Saturday, April 27, 2024

सदन में मोदी: सवालों के जवाब नहीं और पीएम की गरिमा भी नहीं रख पाए बरकरार

एक राजनेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ख्याति’ भले ही एक कामयाब मजमा जुटाऊ भाषणबाज के तौर पर ही रही हो, लेकिन उन पर यह ‘आरोप’ कतई नहीं लग सकता है कि वे एक शालीन और गंभीर वक्ता हैं! चुनावी रैली हो या संसद, सरकारी कार्यक्रम हो या पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच संबोधन, लालकिले की प्राचीर हो या फिर विदेशी धरती, मोदी की भाषण शैली आमतौर पर एक जैसी रहती है- वही भाषा, वही अहंकारयुक्त हाव-भाव, राजनीतिक विरोधियों पर वही छिछले कटाक्ष, वही स्तरहीन मुहावरे। आधी-अधूरी या हास्यास्पद जानकारी के आधार पर गलत बयानी, तथ्यों की मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़, सांप्रदायिक तल्खी, नफरत से भरे जुमलों और आत्म प्रशंसा का भी उनके भाषणों में भरपूर शुमार रहता है।

इस सिलसिले में बतौर प्रधानमंत्री उनके पिछले करीब आठ साल के और उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दिए गए उनके ज्यादातर भाषणों को देखा जा सकता है। सोमवार को लोकसभा में और मंगलवार को राज्यसभा में दिए उनके भाषण भी ऐसे ही रहे, जिनमें न तो न्यूनतम संसदीय मर्यादा व शालीनता का समावेश था और न ही प्रधानमंत्री पद की गरिमा व लोकतांत्रिक परंपरा का।

प्रधानमंत्री को संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देना था। लेकिन अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने इस गंभीर मौके का इस्तेमाल भी चुनावी रैली जैसा भाषण देने के लिए ही किया। स्थापित संसदीय परंपरा यह है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का समापन करते हुए प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण में उल्लेखित मुद्दों पर अपनी सरकार का नजरिया पेश करते हैं। इसी क्रम में वे बहस के दौरान लगाए गए विपक्ष के आरोपों और की गई आलोचना का भी जवाब देते हैं। लेकिन मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री ऐसा कुछ नहीं किया।

संसद में प्रधानमंत्री के संबोधन की एक गरिमा होती है। यह गरिमा उतनी ही होती है जितनी गरिमा देश की जनता की नजर में प्रधानमंत्री की होती है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के भाषणों में यह गरिमा कायम रही है लेकिन मोदी ने संसद और आमसभा के फर्क को खत्म कर दिया है। वे संसद में भी जिस तरह नाटकीय और फूहड़ भाव-भंगिमा का प्रदर्शन करते हुए विपक्ष पर छिछले कटाक्ष करते हैं, उससे लगता ही नहीं कि वे प्रधानमंत्री के रूप में बोल रहे हैं।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान विपक्ष ने महंगाई, बेरोजगारी, चरमरा रही अर्थव्यवस्था, जीडीपी में गिरावट, देश के सीमावर्ती इलाकों में चीनी घुसपैठ, देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं, पेगासस जासूसी कांड आदि कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे और शिकायत की थी कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में इन मुद्दों का जिक्र नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इन सवालों पर बोलने से साफ बच निकले।

अपने भाषण के शुरू में तो उन्होंने उपदेशात्मक लहजे में संसद की पवित्रता और गरिमा की दुहाई दी और फिर खुद ही उस गरिमा को ताक में रख कर अपनी चिर-परिचित जनसभा वाली शैली में शुरू हो गए। लोकसभा में 1 घंटा 41 मिनट और राज्यसभा में 1 घंटा 27 मिनट यानी तीन घंटे से ज्यादा के अपने भाषण के दौरान मोदी ने विपक्ष के सवालों का कोई तार्किक और सुसंगत जवाब देने के बजाय विपक्ष खासकर कांग्रेस पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी। कर्कशता और आत्म-मुग्धता से भरे उनके भाषण में झूठ, ऐतिहासिक तथ्यों की गलत व्याख्या, संवेदनहीनता तथा कांग्रेस और नेहरू -गांधी परिवार के लिए नफरत के सिवाय कुछ नहीं था।

प्रधानमंत्री की पार्टी के आईटी सेल और उसकी ट्रोल आर्मी द्वारा पप्पू के तौर प्रचारित राहुल गांधी को लेकर भाजपा के नेता और मंत्री अक्सर कहते रहते हैं कि वे रिजेक्टेड नेता हैं, इसलिए हम उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसके बावजूद राहुल गांधी कुछ भी कहते हैं तो पूरी भाजपा और केंद्र सरकार उसका जवाब देने के लिए मैदान में उतर जाती है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर भी यही हुआ। राहुल गांधी ने अपने भाषण में जो कुछ कहा, उसका जवाब पहले तो एक दर्जन मंत्रियों ने दिया फिर प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपना तीन चौथाई भाषण राहुल का जवाब देने में ही खर्च किया। अपने पूरे भाषण के दौरान मोदी एक वाचाल विपक्षी नेता के रूप में नजर आए। ऐसा लगा मानो इस समय भी कांग्रेस की ही सरकार है और मोदी उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण दे रहे हैं। उन्होंने देश की मौजूदा हर समस्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया।

चूंकि इस समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है और चुनाव आयोग ने कोरोना महामारी की नई लहर के चलते जनसभाओं और रोड शो पर रोक लगा रखी है, सो प्रधानमंत्री मोदी ने संसद को चुनावी रैली के मंच में तब्दील कर दिया। उन्होंने न तो राष्ट्रपति के अभिभाषण में रेखांकित किए गए मुद्दों को ज्यादा छुआ और न ही विपक्ष के सवालों का जवाब दिया। वे सिर्फ अपनी सरकार की पीएम आवास योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना, स्टार्टअप, स्टैंडअप और मेक इन इंडिया जैसी दम तोड़ चुकी या ठप पड़ी योजनाओं को ही झूठे आंकड़ों के सहारे कामयाब बता कर अपनी पीठ थपथपाते रहे।

इसके अलावा उनके भाषण का पूरा फोकस कांग्रेस पर रहा। उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार देश की हर समस्या के लिए उन्होंने कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। यहां तक कि कोरोना महामारी फैलाने के लिए कांग्रेस को दोषी बताने से नहीं चूके। कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में केंद्र सरकार, भाजपा के तमाम नेता और सरकार समर्थक मीडिया ने भारत में कोरोना महामारी के लिए तबलीगी जमात के बहाने देश के मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया था लेकिन संसद में प्रधानमंत्री ने कहा कि जब केंद्र सरकार ने कोरोना की रोकथाम के लिए देशव्यापी लॉकडाउन लगाया और लोगों से अनुरोध किया कि जो जहां है, वह वहीं रहे तो कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी कामगारों को बसों में भर-भर कर उनके घर भेजा और कोरोना का संक्रमण फैलाने का काम किया।

राष्ट्रपति के अभिभाषण में चुनावी हार-जीत का कोई मुद्दा नहीं था और न ही बहस में किसी ने यह मुद्दा उठाया था लेकिन मोदी ने चुनावी भाषण देते हुए कांग्रेस को बताया कि वह पिछले 30-40 साल से किन-किन राज्यों में चुनाव नहीं जीती है। लेकिन वह यह बताते हुए यह बात भूल गए कि कई राज्य ऐसे भी हैं जहां आजादी के बाद से आज तक जनसंघ या भाजपा को जीत नसीब नहीं हुई है। अपनी सरकार की आलोचना से तिलमिलाए और बौखलाए मोदी ने कांग्रेस को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणामों की याद भी दिलाई, जिनमें कांग्रेस को क्रमश: 44 और 52 सीटें मिलीं, लेकिन वे यह भूल गए कि उनकी अपनी पार्टी को भी लोकसभा में एक समय सिर्फ 2 सीटें ही हासिल हुई थीं और पार्टी के सभी शीर्ष नेता चुनाव हार गए थे।

आमतौर पर पार्टियों के नेता खुद पर या अपनी पार्टी पर हमले से आहत होते हैं और उसका जवाब देते हैं लेकिन मोदी को भ्रष्ट और बेईमान उद्योगपतियों पर सवाल उठाना भी बर्दाश्त नहीं होता। इसीलिए राहुल गांधी ने जब महामारी और अर्थव्यवस्था के बेहद खराब दौर में अंबानी-अडानी की संपत्ति में हुए बेहिसाब इजाफे पर सवाल उठाए और कहा कि डबल ए वैरिएंट देश के सबसे खतरनाक हैं तो प्रधानमंत्री बुरी आहत नजर आए। उन्होंने राहुल से कहा कि आपकी दादी और नाना की सरकार को भी लोग टाटा-बिड़ला की सरकार कहते थे।

यह दूसरा मौका था जब प्रधानमंत्री मोदी ने देश की कीमत पर फल-फूल रहे उद्योगपतियों का बचाव किया था। इससे पहले लखनऊ में 29 जुलाई 2018 को देश के बड़े उद्योगपतियों और कारोबारियों की मौजूदगी में मोदी ने कहा था कि उद्योगपतियों के साथ दिखने से वे डरते नहीं हैं। उन्होंने राहुल गांधी द्वारा देश के दो बड़े उद्योगपतियों की आलोचना का जवाब देते हुए कहा था कि महात्मा गांधी भी बिना किसी हिचक के बिड़ला के साथ खड़े होते थे।

मोदी ने जितने गिरे हुए स्तर का भाषण लोकसभा में दिया उससे भी ज्यादा गिरावट उनके राज्यसभा में दिए गए भाषण में देखने को मिली। वहां भी उन्होंने विपक्ष के उठाए किसी सवाल का जवाब देने के बजाय अहंकार और कर्कशता से भरा चुनावी भाषण ही दिया। उन्होंने चीख-चीख कर कांग्रेस पर आरोपों की बौछार की और उनके मंत्री तथा सांसद उनके हर वाक्य पर ट्रोल आर्मी की तरह मेजें थपथपा कर ठहाके लगाते रहे।

प्रधानमंत्री के भाषण में सिर्फ तल्खी ही नहीं, बेचैनी भी भरपूर थी जो उनकी देहभाषा से साफ झलक रही थी। उसी बेचैनी के चलते कांग्रेस को लोकतंत्र का दुश्मन और एक परिवार की पार्टी बताने के चक्कर प्रधानमंत्री अपने हास्यास्पद इतिहास बोध का प्रदर्शन करने से भी खुद को रोक नहीं पाए। कांग्रेस पर प्रहार करने की ललक उन पर इतनी हावी रही कि वे परोक्ष रूप से ब्रिटिश हुकूमत और मुगल शासकों के दौर को भी लोकतांत्रिक शासन बता बैठे। उन्होंने कहा- ”भारत का लोकतंत्र कांग्रेस की देन नहीं है। हमारे देश में सदियों से लोकतंत्र चला आ रहा है। लोकतंत्र हमारे देश की संस्कृति, परंपरा और हमारी रगों में है।’’

आजादी से पहले के दौर को भी लोकतांत्रिक बताने वाली उनकी इस अद्भुत जानकारी पर यह पूछना लाजिमी हो जाता है कि स्वाधीनता संग्राम से अलग रहने की वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों और हिंदू महासभा के नेताओं को गिरफ्तार न करने की अंग्रेज हुकूमत ने जो अनुकंपा की थी, क्या मोदी उसे ही लोकतंत्र मानते हैं? सवाल यह भी बनता है कि चोल, शक, हूण, तुर्क, तातार, अशोक, बाबर, औरंगजेब आदि तमाम मुगल बादशाह और अंग्रेज क्या चुनाव के जरिए हिंदुस्तान के शासक बने थे?

किसी भी देश और उसकी सरकार के लिए इससे अधिक शर्म की कोई बात नहीं हो सकती कि उसकी 80 फीसदी आबादी को अपना गुजारा करने के लिए सरकार से मिलने वाले मुफ्त अनाज पर निर्भर रहना पडे, लेकिन असफलताओं के शिखर पर बैठे और अहंकार में चूर प्रधानमंत्री मोदी ने दोनों सदनों में अपनी सरकार की मुफ्त राशन योजना का बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया। यही नहीं, उन्होंने कोरोना के मुफ्त टीकाकरण को भी अपनी सरकार की बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया, लेकिन हकीकत यह है कि आज तक जितनी चेचक, हैजा आदि तमाम बीमारियों के टीके जनता को मुफ्त में ही लगाए गए हैं, इसलिए मोदी सरकार ने कोई नया काम नहीं किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुफ्त राशन और मुफ्त टीकाकरण का बार-बार उल्लेख करना और विज्ञापनों के माध्यम से भी उसका प्रचार करना एक तरह से देश की जनता का अपमान है और मोदी को यह अपमान करने में किसी मनोरोगी की तरह बड़ा मजा आता है।

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री का यह भाषण भी उनके अन्य भाषणों की तरह देश के संसदीय इतिहास में एक बेहद स्तरहीन भाषण के रूप में दर्ज किया जाएगा। कितना अच्छा होता कि मोदी भाषा और संवाद के मामले में भी उतने ही नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते, जितने वे पहनने-ओढ़ने और सजने-संवरने के मामले में हैं। एक देश अपने प्रधानमंत्री से इतनी सामान्य और जायज अपेक्षा तो रख ही सकता है। उनका बाकी अंदाज-ए-हुकूमत चाहे जैसा भी हो।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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