Tuesday, April 23, 2024

बरसी पर विशेष: नोटबंदी को लेकर खुद अपराध बोध से ग्रस्त है मोदी सरकार

8 नवबर, 2016 को रात ठीक 8 बजे, जब टीवी चैनलों ने यह घोषणा की कि प्रधानमंत्री जी एक ज़रूरी संदेश देंगे तो हम भी करोड़ों देशवासियों की तरह टीवी की तरफ खिसक कर बैठ गए और उसका वॉल्यूम तेज़ कर दिया। 8 बजने के चंद सेकेंड्स पहले पीएम, टीवी स्क्रीन पर सेनाध्यक्षों से मिलते नज़र आये तो, हमें लगा कि, कुछ सीमा पर हो गया है। खैर सीमा पर तो कोई समस्या नहीं दिखी। समस्या बदस्तूर दिल्ली में ही थी। फिर प्रधानमंत्री जी ने अपना वक्तव्य शुरू किया और जब उनका यह वाक्य गूंजा कि “आज रात 12 बजे से 1000 और 500 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे” तो, पहले तो मेरी समझ में कुछ विशेष नहीं आया। फिर यह वाक्य जब कई बार दुहराया गया तो बात समझ में आ गयी। नोटबंदी की घोषणा हो चुकी थी।

लोगों को लगा कि सरकार का यह कदम मास्टर स्ट्रोक है। पर जब लोगों को नोट बदलने में और नए नोट मिलने में दिक्कत होने लगी और यह मास्टर स्ट्रोक उल्टा पड़ने लगा तो, वित्त मंत्री टीवी पर नमूदार हुये और नोटबंदी के तीन उद्देश्य उन्होंने गिना डाले। 

० एक तो काला धन का पता लगाना,

० दूसरे आतंकवाद का खात्मा

० तीसरे नक़ली नोटों का चलन रोकना। पर सरकार, इन तीनों ही लक्ष्यों को, प्राप्त करने में, असफल रही। प्रधानमंत्री जी को दिसंबर 2016 में ही यह आभास हो गया था कि यह दांव गलत पड़ गया है। अपनी जापान यात्रा में व्यंग्यात्मक लहजे और हाथ नचाते हुए उपहासास्पद मुद्रा में जो, उन्होंने कहा था कि, ” घर मे शादी है पर पैसे नहीं हैं”, वह वीडियो क्लिपिंग और उसका भी यह अकेला वाक्य तथा उनकी देहभाषा सरकार की संवेदनहीनता को उघाड़ कर रख देता है। तंज के नशे का हैंगओवर भी जल्दी ही उतर गया जब उन्होंने कहा कि ‘लोग मुझे मार डालेंगे, बस, बस 50 दिन मुझे दे दीजिए,’ नहीं तो ‘चौराहे पर मेरे साथ जो मन हो कीजिएगा।’ ये वाक्य पूरे देश के भाइयों बहनों को याद होगा।

आर्थिक सुधार का मास्टर स्ट्रोक कह कर प्रचारित किया जाने वाला यह कदम, किसके दिमाग की उपज था, यह रहस्य लंबे समय तक बना रहा। पर इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की गयी थी, तो उसी दिन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने नोटबंदी को मंजूरी दी थी। अनुमति देने के दौरान ही आरबीआई ने यह भी साफ कर दिया था कि नोटबंदी से न तो काला धन वापस आएगा और न ही नकली नोट खत्म किए जा सकेंगे। उक्त मीटिंग 8 नवंबर 2016 को हुई थी। जो उस दिन शाम के 5.30 बजे नई दिल्ली में जल्दबाजी में बुलाई गई थी। उस मीटिंग के दौरान दर्ज हुए दस्तावेज के मुताबिक बैंक के डायरेक्टर्स ने नोटबंदी को मंजूरी देते हुये, उसके नकारात्मक असर भी बता दिए थे।

अंदर से खोखला हो चुका चौथा खम्भा, तो, दुंदुभीवादन में डूबा हुआ था। खूब प्रचार हुआ कि, देश की अर्थ व्यवस्था अब सुधर जाएगी, पर धीरे-धीरे नशा उतरने लगा। प्रधानमंत्री जी का यह अनुमान था कि, देश की अर्थव्यवस्था इस कदम से सरपट भागने लगेगी पर यह तो धंसने लगी। ठकुरसुहाती के इस स्वर्णिम काल में भी, कुछ पत्रकार और गंभीर अर्थवेत्ता, जब इसकी तह में गये तो उन्हें लगा कि, यह तो आत्मघाती कदम उठा लिया गया है। रिज़र्व बैंक जो, मौद्रिक नीति और मौद्रिक अनुशासन का जिम्मेदार है वह भी तब, ‘जी जहांपनाह’ की मुद्रा में साष्ठांग था। हर आदमी सवाल पूछ रहा है कि, यह किसका फैसला था। और सरकार खामोश थी।

याद कीजिए, इस सरकार निर्मित त्रासदी में, 150 लोग नोटबंदी के कारण या तो लाइनों में लग कर मर गए या उन्होंने, आत्म हत्या कर ली। लोगों के परिवार में शादियां टल गयीं। समर्थ और संपर्क वाले लोग जो, पुराने नोट संजोए थे, आरबीआई और अन्य बैंकों से मिल कर, कुछ सुविधा शुल्क देकर, खुल कर बदलवा रहे थे। धीरे-धीरे सतह पर तो सब सामान्य दिख रहा था पर अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हो गया था उसका असर बाद में दिखने लगा। सरकार भी भ्रम में थी। नोटबंदी के उद्देश्य और गोल पोस्ट रोज़ बदले जा रहे थे। वित्त सचिव से लेकर आरबीआई के गवर्नर तक को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहा जाए।

कभी वे कहते, यह कदम कैशलेस अर्थ व्यवस्था की ओर एक कदम है तो, कभी इसे लेस कैश कहा जाता था। कभी कहते, यह पूरी तरह से होमवर्क करने के बाद ही लागू किया गया है तो, कभी कहा जाता, इतने बड़े देश मे, इतने बड़े कदम से, कुछ तो टीथिंग ट्रबल सहना ही होगा। आदि आदि सूक्तियां, परम्परागत मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में, तैर रही थीं। तब सरकार ने यह सोचा भी नहीं था कि, देश की कुल मुद्रा का 86%, जो 500 और 1000 के नोटों में था, अगर चलन से बाहर हो जाएगा तो बिना तैयारी और पर्याप्त सोच विचार के उठाया गया यह कदम लागू हुआ तो, उसका विफल होना तय है। परिणामस्वरूप ग्रामीण और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। सच तो यह है कि यह सरकार की बिना सोची समझी रणनीति का एक दुष्परिणाम था।

परिणामस्वरूप जीडीपी गिरने लगी। 

सरकार को आंकड़ों में हेराफेरी करनी पड़ी। तमाशे के साथ खुलवाए गये जनधन योजना के अंतर्गत बैंकों के खाते कालेधन की अवैध पार्किंग बन गए। 12 दिसंबर 2016 तक बैंकों के आंकड़ों ने यह संकेत दे दिया था कि रद्द हुए नोटों में से 15 लाख बैंकिंग सिस्टम में आ जाएंगे। यह अनुमान सरकार की रणनीति विफल कर गया। अंत में नोटबंदी के साढ़े आठ महीने के बाद जब आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट 2016 – 17 जारी की तो पता लगा 15.28 करोड़ की राशि जमा हो चुकी है। 2017-18 ,की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 99.2 % रद्द हुए नोट पुनः बैंकिंग तंत्र में वापस आ गए हैं। यह नोटबंदी की दारुण विफलता है। आरबीआई ने संसदीय समिति को जो अपनी रिपोर्ट दी थी, उसके अनुसार, ₹ 500 के 8,582 लाख करोड़ और ₹ 1000 के 6.858 लाख करोड़ यानी 15.44 लाख करोड़ के नोट चलन में थे। लगभग सभी वापस लौट आये। जो भी काला धन था वह सफेद हो गया। 

सरकार ने नोटबंदी के पहले सोचा था कि, कुल 11 या 12 लाख करोड़ के ही रद्द नोट, वापस आएंगे और 3.5 लाख करोड़ नोट, जो नहीं वापस आएंगे वे ही, उपलब्धि माने जाएंगे। सरकार का यह भी अनुमान था कि, जो भारी संख्या में नकली नोट बाज़ार में हैं, वे बैंक में नहीं आएंगे, जिससे वे समाप्त हो जाएंगे। पर सरकार ने भारतीय सांख्यिकी संस्थान कोलकाता की उस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया था, जिसके अनुसार केवल 400 करोड़ रुपये के नकली नोट ही चलन में हैं। यह राशि विशाल मौद्रिक व्यवस्था को देखते हुये बहुत कम थी। सरकार ने अपने ही एक महत्वपूर्ण संस्थान की रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ करके नक़ली नोटों की संख्या का अतिश्योक्तिपूर्ण  अनुमान लगा लिया। 2017-18 की आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2016-17 में कुल 58.3 करोड़ की नकली मुद्रा थी, जो रद्द हुए नोटों का केवल 0.0034% था। नकली नोटों के पकड़े जाने की बात जो सरकार ने की थी, वह भी एक मिथ्यावाचन सिद्ध हुआ। 

जहां तक नक़ली नोटों के पकड़ने का प्रश्न है बिना किसी विशेष अभियान चलाये ही हर साल 70 करोड़ की नकली मुद्रा रूटीन तरीके से पकड़ी जाती है। फिर इसके लिये पूरे देश की अच्छी खासी चलती हुई अर्थव्यवस्था में पलीता लगाने की क्या ज़रूरत थी? नोट बंदी अपने उन सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रही जो सरकार ने पहले बताए थे। वे उद्देश्य थे, आतंकवाद का खात्मा, नक़ली नोटों का चलन रोकना और काले धन का पता लगाना। जब कि हुआ इसका विपरीत। 99.2% धन जिसमें काला धन भी था, पुनः सफेद होकर सिस्टम में आ गया।

जब ये सारे उद्देश्य आतंकवाद, नक़ली नोट और कालाधन, प्राप्त नहीं किये जा सके तो हड़बड़ाई और बदहवास सरकार ने तुरन्त कैशलेस, लेसकैश और डिजिटल अर्थव्यवस्था की बात छेड़ दी। लेकिन आरबीआई ने इस सम्बंध में जो डेटा जारी किया है वह भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा । शुरू में ज़रूर दुकानों पर स्वाइप मशीन और ई – वालेट बाज़ार में आये पर वे जनता का डेटा बटोर कर ले गये, पर अब वे इतने चलन में नहीं हैं जितने नोटबंदी के तत्काल बाद प्रचलन में थे और जिनका तब इतना प्रचार किया गया था।  जैसे ही नकदी की कमी दूर हुयी पुनः लोग नकदी लेनदेन करने लगे।

10 अक्टूबर 2018 की आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, 19.688 लाख करोड़ की मुद्रा चलन में थी जिसमें से नोटबंदी के तत्काल बाद विभिन्न एटीएम से 1.711 लाख करोड़ मुद्रा लोगों द्वारा निकाल ली गयी। नोटबंदी के बाद लगभग 6 महीने तक नकदी की समस्या थी। एक आंकड़े के अनुसार, अगस्त 2018 में विभिन्न एटीएम से 2.76 लाख करोड़ की राशि नक़द निकाली गयी थी, जब कि अगस्त 2016 में यह रकम 2.20 लाख करोड़ थी। 2017-18 में जीडीपी और मुद्रा का अनुपात जहां 10.9% रहा वहीं पिछले साल यह अनुपात 8.8% था। यह संकेत बताता है कि जनता डिजिटल लेनदेन के बजाय अब भी नकदी लेनदेन अधिक पसंद करती है।

नकदी का चलन फिर बढ़ गया है। हाल ही में द हिंदू ने एक खबर छापी है, उसके अनुसार, “विमुद्रीकरण के छह साल बाद, जनता के पास ₹30.88 लाख करोड़ के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर नकदी मिली है। इस कदम का इरादा, जिसकी खराब योजना और त्रुटिपूर्ण क्रियान्वयन को लेकर, कई विशेषज्ञों द्वारा आलोचना की गई थी, भारत को “कम नकदी” (लेस कैश) वाली अर्थव्यवस्था बनाना था। जनता के पास, 21 अक्टूबर तक 30.88 लाख करोड़ रुपये के नए उच्च स्तर पर, नकदी मुद्रा पहुंच गई है, जो यह दर्शाता है कि, विमुद्रीकरण के छह साल बाद भी नकदी का उपयोग और क्रेज अभी भी मजबूत है।”

जनता के पास, मुद्रा से तात्पर्य, उन नोटों और सिक्कों से है, जिनका उपयोग, लोग लेन-देन करने, व्यापार निपटाने और सामान और सेवाओं को खरीदने के लिए करते हैं।  प्रचलन में मुद्रा से बैंकों के साथ नकदी की कटौती के बाद यह आंकड़ा निकाला जाता है।

अर्थव्यवस्था में नकदी का उपयोग लगातार बढ़ रहा है, यहां तक कि भुगतान के नए और सुविधाजनक डिजिटल विकल्पों के लोकप्रिय होने के बाद भी। डिजिटल भुगतान पर 2019 के, आरबीआई के एक अध्ययन के अनुसार, “हालांकि हाल के वर्षों में डिजिटल भुगतान धीरे-धीरे बढ़ रहा है। डेटा यह भी बताता है कि, उसी समय के दौरान, सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में, प्रचलन में, नकद मुद्रा भी, समग्र आर्थिक विकास के अनुरूप बढ़ गई है। … समय के साथ साथ, डिजिटल भुगतान में जीडीपी अनुपात में वृद्धि हो रही है, पर, मुद्रा में गिरावट का संकेत नहीं देती है। विमुद्रीकरण के बाद, भारत में डिजिटल लेनदेन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, हालांकि देश में जीडीपी अनुपात में डिजिटल भुगतान पारंपरिक रूप से कम हो रहा है।”

हाल के एक नोट में, एसबीआई के अर्थशास्त्रियों ने कहा था कि 

“दिवाली सप्ताह में प्रचलन में मुद्रा, (सीआईसी) में ₹7,600 करोड़ की गिरावट आई है, जो कि लगभग दो दशकों में पहली ऐसी गिरावट थी।”

रिज़र्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट 2017-18 जिसमें रद्द हुयी मुद्रा के वापसी का उल्लेख है के आने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने फेसबुक पेज पर आयकरदाताओं की संख्या और कर दायरे के बढ़ने की बात कही और इसे भी नोटबंदी का एक परिणाम बताया। वित्तमंत्री के ब्लॉग के अनुसार,

* मार्च 2014 में कुल 3.8 करोड़ आयकर रिटर्न दाखिल हुए थे जो 2013 – 14 वित्तीय वर्ष के थे।

2017 – 18 में आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 6.86 तक बढ़ गयी।

* 2013 -14 में आयकर से सरकार को ₹ 6.38 लाख करोड़ मिला जब कि 2017 – 18 में यह धन राशि ₹ 10.02 लाख करोड़ थी।

• नोटबंदी के पहले आयकर से प्राप्त होने वाली आय वृद्धि की दर जहां 6.6% थी वहीं नोटबंदी के बाद यह दर 15% और 18% तक बढ़ गयी।

तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली के इस ब्लॉग को नोटबंदी की एक महती सफलता के रूप में मीडिया में प्रचारित किया गया। यह भी कहा गया कि इस कदम से लोग कर चुकाने की मानसिकता की ओर बढ़े हैं और हम एक करदाता समाज बनने की ओर अग्रसर हैं। अब इस उपलब्धि की भी पड़ताल करने पर निम्न तथ्य सामने आए। सीबीडीटी केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, 2013-14 में आयकर दाताओं की संख्या 3.8 करोड़ से बढ़ कर 2017-18 में 6.85 करोड़ हो गयी है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या जिस गति से रिटर्न भरने वालों की संख्या बढ़ी है तो, उसी गति से आयकर संग्रह की राशि भी बढ़ी है ?

अब सीबीडीटी के आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में इस पर एक नज़र डालते हैं कि वास्तविक आयकरदाताओं और राशि की नोटबंदी के पहले और बाद में क्या स्थिति है। सीबीडीटी के आंकड़ों के अनुसार, नोटबंदी के पहले 2013-14 में 11.6 % की दर से आयकरदाताओं में वृद्धि हो रही थी। फिर यह दर, 2014-15 में 8.3% और 2015 – 16 में 7.5% दर से हुयी जो नोटबंदी पूर्व की स्थिति से कम है। लेकिन 2016-17 में यह दर 12.7% की दर से बढ़ गयी। जबकि 2017-18 में यह दर फिर गिर कर 6.9% हो गयी। जहां तक आयकर से प्राप्त धनराशि का प्रश्न है 2013-14 में कुल ₹ 6.38 लाख करोड़ और 2017-18 में ₹ 10.02 लाख करोड़ आयकर से प्राप्त हुआ है। यह राशि कर संग्रह के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति है। लेकिन यह प्रगति नोटबंदी के पहले भी होती रही है। 

सांख्यिकीय आंकड़ों का अध्ययन समग्रता में ही किया जाना चाहिये अन्यथा प्रसिद्ध उक्ति ‘ झूठ, महाझूठ और सांख्यिकी ‘ ही चरितार्थ होने लगती है। अब यूपीए और एनडीए सरकार के कार्यकाल में कर संग्रह और जीडीपी के अनुपात के आंकड़ों पर एक नज़र डालें। यूपीए के शासनकाल (2004 -14) में प्रत्यक्ष कर संग्रह की राशि दस सालों में औसतन 20.2%  जब कि एनडीए के शासनकाल (2014-18) चार सालों में यह औसतन 12% रही। यह अनुपात प्रत्यक्ष कर संग्रह और जीडीपी का है।

नोटबंदी के नकारात्मक असर क्या पड़े हैं, एक नज़र इस पर भी देखें। 

लोगों का भरोसा नकदी पर बढ़ा है। यह कितना बढ़ा है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2017-18 में घरों में रखा कैश का लेवल पिछले पांच साल के औसत से दोगुने से ज्यादा है। इसके ठीक उलट, लोग जितना पैसा बैंक में रखते थे अब उसकी आधी रकम ही सेविंग्स अकाउंट में रखने लगे हैं। इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा लगाने के लिए रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के कुछ शब्दों को पढ़िए। कहा गया है कि घरेलू सेविंग्स घटने से मंदी का खतरा बढ़ जाता है। रिजर्व बैंक की परिभाषा के हिसाब से घरेलू में पूरा इन फॉर्मल सेक्टर आता है।

रिजर्व बैंक से सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रॉस वैल्यू एडिशन ग्रोथ में इंडस्ट्री का हिस्सा 2015-16 में 33 फीसदी का था जो 2017-18 में घटकर 20 फीसदी रह गया। मतलब यह कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान नोटबंदी के बाद काफी कम हो गया है। इसमें बढ़ोत्तरी की रफ्तार पिछले दस साल के औसत से अब भी कम है। मैन्यूफैक्चरिंग की सुस्ती का सीधा असर नौकरियों के सृजन से है और इसमें सुस्ती का अर्थ, रोजगार के अवसरों में कमी का होना है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, उद्योगों को देने वाले ऋण वृद्धि की रफ्तार 2018 में 1 फीसदी से कम है। इसमें छोटे और मझोले इंडस्ट्री को मिलने वाला लोन भी शामिल है। उद्योगों को मिलने वाला लोन बिजनेस बढ़ाने के लिए होता है। अगर इस सेक्टर में लोन बढ़ने की रफ्तार ऐसी है तो फिर कारोबार कैसे बढ़ रहे होंगे और नौकरियों के मौके कैसे पैदा हो रहे होंगे?

अब बेरोजगारी पर इस कदम का क्या असर पड़ा इसे भी देखिये। थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के मुताबिक इस साल अक्टूबर में देश में बेरोजगारी की दर 6.9 फीसदी पर पहुंच गई है जो पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा है। सीएमआईई के मुताबिक देश में बेरोजगारी को लेकर हालात बदतर हैं। श्रमिक भागीदारी भी घटकर 42.4 फीसदी पर पहुंच गयी है जो जनवरी 2016 के आंकड़ों से भी नीचे है। श्रमिक भागीदारी का आंकड़ा नोटबंदी के बाद बहुत तेजी से गिरा है। उस वक्त यह आंकड़ा 47-48 फीसदी था जो दो सालों के बाद भी हासिल नहीं कर सका। भारतीय अर्थव्यवस्था में अक्सर अक्टूबर से दिसंबर तक रोजगार सृजन का वक्त होता है लेकिन ताजा रिपोर्ट से स्थिति गंभीर लगती है। हर साल तकरीबन 1.3 करोड़ लोग देश के लेबर मार्केट में एंट्री करते हैं, बावजूद इसके बेरोजगारी की दर नहीं सुधर सकी। अभी भी पावर, इन्फ्रास्ट्रक्चर और आईटी इंडस्ट्री पटरी पर नहीं आ सकी हैं। संभवत: बेरोजगारी बढ़ने का यह भी एक कारण हो सकता है।

यह समीक्षा आरबीआई और सरकार के ही संस्थानों द्वारा प्रदत्त आंकड़ों पर ही निर्भर है। इन आंकड़ों को अगर दरकिनार भी कर दें तो सरकार स्वयं नोटबंदी के निर्णय से अपराध बोध से ग्रस्त है। हर छोटी मोटी उपलब्धि पर अखबारों में इश्तहार देने, ट्वीट करने और सत्तारूढ़ दल तथा सरकार के मंत्रियों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करने वाले लोग आज इस मौके पर जिसे आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़ा आर्थिक सुधार प्रचारित किया जा रहा था, चुप्पी ओढ़े हैं तो यह उनका वैराग्य बोध नहीं अपराध बोध ही है। नोटबंदी की इस घटना ने आरबीआई की स्वायत्तता को भी शरारतन नज़रअंदाज़ किया है। आरबीआई जिसके पास देश की मौद्रिक नीति और मौद्रिक अनुशासन बनाये रखने का संवैधानिक दायित्व है उसे भी इस निर्णय की सूचना दी गयी। यही कारण है कि 8 नवंबर 2016 से 31 दिसंबर 2016 तक आरबीआई ने दो सौ से अधिक दिशा निर्देश जारी किये। सुबह कुछ और शाम को कुछ जारी होने वाले आदेश प्रशासन की अपरिपक्वता और बदहवासी ही बताते हैं। 

छः साल बाद, सुप्रीम कोर्ट, नोटबन्दी के संबंध में दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई शुरू कर चुका है। फिलहाल 7 नवंबर तक सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से अपना पक्ष रखने को कहा है। अदालत का निर्णय, चाहे जो हो, अधिकांश अर्थ विषेषज्ञों का कहना है कि, नोटबन्दी का निर्णय देश की अर्थव्यवस्था के लिये घातक ही रहा। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने, तभी संसद में कह दिया था कि, इससे, जीडीपी की विकास दर में, 2% की कमी आएगी। डॉ सिंह की बात सच साबित हुई। उन्होंने इसे एक संगठित लूट बताया था। मैंने इस लेख में, पुराने आंकड़े इसलिए दिए हैं कि, 31 मार्च 2020 तक ही जीडीपी की दर 2% गिर गई थी। असंगठित क्षेत्र बिखरने लगा था। और फिर तो उसके बाद आई महामारी ने देश को अत्यधिक आर्थिक संकट में डाल दिया। अदालत का फैसला चाहे जो हो, पर अर्थशास्त्रियों की राय यही है कि, यह फैसला बिना समझे बूझे और सोचे समझे लिया गया था।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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