Friday, March 29, 2024

हिंदी पट्टी: वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तात्मक संस्कृति का ह्रदयस्थल

हिंदी पट्टी को आर्यावर्त और गाय पट्टी के रूप में भी जाना जाता है। इसका भौगोलिक विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश तक फैला हुआ है। चारो तरफ व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, हद्य विदारकर भूखमरी की खबरें और रोजी-रोजी के लिए बड़े पैमाने पर देश से बाहर या देश के अन्य हिस्सों में पलायन इसकी  आर्थिक पहचान बनी हुई हैं, करीब सभी पैमाने पर आर्थिक बदहाली के चलते इन्हें बीमारू राज्य भी कहा जाता है, मानव विकास सूचकांक के सभी पैमाने पर हिंदी पट्टी भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बदहाल हिस्सा है। सरकारी एवं गैर सरकारी (राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय) एजेंसियों के आंकड़े बरस-दर-बरस इसकी पुष्टी करते रहते हैं, औद्योगिकरण के मामले में पूरी हिंदी पट्टी पिछड़ी हुई है। हालांकि आर्थिक मामले में हिमाचल प्रदेश और कुछ हद तक हरियाणा  जैसे अपवाद भी हैं।  उत्तर प्रदेश के भीतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसा सापेक्षिक तौर पर समृद्ध आर्थिक क्षेत्र भी, लेकिन इसकी भी समृद्धि कृषि आधारित अधिक है, उद्योग-धंधे आधारित कम । बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था इस पूरी पट्टी की एक मुख्य पहचान है। मध्यकालीन कृषि आधारित पिछड़ी अर्थव्यवस्था और उत्पादन संबंध आज भी इसके बहुलांश हिस्से की मुख्य विशेषता बनी हुई है।

हिंदी पट्टी की घनी जनसंख्या और भारत में जनसंख्या आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था के चलते भारत के अन्य हिस्सों पर इसका राजनीतिक वर्चस्व एवं प्रभुत्व है। जनसंख्या आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की यह व्यवस्था हिंदी पट्टी को लोकसभा और राज्यसभा दोनों में वर्चस्व और प्रभुत्व की स्थिति में ला देती है और राष्ट्रपति के चुनाव में भी इस पट्टी की सबसे निर्णायक भूमिका होती है। हिंदी पट्टी के सिर्फ चार राज्य उत्तर प्रदेश (80), बिहार (40), मध्यप्रदेश (29) और राजस्थान (25) की कुल सीटें 174 हैं, जो लोकसभा की कुल सीटों 543 की एक तिहाई हैं, सिर्फ हिंदी पट्टी के राज्यों की लोकसभा में बहुलांश सीटें जीतकर कोई पार्टी केंद्रीय सत्ता का दावेदार बन सकती है, भले ही दक्षिण के राज्यों में उसे बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा हो। इसका हालिया उदाहरण भाजपा है। भाजपा की केंद्रीय सत्ता की रीढ़ हिंदी पट्टी बना हुआ है, तमिलानाडु, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में उसे 2014 और 2019 के दोनों लोकसभा चुनावों भाजपा को  बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा। लोकसभा और राज्यसभा में हिंदी पट्टी का वर्चस्व यानि शासन-सत्ता पर नियंत्रण पूरे भारत की दशा- दिशा तय करता है। भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र का पूरा ढांचा ऐसा है कि दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर और एक हद तक पश्चिमी भारत को किनारे लगाकर भी कोई पार्टी सिर्फ हिंदी पट्टी के दम पर पूरे भारत पर शासन कर सकती है। पूरे भारत पर हिंदी पट्टी का यह राजनीतिक वर्चस्व इस पट्टी के वैचारिक-सांस्कृति मूल्यों को भी पूरे भारत पर थोपने की स्थिति पैदा करता है और अक्सर इसे थोपा भी जाता है।

सामाजिक तौर पर हिंदी पट्टी भारत के सबसे पतनशील सांस्कृतिक-वैचारिक मूल्यों का गढ़ है-  वर्ण-जाति और पितृसत्ता आधारित मध्यकाली बर्बर सांस्कृति-वैचारिक मूल्य इस पट्टी के रीढ़ है, जो यहां के जीवन के सभी रूपों में पग-पग पर दिखाई देते हैं। यहां की आम जनता ही नहीं, बौद्धिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलनों की अगुवाई करने वाला बहुलांश हिस्सा यानि इस पट्टी का बौद्धिक वर्ग वर्ण-जाति और पितृसत्ता के कीचड़ में धंसा हुआ है और जाने-अनजाने इन्हीं मूल्यों-विचारों को पल्लवित-पुष्पित करता है। हिंदी पट्टी का वामपंथी वैचारिक-सांस्कृति और साहित्यिक आंदोलन भी  इस दायरे से बाहर नहीं निकल पाया। राहुल सांकृत्यायन जैसे एकाध अपवादों को छोड़कर। यहां के विश्वविद्यालयों और अकादमिक-शैक्षिक जगत के अन्य केंद्रों में जातिवादी और पितृसत्ता मूल्यों के वाहकों का बोलबाला है, यहां  वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का नंगा नाच  कदम-कदम पर दिखाई देता है। अब यह पूरी पट्टी मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और हिंसा का केंद्र बनती जा रही है।

हिंदी पट्टी को समझने के लिए इस पट्टी के जीवन को संचालित करने वाली संस्कृति ( जीवन मूल्यों) का जायजा लेना जरूरी है। हिंदी पट्टी की प्रभावी संस्कृति को हिंदू संस्कृतिक,आर्य संस्कृति, वैदिक-सनातन संस्कृति, द्विज संस्कृति और ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृत आदि नामों से भी जाना जाता है।इसे संस्कृति को  ‘सामन्ती संस्कृति’ भी कहा जाता हैं। इसको इसके असली देशी नाम से पुकारा जाना चाहिए जो इसके अन्तर्य एवं रूप को ठीक-ठीक प्रकट करता है और वह नाम है वर्ण-जातिवादी संस्कृति।इस संस्कृति के गौरव-ग्रन्थ आदिकवि वाल्मीकि के रामायण से लेकर तुलसीदास का रामचरितमानस तक हैं। वेद, पुराण, स्मृतियां, संहिताएं इसके पूजनीय ग्रन्थ हैं। ये सभी वर्ण-जाति व्यवस्था का गुणगान करते हैं। वेदों के रचयिता तथाकथित ऋषियों से लेकर स्मृतियों के रचयिता गौतम, मनु, नारद, याज्ञवल्क्य, कौटिल्य तथा शंकराचार्य इसके महान पूजनीय नायक हैं। ये सभी भी वर्ण-जाति के पोषण हैं कहा जाता है कि जब-जब इस संस्कृति ( वर्ण-जाति व्यवस्था) को कोई खतरा पैदा हुआ है, स्वयं ईश्वर ने अवतार लेकर (राम एवं कृष्ण आदि) इसकी वर्ण-जाति व्यवस्था की रक्षा की है। आधुनिक युग में तिलक, गांधी और भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने भी इसी संस्कृति की मूलत: पैरोकारी की ।  गांधी का आदर्श रामराज्य इस संस्कृति पर टिका हुआ है।

हिंदी पट्टी की प्रभावी हिंदू संस्कृति का  बुनियादी लक्षण है कि हर व्यक्ति जन्म से ऊंच या नीच पैदा होता है अर्थात् किसी से ऊंच तथा किसी से नीच पैदा होता है। चार वर्णों में सबसे ऊंचा वर्ण है ‘ब्राह्मण’ तथा सबसे नीचा वर्ण है ‘शूद्र’। बाद में एक वर्ण और बना दिया गया, जिसे ‘महानीच’ ठहराकर   ‘अन्त्यज’ कहा गया तथा जिसकी छाया के स्पर्श से भी अन्य लोग दूषित हो जाते थे और हैं। स्त्री  भी ‘नीचों’ में शामिल की गईं। । नीच कहे जाने के चलते  जितने पैमाने शूद्रों-अन्त्यजों के लिए थे, उनमें से अधिकांश स्त्रियों पर भी लागू होते हैं।

इस संस्कृति की सबसे पहली बुनियादी विशेषता है- श्रम, विशेषकर शारीरिक श्रम करने वालों से घृणा। कौन-कौन कितना और किस प्रकार का शारीरिक श्रम करता है, उसी से तय हो जायेगा कि वह कितना ‘नीच’ है। इस विशेषता का दूसरा पहलू यह है- जो व्यक्ति शारीरिक श्रम से जितना ही दूर है अर्थात् जितना बड़ा परजीवी है, वह उतना ही महान एवं श्रेष्ठ है। ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ एवं महान है क्योंकि उसके जिम्मे किसी प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं था। मेहतर समुदाय सबसे घृणित है, क्योंकि वह बिष्ठा एवं गन्दगी साफ करता है। बिष्ठा एवं गन्दगी करने वाले महान तथा साफ करने वाले ‘नीच’। दलित ‘नीच’ और अस्पृश्य, क्योंकि वह मेहनत करता था अर्थात् उत्पादन-सम्बन्धी सारे श्रम वही करता था। उत्पादक, नीच और बैठकर खाने वाले परजीवी, महान। कपड़ा गंदा करने वाले, महान तथा उसे साफ कर देने वाले धोबी, ‘नीच’। बाल तथा नाखून काटकर इंसान को इंसानी रूप देने वाला नाऊ ‘नीच’ तथा जिन्हें उसने इंसान बनाया वे लोग, ऊंच। यही बात सभी श्रम-आधारित पेशों पर लागू होती रही है।

घर में स्त्री पुरुष से ‘नीच’ और दोयम दर्जे की, क्योंकि वह बच्चे से बूढ़ों तक की गूह-गन्दगी साफ करती है। धोबी का भी काम करती है, कपड़े धुलती है, घर की सफाई करती है, खाना बनाती है। जैविक उत्पादन(बच्चे जनती है) करती है, और ‘महान’ पुरुषों को अन्य सुख प्रदान करती है। इसलिए स्त्री, पुरुषों से ‘नीच’ तथा उनके अधीन। शूद्र द्विजों से नीच तथा उनके अधीन।

हिंदू संस्कृति की दूसरी विशेषता है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के समान नहीं हो सकता अर्थात् समानता की अवधारणा का पूर्ण निषेध। चार वर्णों में सभी एक दूसरे से ऊंच या नीच हैं। चारों वर्णों में शामिल हजारों जातियां एक दूसरे से ऊंच-नीच हैं। परिवार में ऊंच-नीच का श्रेणीक्रम बना हुआ है। इस संस्कृति में गर्ग गोत्र के शुक्ल सबसे ऊंच है, लेकिन स्थान-विशेष के शुक्ल दूसरी जगह के शुक्ल से नीच हैं या ऊंच है। सबसे निचली कही जाने वाली जातियों में शामिल दलितों ( चमारों) में भी उत्तरहा तथा दखिनहा हैं। उत्तरहा दखिनहा से ऊंच हैं। बाभनों में भी ‘नान्ह जाति’ ( शूद्र-अतिशूद्र) के रूप में चौबे-उपधिया जैसे ब्राह्मण हैं। इनका अपराध यह है कि ये अपने खेतों में शारीरिक श्रम करते रहे हैं।

इस संस्कृति की तीसरी विशेषता है अधीनता। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा ने शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों को क्रमशः द्विजों(सवर्णों) तथा पुरुषों के अधीन बनाकर भेजा है। शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों का दैवीय कर्तव्य है कि वे सवर्णों तथा पुरुषों की आज्ञा का पालन करें तथा उनकी सेवा करें । अधीनता की इस व्यवस्था का उल्लंघन करने का अर्थ है- ईश्वरीय विधान का उल्लंघन।

इस संस्कृति की चौथी विशेषता है- अतार्किकता। जन्मजात श्रेष्ठता का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन हिंदू समुदाय के महान से महान वैज्ञानिक, प्रोफेसर, न्यायाधीश, वकील, डॉक्टर, पत्रकार, साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, राजनेता तथा अन्य ज्ञानीजन अपनी जन्मजात जातीय श्रेष्ठता के दम्भ में फूले हर कहीं मौजूद हैं। सोचने का यह तरीका तार्किकता की बुनियाद को ही खोखला कर देता है।

अलोकतान्त्रिक सोच इसकी पांचवीं विशेषता है। जातीय तथा लैंगिक श्रेष्ठता और निकृष्टता की भावना, इस संस्कृति की रीढ़ है। जनवाद तथा लोकतान्त्रिक भावना की अनिवार्य शर्त है- इंसान-इंसान के बीच मनुष्य होने के चलते बराबरी का भाव। बराबरी के इस भाव के बिना जनवादी या लोकतान्त्रिक विचार-भाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

सरोकारहीनता तथा असंवेदनशीलता इस संस्कृति की छठी विशेषता है। जब यहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को मनुष्य के रूप में देखने की जगह जाति-विशेष या लिंग-विशेष के रूप देखता है तो गहरी मानवीय संवेदनशीलता की जमीन ही कमजोर पड़ जाती है। एक दूसरे के प्रति इतनी सरोकारहीनता शायद ही किसी समाज में मौजूद हो।

इस संस्कृति की सातवीं विशेषता है- जो जितना शारीरिक श्रम करे, उसे उतना ही कम खाने-जीने का साधन प्रदान किया जाए तथा जो जितना ही शारीरिक श्रम से दूर रहे, उसे उतना ही बेहतर भोजन तथा जीवन जीने के अन्य साधन प्रदान किए जाएं। मेहनत करने वाला उत्पादक भूखा जीने को विवश तथा श्रम से दूर, खून चूसने वाला खा के आघाया हुआ।  

वर्णव्यवस्था-जातिवाद के साथ इस संस्कृति की  बुनियादी अभिलाक्षणिकता है- जातिवादी पितृसत्ता। जिसकी पहली विशेषता है कि पुरुष श्रेष्ठ तथा स्त्री दोयम दर्जे की है। पुरुष-श्रेष्ठता की इस संस्कृति का ही एक परिणाम है- पुत्र लालसा जिसके चलते हर वर्ष करोड़ों लड़कियों को गर्भ में पहचान कर हिंदी पट्टी में मार दिया जाता है, इस अपराध के लिए कि उनका लिंग स्त्री का है। यह सर्वव्यापी संस्कृति है। मारने वालों में शिक्षित-अशिक्षित, ब्राह्मण-दलित, शहरी-ग्रामीण तथा पुरुष-स्त्री सभी शामिल हैं। सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-सम्पन्न और तथाकथित महान लोग इन हत्यारों में शामिल हैं। यह संस्कृति स्त्री को भोग की वस्तु समझती है। स्त्री तथा स्त्री की योनि इसके सम्मान एवं प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी वस्तुएं हैं। यह स्त्री को किसी प्रकार का जनवादी या बराबरी का हक देने को तैयार नहीं है। स्त्री क्या पहनेगी, कैसे बोलेगी, कैसे चलेगी, किससे बात करेगी, किससे नहीं बात करेगी, और सबसे बड़ा अधिकार किसे अपना जीवन साथी चुनेगी अर्थात् किससे शादी करेगी, यह संस्कृति यह सारा अधिकार पुरुष समाज को प्रदान करती है। उसका पिता, पति, भाई, चाचा या बेटा अर्थात् घर का पुरुष यह तय करेगा कि वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी। यदि वह इसका उल्लंघन करती है, बराबरी के अधिकारों की मांग करती है तो हिंसा की शिकार बनेगी, उसे पीटा जाएगा। यदि वह अपनी मनपसन्द के लड़के से प्रेम करने या शादी करने की जुर्रत करेगी तो मार डाली जायेगी (ऑनर किलिंग), प्रेम करने से इंकार करेगी तो उसके ऊपर तेजाब फेंका जाएगा या उसकी हत्या कर दी जाएगी। यहां तक कि उसे अपने शरीर पर भी हक प्राप्त नहीं। यदि वह पति से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से इंकार करती है तो वह उसके साथ जबर्दस्ती शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है अर्थात् बलात्कार कर सकता है। भारतीय कानून इसको बलात्कार नहीं मानता। भारत सरकार इस कानून को बदलने के लिए तैयार नहीं है। यह तो घर की हालत है, बाहर दरिंदे कभी भी उसके ऊपर हमला बोल सकते हैं, उसके साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर सकते हैं।

समाजशास्त्री कहते हैं कि स्त्री के सतीत्व अर्थात् यौनशुचिता की अवधारणा निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के साथ आयी थी अर्थात् यदि निजी सम्पत्ति का मालिक अपने असली वारिस को अपनी सम्पत्ति सौंपना चाहता है तो स्त्री का उसके प्रति पूर्णतया एकनिष्ठ होना अनिवार्य है, वह स्वयं भले ही व्यभिचारी हो। लेकिन भारत में स्त्री की इस काम के अलावा एक दूसरी बड़ी जिम्मेदारी है- जातीय रक्त शुद्धता की रक्षा करना। इसकी अनिवार्य शर्त है- स्त्री अपनी जाति के बाहर के किसी पुरुष से प्रेम न करे, शादी न करे तथा शारीरिक सम्बन्ध न बनाए। जाति रक्षा तथा योनि रक्षा ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के दो सबसे बुनियादी मूल्य हैं।

कोई भी व्यक्ति जो व्यापक हिंदी पट्टी  जीवन-यथार्थ को देखता और समझता है वह बिना किसी सन्देह के कह सकता है कि हिंदी पट्टी का बहुलांश हिसा सार रूप में इन्हीं दो  मूल्यों से बुनियादी तौर पर संचालित होता है। जाति और पितृसत्ता हिन्दू समाज का बुनियादी व्यावहारिक सच है। हां, इसमें पूंजीवादी पतनशील शक्ति भी घुसपैठ कर गयी है। जिसके चलते इसमें मात्रात्मक तथा रूपगत परिवर्तन आए हैं लेकिन इससे सार पर गुणात्मक फर्क नहीं पड़ा है। साम्राज्यवादी पतनशील संस्कृति ने इसके सार एवं रूप को और विकृत और घिनौना बना दिया है। इसका मनुष्य-विरोधी रूप और ज्यादा घृणित एवं वीभत्स हो गया है।

जाति और जातिवादी पितृसत्ता हिंदू संस्कृति की जन्मजात बुनियादी विशेषता रही है। कालक्रम में इसमें एक और मनुष्य-विरोधी घृणित विचार एवं मूल्य जुड़ गया है जिसका आन्तरिक तत्व है- साम्प्रदायिक वैमनस्य, साम्प्रदायिक घृणा का विचार एवं मूल्य। मुसलमानों-ईसाइयों के खिलाफ नफरत, घृणा एवं वैमनस्य आज हिंदू संस्कृति का सबसे ऊपर दिखने वाला तत्व बन गया है। इन दोनों के खिलाफ घृणा, नफरत एवं दंगे के माध्यम से यह संस्कृति हिन्दू एकता के नाम पर अपने जातिवादी-पितृसत्तावादी घृणित मनुष्यविरोधी मूल्यों को ढंकना चाहती है। जबकि ये दोनों इसकी रीढ़ हैं। डॉ. आंबेडकर ने बिल्कुल ठीक कहा था कि जाति व्यवस्था के खात्मे के साथ ही हिन्दू धर्म का भी खात्मा हो जायेगा, क्योंकि वही इसका प्राण-तत्व है। मुसलमानों तथा ईसाईयों के प्रति घृणा, विशेषकर मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही दो अन्य तत्व काम करते हैं। पहला अधिकांश मुसलमानों का इस्लाम धर्म-ग्रहण करने से पहले वर्ण-व्यवस्था में शूद्र या अन्त्यज होना, दूसरा अधिकांश मुसलमानों का गरीब होना अर्थात् शारीरिक श्रम करना। दूसरे शब्दों में कहे तो मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही, जातीय तथा वर्गीय घृणा भी छिपी हुई है।

हिंदी पट्टी के बहुलांश लोग इन्ही वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तावादी जीवन-मूल्यों को जीते हैं और उनका पालन करते हैं, यही उनकी संस्कृति है और उनकी आन्तरिक वैचारिकी इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों से बनी हुई है, यही उनके विश्व दृष्टिकोण का निर्माण करती है। समाज, संस्कृति, साहित्य, सिनेमा और राजनीति के अधिकांश अगुवा व्यक्तित्वों का कमोवेश यही जीवन-मूल्य और विश्वदृष्टिकोण है। आधुनिक वैकल्पिक जीवन-मूल्यों और विश्व दृष्टिकोण के अगुवा कहे जाने वाले हिंदी पट्टी के उदारवादी और वामपंथी वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तावादी संस्कृति के दायरे को मुश्किल से लांघ पाते हैं, यह सिर्फ उनकी व्यक्तिगत सीमा नहीं है, जिस समाज और परिवार के वे उत्पाद हैं, वहां से ये मूल्य उन्हें बचपन में ही संस्कारों की घुट्टी के रूप में पिला दिए जाते हैं, जो आजीवन उनके अन्तर्मन और चेतना को निर्धारित करते हैं। आस-पास का सारा परिवेश भी इन्हीं मूल्यों को पोषित करता है, खाद-पीनी देता है। हिंदी पट्टी का दुर्योग यह है कि आज उसकी संस्कृति एवं वैचारिकी की अगुवाई कमोवेश वही अपरकॉस्ट मर्द कर रहे हैं, जो पूरी तरह से वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तावादी संस्कृति से नाभिनालबद्ध हैं। यह संस्कृति और वैचारिकी  जीवन के सभी क्षेत्रों में उनके वर्चस्व को बनाए रखने में उनकी मदद करती है। इस तरह से यह इस संस्कृति और वैचारिकी का बने रहना अपरकॉस्ट मर्दों के व्यक्तिगत हित में भी है। बिडंबना यह है यह है कि हिंदी पट्टी को इन मध्यकाली बर्बर मूल्यों से निकालने और आधुनिकरण करने  का जिम्मा मुख्यत: जिस अपरकॉस्ट ने अपने कंधे पर ले रखा था और ले रखा है, वह स्वयं ही उन्हीं मूल्यों का सबसे बड़ा वाहक है यानी बीमार ही बीमारी का इलाज कर रहा है।

सच यह है कि हिंदी पट्टी एक गंभीर तौर पर बीमार लोगों की पट्टी है, इस पट्टी को जाति की संक्रामक बीमारी ने ग्रसित कर रखा है, जो इसके पोर-पोर में मौजूद है, दुखद यह कि हिंदी पट्टी का वर्चस्वशाली बौद्धिक वर्ग (अपरकॉस्ट) इस बीमारी की गंभीरता को जाने-अनजाने स्वीकार करने को तैयार न तैयार था और न है। इसका परिणाम हुआ कि हिंदी पट्टी की नाभिकीय बीमारी (जाति की बीमारी)  का इलाज करने का कोई गंभीर प्रयास हुआ ही नहीं और यह पट्टी एक बीमार पट्टी बनी हुई है, जब तक जाति की गंभीर बीमारी के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष यह पट्टी नहीं शुरू करती और यहां का सांस्कृतिक और वैचारिक जीवन ठहराव का शिकार बना रहेगा। संस्कृति और विचार जब ठहर जाते हैं, तो सड़ने लगते हैं और उनकी बदबू पूरे परिवेश में फैल जाती है। हिंदी पट्टी की सड़ती संस्कृति और वैचारिकी की बदबू हर कहीं महसूस की जा सकती है। हिंदी पट्टी के आधुनिकीकरण की अनिवार्य शर्त है, वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता का विनाश।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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