्ञान प्राप्त करता है और यही ज्ञान जब कवि को संवेदित करते हुए अपने समय के प्रति सजग करता है, तो कविता का सृजन संभव होता है।

केदार जी की कविता के बारे में उनके मित्र कवि शमशेर बहादुर सिंह की राय रही है कि ‘उनकी कविताओं में किसी तरह का उलझाव नहीं होता, बनावट नहीं होती और अभिव्यक्ति में हिचक या कमजोरी नहीं होती।’ उनकी आरंभिक कविताओं का पहला संकलन मार्च 1947 ई. में मुंबई से ‘युग की गंगा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसमें उस समय के गरीब किसान, मजदूर और नौजवान न केवल अपने जीवन की त्रासदियों से अपने पाठक को परिचित कराते है बल्कि उनके भीतर का साहस, संघर्ष-क्षमता और दुख-दर्दो को जीतने वाली अदम्य शक्ति से भी यहां हमारा परिचय होता है। केदार जी के यहां नदी ने केंद्रीय स्थान प्राप्त कर जीवन के समानान्तर उसके महारूपक रचे हैं। उन्होंने अपने युग को गंगा के प्रवाह के रूप में देखा। कदाचित इसीलिए पहले संग्रह का नाम दिया- ‘युग की गंगा’। जिसे मानवीकृत करते हुए उसका केंद्रीय बिम्ब चट्टानों को तोड़ने वाली नदी के रूप में लाते हैं। यह उनका अपनी केन नदी के प्रवाह का अनुभव है, जो पाषाणों के बीच में बहती है।

युग की गंगा/ पाषाणों पर दौड़ेगी ही;

लम्बी, ऊंची/ सब प्राचीन डुबायेगी ही;

नयी बस्तियां/ शान्ति-निकेतन/ नव संसार बसायेगी ही।

केदार जी ने बाह्य सौंदर्य के स्थान पर उस आंतरिक गतिकी को पकड़ा है, जो ‘दौड़ेगी’, ‘तोड़ेगी’, ‘डुबोयेगी’ और ‘बसायेगी’ जैसी बहुआयामी जीवन-क्रियाओं से एक कालजयी रूपक को रचती है। यह वह समय था, जब देश की जनता साम्राज्यवादी औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ रही थी। केदार का कवि उस लड़ाई में सामान्य जन के साथ था। कहना न होगा कि वह जीवन-पर्यन्त उसी सामान्य जन की भावनाओं, आकांक्षाओं और उसके संघर्ष एवं साहस को वाणी देता रहा। उनके कई साथी कवियों ने अपना मार्ग और उसकी दिशा बदल ली होगी, लेकिन केदार जी अपने नागार्जुन, त्रिलोचन सरीखे कवि-मित्रों के साथ अपने उसी किसानी मार्ग पर अडिग भाव से चलते रहे। 1947 में उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह ‘नींद के बादल’ मुम्बई से ही प्रकाशित हुआ।

तीसरा संग्रह 1957 में ‘लोक और आलोक’ शीर्षक से इलाहाबाद से छपा, जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा- ”कवितायी न मैंने पायी, न चुरायी। इसे मैंने जीवन जोतकर, किसान की तरह बोया और काटा है। यह मेरी अपनी है और मुझे प्राण से अधिक प्यारी है।” उन्होंने अपने मन की बात को व्यक्त करते हुए लिखा है कि यदि वे काव्य सृजन और पठन के रास्ते पर नहीं चलते, तो ”लक्ष्मी के वाहन बनकर कम पढ़े मूढ़ महाजन होते, जो अपने जीवन का एकमात्र ध्येय कागज के नोटों का संचय करने को बना लेता है।” यह कविता ही थी, जिसने ”मुझे इस योग्य बनाया कि मैं जीवन-निर्वाह के लिए उसी हद तक अर्थार्जन करूं, जिस हद तक आदमी बना रह सकता हूं।”

इतना ही नहीं, उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि वे दूसरों की कविताएं पढ़ते-पढ़ते और उनसे सीखते हुए अपनी मंजिल तक पहुंचे हैं। इस मामले में उनकी समझ बहुत साफ रही है कि काव्य-सृजन में न तो वे आत्मद्रष्टा है, न दिव्यद्रष्टा। उन्होंने सबसे पहले इस संसार के संबंधों के रहस्य को दूसरों की आंखों से देख-देखकर ही समझा-बूझा है। वे अपनी इसी समझ से प्रयोगवादी अभिव्यंजना के उस अलाव से दूर रहे, जो कवि को आत्मकेंद्रित कर केवल अवचेतन की आग में झोंक देता है। यह सही है कि सृजनकारी व्यक्तित्व का निर्माण रचनाकार की आत्मपरकता के बिना संभव नहीं होता, किन्तु केदार जी सरीखे कवि का व्यक्तित्व इस बात का प्रमाण है कि बिना वस्तुपरक दृष्टि और जीवनानुभवों के, सर्जक की आत्मपरकता एक अंधे चक्रव्यूह में भटकते रहने को अभिशप्त होती है।

केदारनाथ अग्रवाल ग्रामीण परिवेश एवं लोक संवेदना के कवि हैं। उनके मन में सामान्य जन के मंगल की भावना विद्यमान है। उनकी रचना का केंद्र-बिंदु सर्वहारा, किसान और मज़दूर हैं। उसे क्रांति के लिए जगाना और प्रेरित करना कवि का उद्देश्य रहा है। बूर्ज्वा धारणओं, पाखंडी और कर्मकांडीय विश्वासों, अंधभक्ति व अंधविश्वासों एवं अतार्किक धारणाओं आदि से लोगों को मुक्त करना अनिवार्य है अन्यथा गाँवों का विकास तथा ग्रामीणों में सचेतना व संवेग आना संभव नहीं है। सचेतना व संवेग के बिना गाँव एवं लोक का विकास संभव नहीं है। इस लिए कवि स्वयं मोर्चे पर खड़ा हो कर कहता है-

मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोर्चे पर

मैं अचेतन और चेतन सभी पर

वार करता जा रहा हूँ व्यक्तिवादी

सभ्यता को ध्वंस बिल्कुल कर रह हूँ।

केदार जी की कविता ग्रामीण परिवेश और लोक जीवन में गहराई से धंसी हुई है। उनकी कविता उसे जगाने के लिए लिखी गई है, जिसे हम रोज देखते हैं, जो खूब जाना-पहचाना है- वह हम सफर, दोस्त, भाई, भाई का भाई, पड़ोसी है जो खेत, खलिहान और दुकान में काम करता है। उसी को जगाना चाहता हैं। क्योंकि वही इस देश की असली सभ्यता एवं संस्कृति की संवेदना का आजतक वाहक बना हुआ है। केदारनाथ लोकधर्मी कवि है और ग्रामीण परिवेश एवं लोक संवेदना उनके काव्य गीतों में रचा-बसा पड़ा है-

हम लेखक हैं कथाकार हैं

हम जीवन के भाष्यकार हैं

हम कवि हैं जनवादी ।

हम सृष्टा हैं

श्रम साधन के

मुदमंगल के उत्पादन के

हम द्रष्टा हितवादी हैं।

केदारनाथ अग्रवाल स्वंय को बड़ा भाग्यवान मानते हुए देश की चिरकालिक लोकधर्मी परंपरा से जोड़ते हुए कहते हैं-

चाँद, सूर, तुलसी, कबीर के

संतों के हरिचंद वीर के

हम वंशज बड़भागी।

शयद इसी बड़ी परंपरा से जुड़े होने का बड़प्पन ‘समय की धार में धंसकर खड़े’ इस कवि से सहज ही कहलवा देता है-

मैं हूँ अनास्था पर लिखा

आस्था का शिलालेख

…… मृत्यु पर जीवन के जय की घोषणा।

कवि किसानों की साधनहीनता, विवशता और शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष की चेतना को किसान की लहलहाती फसलों के द्वारा प्रकट करता है-

आर-पार चौड़े खेतों में चारों ओर दिशाएं घेरे

लाखों की अगणित संख्या में

ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है।

वास्तव में कवि केदारनाथ की रचनाएं गाँव के जीवन और गाँव में रहनेवालों की संवेदना को बुलंद करती हैं।

केदार जी ने प्रकृति और उसके सौंदर्य को अपनी कविता में प्रमुख स्थान दिया है। लेकिन उनका प्रकृति-चित्रण, केवल परम्परा-निर्वाह के रूप में न होकर अपने समय की दृष्टि से सृजित किया हुआ है। वह उनके अपने समय का प्रकृति-चित्रण है। इस तरह, वे इस क्षेत्र में भी परम्परा को नवीनता प्रदान करते हैं। उनके लिए केन नदी का सौंदर्य एक परम्परा भी है और नवीनता भी। युग-सापेक्षता उनकी काव्य-दृष्टि का महत्वपूर्ण आयाम रहा है, किन्तु उसकी नींव में, मनुष्यता का वह सबसे निचला सोपान है, जो युग-युगों तक उसकी कड़ी को विस्तार देता रहेगा। वह अपने युग की कविता लिखकर भी केवल अपने समय की सीमा में नहीं बंधे रहते। वे उसका अतिक्रमण करते है और उसके उस मूल को पकड़ते हैं, जो भावी युगों तक कविता और मनुष्यता दोनों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बना रहेगा।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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