Thursday, March 28, 2024

पश्चिम बंगाल: सरकार व्यस्त है गोबर जमा करने में, कला के चितेरे भूखों मर रहे

इस बार सोशल मीडिया पर कोलकाता के शोभा बाजार स्थित कुमारटुली (कुमोरटुली) के मूर्तिकारों के लिए लोगों से अनुदान मांगने का एक वीडियो तैर रहा है। कोरोना संक्रमण के कारण राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और बंगाल सहित आस-पड़ोस के राज्यों में सार्वजनिक दुर्गा पूजा पर आंशिक अथवा पूर्ण रोक के कारण मूर्तियों की बिक्री पर 50 फीसदी से अधिक गिरावट के कारण वहां के मूर्तिकार भी बाकी करोड़ों मजदूरों की तरह भुखमरी से जूझ रहे हैं। कुमारटुली में करीब 300 स्टूडियो में 1000 से अधिक लोग काम करते हैं।

यहां मूर्ति बनाने का काम करीब 150 वर्षों से चल रहा है और कुमारटुली अपनी सुंदर और भव्य मूर्तियों के लिए सिर्फ बंगाल या भारत में ही नहीं विश्व में भी अपनी पहचान रखता है। सामान्य समय में यूरोप और अन्य देशों से भी यहां मूर्तियों के लिए ऑर्डर आते थे, किंतु आज वहां के मूर्तिकार दाने-दाने को मोहताज हैं।

बंगाल में कुम्हार बस्ती को पालपाड़ा कहा जाता है। मिट्टी छोटी मूर्ति, खिलौनों को बांग्ला में पुतुल कहा जाता है। एक समय था जब बंगाल में मिट्टी से बने बर्तन, खिलौने आदि का व्यापार साल भर होता था। मेले और त्योहारों में यह कारोबार तेज हो जाता था। इसके अलावा बंगाल में हर एक पूजा के लिए मिट्टी और धान के पुआल से बनी मूर्तियों का बहुत चलन रहा है। दुर्गापूजा और काली पूजा के बाद सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा और विश्वकर्मा पूजा में भी मूर्तियों की खूब बिक्री होती थी।

गांवों में पशुओं के चारे के लिए मिट्टी से बने बड़े टब खूब बिकते थे। एक समय वह भी था जब मिट्टी की प्याली में ही चाय पी जाती थी और रसगुल्ले मिट्टी के भांड़ में पैक होते थे। गांव के हर घर में पीने का पानी मटकों में रहता था। प्लास्टिक बोतल, डिस्पोजल की क्रांति ने आधे से अधिक कुम्हारों को बहुत पहले ही बेरोजगार कर दिया था। अब न चाक बचा है न ही कुम्हार की पहचान।

प्रधानमंत्री मोदी ने देश के श्रमिकों को जब से विश्वकर्मा कह कर संबोधित किया तब से उनका क्या हाल और हालात हुए यह कहने की ज़रूरत है क्या? कुम्हार हों या बुनकर, मजदूर हों या ‘अन्नदाता’ यानि किसान सब बर्बादी के मुहाने पर खड़े हैं। लाखों ने तो आत्महत्या कर ली है। पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और बाकी कसर इस कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने पूरा कर दिया है।

राजधानी दिल्ली के मालवीय नगर में खिड़की गांव में मिट्टी के बर्तन और अन्य सजावट की वस्तुओं का एक बाज़ार लगता था, उसी तरह दिल्ली के कुछ और जगहों पर भी फुटपाथ पर मिट्टी के बने सामान बिकते थे। शायद अब भी बिकते हों! दिल्ली हाट में भी स्टाल लगता है, किंतु महानगरों में अमीर लोग शौकिया तौर पर अपने सुंदर घर को सजाने के लिए कुछ मिट्टी की बनी चीजें खरीदते हैं या फिर वर्तमान प्रधान की अपील पर अयोध्या में राम जी के आगमन की ख़ुशी में ही कुछ दिए बहुत मोलभाव के बाद खरीद कर अंधेरा भगाते हैं!

बीते वर्ष अयोध्या में 133 करोड़ रुपये के दीये जलाने के बाद बने विश्व रिकॉर्ड और उसके बाद उन्हीं जले हुए दीयों में बचे तेल को संचित करती हुई एक गरीब बच्ची की तस्वीर याद है आपको? राम-सीता और लक्ष्मण का हेलिकॉप्टर से उतरना और राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा उनके स्वागत की भव्य तस्वीर तो याद होगी! लाखों रुपये खर्च कर कावड़ियों पर हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा को ही याद कर लीजए।

उसके बाद लॉकडाउन में सड़कों पर चलते मजदूर और उनके मासूम बच्चों का चेहरा भी एक बार याद कीजिए। देश के प्रधानमंत्री द्वारा सफाईकर्मियों के पैर धोने की तस्वीर को याद कीजिए और फिर नालियों की सफाई करते हुए देश में हुई सफाईकर्मियों की मौत के आंकड़ों पर एक नज़र डाल लीजिए मन करे तो!

दरअसल कोलकाता के मूर्तिकारों के बहाने से जो बात शुरू हुई थी वह कहानी बहुत लम्बी हैं। इस कहानी में भूख, यंत्रणा और मौत की हृदयविदारक सैकड़ों किस्से और तस्वीरें शामिल हैं।

कोरोना और अविवेकपूर्ण लॉकडाउन के फैसले से महामारी के फैलाव में कोई कमी तो नहीं आई, किन्तु करोड़ों बेरोजगार हो गए और हजारों की मौत हो गई। संक्रमण का फैलाव आज भी तेजी से जारी है और रोज सैकड़ों मौतें हो रही हैं। मेट्रो स्टेशन, रेलवे स्टेशन और स्कूल- कॉलेजों के बाहर साईकिल, रेहड़ी लगाकर जीवन चलाने वाले गायब हो गए हैं। मेरी गली में साइकिल पर सोनपापड़ी बेचने वाला गायब है। गायब है कचौड़ी वाला भी।

सरकारें किसानों से अनाज खरीदने से अधिक गोबर खरीदने में व्यस्त हैं। उपले, दीये और हवन सामग्री तो ऑनलाइन भी बिक रही है! इन सबसे बहुत पहले कितने घुमंतू जनजातियां गायब हो गई हैं, इसकी जानकारी भी नहीं है सरकार के पास। आपको पता है क्या? गली में सांप, बंदर आदि का खेल दिखा कर जीने वाले लोग आज कहीं दिखते हैं आपको? शायद मेनका गांधी के पास कोई जानकारी उपलब्ध हो। कभी पता कीजिएगा वे कहां गायब हो गए?

(लेखक कवि और पत्रकार हैं। आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles