Saturday, April 20, 2024

जन्मदिन पर विशेष: ‘सरदार ऊधम’ फिल्म के बहाने शहीद ऊधम सिंह की शख्सियत पर एक नज़र

13 अप्रैल, 1919, बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में रौलेट एक्ट के विरोध में सभा कर रहे विशाल जनसमूह पर जनरल रेगीनाल्ड डायर नाम के अंग्रेज अफसर के आदेश पर अंधाधुंध गोलियां चलायी गयीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार चार सौ से अधिक लोग गोलियों से मारे गये थे और दो सौ से अधिक लोग घायल हुए थे जबकि कांग्रेस की जांच कमेटी के अनुसार एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे और दो हजार के करीब लोग घायल हुए थे। मरने वालों में हिंदू, सिख और मुसलमान सभी थे। कुछ औरतें और बच्चे भी थे। अस्सी साल के बूढ़े भी थे। इस बर्बर हत्याकांड में एक छह माह का बच्चा भी मारा गया था। मरने वालों में वे घायल भी शामिल थे जो घंटों तड़पते रहे और इलाज न मिलने के कारण आखिरकार उनकी मृत्यु हो गयी। वहां मौजूद विशाल जनसमूह में हर तरह की जातियों और पेशों से जुड़े लोग भी थे।

इस बर्बर हत्याकांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। भगत सिंह की उम्र उस समय सिर्फ 12 वर्ष की थी। लेकिन इस हत्याकांड ने उन्हें इतना विचलित किया कि वे दूसरे दिन ही जलियांवाला बाग जाकर वहां खून से सनी मुट्ठी भर मिट्टी ले आये। 19 वर्ष के ऊधम सिंह इस बर्बर कांड से इस हद तक आहत हुए कि उन्होंने यह ठान लिया था कि जिनके आदेशों से यह मौत का तांडव खेला गया, एक दिन उनको इसकी सजा जरूर दूंगा। 1934 में जब ऊधम सिंह इंगलैंड पहुंचे तब तक डायर मर चुका था। 1927 में ही उसकी बीमारी से मौत हो गयी थी। लेकिन पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकेल ओड्वायर जिंदा था।

यह ओड्वायर ही था जिसने जनरल डायर को सबक सिखाने के लिए उकसाया था। हत्याकांड के लगभग 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को ऊधम सिंह ने माइकेल ओड्वायर को लंदन के केक्शटन हॉल में रिवाल्वर से गोलियां चलाकर मार डाला। ऊधम सिंह उसी समय पकड़े गये। उन पर लंदन की अदालत में मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी। 31 जुलाई 1940 को ऊधमसिंह भी भगत सिंह की तरह फांसी पर लटका दिये गये। इन्हीं ऊधम सिंह पर शूजीत सरकार ने ‘सरदार ऊधम’ नाम से फ़िल्म बनायी है जो 16 अक्टूबर 2021 को रिलीज हुई।

शूजीत सरकार इससे पहले ‘विक्की डॉनर’, ‘मद्रास कैफे’, ‘पिकु’, ‘अक्टूबर’, ‘गुलाबो सिताबो’ जैसी चर्चित फ़िल्में बना चुके हैं और उन्हें अपनी फ़िल्मों के लिए राष्ट्रीय सम्मान से भी नवाजा गया है। ऊधम सिंह पर इससे पहले भी कई फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन उन फ़िल्मों की इतनी चर्चा नहीं हुई और न ही इतने प्रभावशाली ढंग से बनायी गयीं जितनी कि ‘सरदार ऊधम’ है। हालांकि इस फ़िल्म में भी  ऊधम सिंह और उनके जीवन से जुड़ी बहुत सी घटनाओं और प्रसंगों को दिखाया गया है, वे कितने प्रामाणिक हैं, कहना मुश्किल है। विवादास्पद घटनाओं और प्रसंगों के आधार पर इस फ़िल्म को आसानी से खारिज किया जा सकता है। लेकिन इसके साथ यह भी सच्चाई है कि इन विवादास्पद प्रसंगों को लेकर इतिहासकार भी एकमत नहीं हैं और यह दावा नहीं किया जा सकता कि वास्तविकता यह है और वह नहीं है।

इसलिए इस फ़िल्म का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि ऊधम सिंह के जीवन से जुड़े तथ्य कितने सही और कितने गलत हैं बल्कि इस आधार पर होना चाहिए कि फ़िल्म ऊधम सिंह के बलिदान को आज़ादी की लड़ाई के व्यापक परिप्रेक्ष्य में किस रूप में प्रस्तुत करती है और आज़ादी की लड़ाई को कुचलने के लिए अंग्रेजी हुकुमत जिस तरह बर्बर दमन का रास्ता अपना रही थी और इस बर्बरता का जो चरम रूप जलियांवाला बाग नरसंहार के रूप में सामने आया था, न केवल उससे बल्कि आज़ादी की लड़ाई के जो केंद्रीय मुद्दे हैं, उसकी रोशनी में ऊधम सिंह की क्रांतिकारिता और बलिदान को कैसे प्रस्तुत करती है और तीसरी लेकिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात क्या यह फ़िल्म हमारे आज के समय के साथ किसी भी रूप में जुड़ती है और क्या हमें कुछ सीखने के लिए प्रेरित करती है।

लगभग ढाई घंटे की इस फ़िल्म की शुरुआत जेल से होती है और जेल में ही खत्म होती है। ऊधम सिंह को जीवन में दो बार जेल जाना पड़ा। पहली बार जब वे रिवाल्वर के साथ पकड़े गये थे और दूसरी बार लंदन में जब उन्होंने माइकेल ओड्वायर पर केक्शटन हॉल में रिवाल्वर से गोली चलाकर उसे मार डाला था और ऊधम सिंह वहीं पकड़े गये थे और उसके साढ़े चार महीने बाद उनको फांसी दे दी गयी थी। ऊधम सिंह पहली बार 1927 में गिरफ़्तार हुए और अक्टूबर 1931 में वे जेल से रिहा हुए। उसके बाद ऊधम सिंह के नाम से पासपोर्ट बनवाकर 1934 में इंगलैंड पहुंचे। इस दौरान उन्होंने और भी कई देशों की यात्रा की और विदेशों में रहने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आये, जिनमें गदर पार्टी और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के कॉमरेड थे।

इंगलैंड पहुंचने के बाद उन्होंने रेनीगाल्ड डायर और माइकेल ओड्वायर की खोज की। जल्दी ही उन्हें पता लग गया कि डायर 1927 में ही मर गया था लेकिन माइकेल ओड्वायर अभी ज़िंदा है। ऊधम सिंह ओड्वायर पर नज़र रखने लगे। यहां तक कि उनसे मिले भी और उनके घर पर नौकरी भी की। नौकरी करते हुए ओड्वायर के साथ बातचीत से ऊधम सिंह समझ जाते हैं कि इसे अपने किये पर थोड़ा भी पछतावा नहीं है बल्कि उसे गर्व के साथ बयान करता है। ऊधम सिंह को कई बार बहुत नज़दीक से ओड्वायर को गोली मारने का मौका मिला लेकिन ऊधम सिंह चाहते थे कि वे ओड्वायर को लोगों की मौजूदगी के बीच मारे ताकि लोग यह जान सकें कि ओड्वायर को एक हिंदुस्तानी ने उस बर्बर अपराध के लिए सजा दी है जो जलियांवाला बाग में उसके आदेश पर की गयी थी।

यह अवसर 13 मार्च 1940 को तब मिला जब ओड्वायर को केक्शटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेंट्रल एशियन सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में हो रही सभा में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। उस सभा में ओड्वायर गवर्नर के रूप में किये गये अपने कामों का हवाला देते हुए कहता है कि ‘मेरे पंजाब में एक लाख से ज्यादा सिख हमारी हुकुमत के लिए लड़े। हमारा साम्राज्य अच्छाई का प्रतीक था और है और इसीलिए भारत पर हुकुमत करना हमारा हक ही नहीं है बल्कि फर्ज भी है। हमारे बिना वो हैवानियत, लूटपाट और खून-खराबे पर उतर आयेंगे’। ओड्वायर के द्वारा कहलायी गयी बातें दरअसल वे तर्क हैं जिनके द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य भारत जैसे देशों पर अपने शासन को जायज ठहराती है।

ओड्वायर को मारने के लिए ऊधम सिंह एक मोटी सी किताब के बीच रिवाल्वर छुपाकर केक्शटन हॉल के अंदर ले जाते हैं। जब ओड्वायर अपना भाषण समाप्त कर वहां उपस्थित लोगों से मिल रहे थे, तब ऊधम सिंह अपनी रिवाल्वर निकालकर ओड्वायर को आवाज़ देते हुए छ: गोलियां चलाते हैं जिनमें से दो गोली ओड्वायर को लगती है और वह वहीं मारा जाता है। ऊधम सिंह को वहीं दबोच लिया जाता है। चार महीने मुकदमा चलता है। ऊधम सिंह ने अदालत में लिखित बयान भी दिया था, लेकिन फ़िल्म में उस बयान को नहीं पेश किया गया है बल्कि बहस के दौरान जो बातें उसने कही वे अपने सारतत्व में कमोबेश वे ही बातें हैं जो लिखित बयान में कही गयी थीं। फ़िल्म में ऊधम सिंह अदालत में कहते हैं कि ‘आपका ब्रिटिश एंपायर एक ट्रेडिंग कंपनी है जो कि एक साम्राज्यवादी ताकत बनकर हम पर राज कर रही है, गैरकानूनी और जबर्दस्ती’। जब ऊधम से पूछा जाता है कि क्या वह पहले भी जेल काट चुके हैं, तो वह बताते हैं कि ‘हां, चार साल’। अपने बचाव में वह लोकमान्य तिलक के प्रसिद्ध कथन को दोहराते हुए कहते हैं कि ‘आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और आज़ादी के लिए लड़ना कोई जुर्म नहीं है’। वह यह भी कहते हैं कि ‘तुम अंग्रेजों ने हमें खोखला कर दिया, हमें बांट दिया।

हमें लूटा, हमारी इज्जत छीन ली, बर्बाद कर दिया, अर्थव्यवस्था बर्बाद कर दी। अब तुम्हारा मेरे मुल्क से जाने का वक्त आ गया है’। ऊधम सिंह को फांसी की सजा सुना दी जाती है। अदालत से ले जाते वक्त वह इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाते हुए जाते हैं। अदालत में अपना बयान देते हुए ऊधम सिंह ने कहा था कि ‘मुझे मौत की सजा की कतई चिंता नहीं है। इससे मैं खौफजदा नहीं हूं और न ही मुझे इसकी परवाह है। मैं एक मकसद के लिए जान दे रहा हूं। अंग्रेजी साम्राज्य ने हमें बर्बाद कर दिया है। मुझे अपने वतन की आज़ादी के लिए जान देते हुए गर्व हो रहा है और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे बाद मेरे वतन के हजारों लोग मेरी जगह लेंगे और वहशी दरिंदों को देश से बाहर खदेड़कर देश आज़ाद करायेंगे। अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विनाश होगा। मेरी अंग्रेजी जनता से कोई दुश्मनी नहीं है। मुझे इंगलैंड की मेहनतकश जनता से गहरी हमदर्दी है। मैं इंगलैंड की साम्राज्यवादी लोगों के विरोध में हूं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’। अदालत ऊधम सिंह को फांसी की सजा सुनाती है और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी जाती है।

‘सरदार ऊधम’ फ़िल्म सीधी रेखा की तरह नहीं चलती। 1931 में जेल से छूटने और 1940 में फांसी पर लटकाये जाने के बीच फ़िल्म ऊधम सिंह के जीवन में जो कुछ घटित होता है वही नहीं दिखाती वह फ़्लेशबैक के जरिए बीच-बीच में अतीत की घटनाओं का स्मरण भी कराती है। वर्तमान और अतीत के बीच फ़िल्म लगातार आगे-पीछे चलती रहती है। इस फ़िल्म का शिल्प उन फ़िल्मों की तरह नहीं है जो एक बार ही अतीत में जाती है और फिर फ़िल्म के अंत में ही वापस आती है। इसके विपरीत कई बार यह फ़िल्म अतीत से और पीछे के अतीत में चली जाती है, लेकिन कहीं भी फ़िल्म की डोर न उलझती है और न ही टूटती है।

मसलन ऊधम सिंह द्वारा माइकेल ओड्वायर की हत्या फ़िल्म के शुरू होने के आधे घंटे बाद ही दिखा दी जाती है और इस हत्याकांड के 21 साल पहले घटित हुआ जलियांवाला बाग का नरसंहार फ़िल्म के अंतिम एक घंटे में दिखाया जाता है। इस तरह यह फ़िल्म एक साथ समय के दो स्तरों पर चलती है। एक स्तर पर फ़िल्म एक के बाद एक घटित होने वाली घटनाएं दिखाती चलती हैं। भगत सिंह और ऊधम सिंह की दोस्ती, एचएसआरए के लिए हथियार जुटाना और उसके लिए काम करना, भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा, सजा से पहले भगत सिंह का ऊधम सिंह के नाम खत, ऊधम सिंह का 1931 में जेल से छूटना, कई देशों की यात्रा करना, लंदन पहुंचना, ओड्वायर की हत्या करना, ऊधम सिंह का जेल जाना, मुकदमा चलना और अंत में फांसी दिया जाना। लेकिन इसके साथ ही दूसरे स्तर पर पहले ओड्वायर की हत्या का होना और बिल्कुल अंत में जलियांवाला बाग के नरसंहार का घटित होना। लेकिन फ़िल्म का वर्तमान और अतीत के बीच जिस तरह आवाजाही होती है, उससे कहानी कई स्तरों पर चलती और खुलती जाती है।

यह फ़िल्म एक ऐसे नौजवान की कहानी तक अपने को सीमित नहीं रखती जिसे उन लोगों से बदला लेना है, जो जलियांवाला बाग नरसंहार के लिए जिम्मेदार हैं। अगर हम फ़िल्म को केवल इस रूप में देखते हैं, तो हम फ़िल्म में अंतर्निहित संभावनाओं को नज़रअंदाज कर रहे होते हैं। फ़िल्म का नाम ‘सरदार ऊधम’ ज़रूर है, और फ़िल्म का नायक भी वही हैं, लेकिन फ़िल्म ऊधम सिंह के बहाने उन क्रांतिकारी गतिविधियों को भी कई स्तरों पर हमारे सामने लाती है, जिसे शायद इससे पहले कभी भी फ़िल्म के पर्दे पर लाने की कोशिश नहीं हुई। यह जो दूसरा संदर्भ है, उसका संबंध भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि क्रांतिकारियों की शहादत और उसके बाद के हालात में उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन को दुबारा खड़ा करना और हिंदुस्तान को आज़ाद कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन और सहयोग जुटाने से है। ऊधम सिंह के लिए भगतसिंह आदर्श और गुरु की तरह हैं।

हालांकि ऊधम सिंह भगतसिंह से सात साल बड़े थे, लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन में वे भगत सिंह से बहुत गहरे रूप में प्रभावित थे। ऊधम सिंह का मानना था कि अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने के लिए उन प्रगतिशील संगठनों और देशों का सहयोग ज़रूरी है जो या तो खुद औपनिवेशिक दासता से लड़ रहे हैं या जो साम्राज्यवाद की नीतियों के विरुद्ध हैं। यही वजह है कि ऊधम सिंह यदि एक ओर ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यकर्त्ता एलीन पाल्मर के संपर्क में रहते हैं और उससे सहयोग की उम्मीद करते हैं, तो दूसरी ओर वह आयरिश रिपब्लिक आर्मी वालों से भी संपर्क साधने की कोशिश करते हैं। वह इसी उम्मीद के साथ सोवियत संघ जाकर वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के सामने भी समर्थन और सहयोग के लिए हाथ बढ़ाते हैं।

वह और उनके साथी पैसा एकत्र कर हिंदुस्तान हथियार भेजने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन ऊधम सिंह और उनके साथियों को बहुत कामयाबी नहीं मिलती क्योंकि यही वह समय भी है जब यूरोप पर नाजीवाद और फासीवाद का खतरा मंडराने लगा है। दूसरा विश्व युद्ध शुरू भी हो जाता है, जिसे बार-बार रेडियो के समाचारों द्वारा बताया जाता है। अपनी इन कोशिशों के बीच ही ऊधम सिंह इस बात को नहीं भूलते कि उसे माइकेल ओड्वायर से बदला भी लेना है। लेकिन इस बदले को वह कभी भी अपने साथियों और उन संगठनों को जिससे वह जुड़े हैं, का मकसद नहीं बनाते ताकि जब इस काम को अंजाम दे तो किसी और पर उसकी आंच न आये।

फ़िल्म में ऊधम सिंह उसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाए गए हैं जो भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की विचारधारा थी। फ़िल्म लगातार ऐसे अवसर निकालती रहती है, जब इस विचारधारा के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट रूप से दर्शकों के सामने रखा जा सके। यह फ़िल्म का एक बहुत ही सकारात्मक पक्ष है और इसने फ़िल्म की गुणवत्ता को काफी बढ़ा दिया है। फ़िल्म में जब ऊधम सिंह पहली बार एलीन से मिलते हैं और एचएसआरए के साथ अपने संबंधों का संकेत देते हैं, तब वह एलीन के मकसद और अपने मकसद के बीच के अंतर को भी बहुत स्पष्ट शब्दों में बयान करते हैं। जब एलीन ऊधम सिंह से कहती हैं कि पूरी दुनिया की आज़ादी के लिए लड़ो। उसकी इस बात का जवाब देते हुए ऊधम सिंह कहते हैं, ‘तुम आज़ाद हो और बराबरी के लिए लड़ रहे हो। लेकिन मेरा देश आज़ाद नहीं है।

हम पहले अपने मुल्क की आज़ादी के लिए लड़ेंगे और जब आज़ादी मिल जायेगी, तब बराबरी और समानता के लिए लड़ेंगे’। एक फ़्लेशबैक में भगतसिंह अपने साथियों के सामने अपनी विचारधारा पेश करते हैं। वह इस आरोप का जवाब देते हैं कि ‘हम आतंकवादी नहीं हैं बल्कि क्रांतिकारी हैं। हम आतंक द्वारा किसी को डराना-धमकाना नहीं चाहते। क्रांतिकारी हिंसा का सहारा प्रतीकात्मक रूप में लेता है, अपने प्रोटेस्ट को रजिस्टर कराने के लिए। क्रांतिकारी आज़ादी के लिए काम करते हैं, अपनी ही नहीं सबकी आज़ादी के लिए। फ़िल्म हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों पर हुए पुलिस दमन को भी दिखाती है और फांसी के फंदे के सामने खड़े भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को भी।

फ़िल्म फांसी से पहले भगतसिंह द्वारा ऊधम सिंह को भेजे गये खत का भी उल्लेख करती है। जिसमें भगत सिंह के विचारों के और पहलू भी उजागर होते हैं। उस खत में भगत सिंह लिखते हैं कि ‘आदमी को मारा जा सकता है, लेकिन उसके विचारों को नहीं। जब विचारों का वक्त आता है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। मुफ़्त में हक कोई नहीं देगा, या तो प्रोटेस्ट के बदले मिलेगा या लड़ के। आइडयोलॉजी सही और अच्छी होनी चाहिए। अगर आइडयोलॉजी गलत है तो जो आज़ादी मिलेगी वह इस गुलामी से भी डरावनी होगी। रही बात हमारे वायलेंस के तरीके को अपनाने की। हम इंसान के खून के प्यासे नहीं है। हमें किसी आदमी से या किसी देश से नफ़रत नहीं है। हम सिर्फ़ एक इंसान के दूसरे इंसान के शोषण के खिलाफ हैं। हमें किश्तों में अपनी आज़ादियां अपने हक नहीं चाहिए और न ही किसी तरह की सेमी इंडिपेंडेंस का झांसा।

हमें सिर्फ हिंदुस्तान के ही नहीं पूरी दुनिया के किसान, मज़दूर और विद्यार्थियों का वेल्फेयर चाहिए। इसलिए हमारी मांग है, कंपलीट इंडिपेंडेंस और टोटल रिवोल्यूशन’। इस तरह फ़िल्म ऊधम सिंह को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश नहीं करती जिसका मकसद उन अंग्रेजों से बदला लेना है, जो जलियांवाला बाग के नरसंहार के लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि भगतसिंह की तरह एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में दिखाती है, जिसका मकसद न केवल देश को आज़ाद कराना है बल्कि दुनिया को शोषण मुक्त कराना भी है और बराबरी लाना भी है। 

ऊधम सिंह को फांसी दिये जाने से पहले उसके मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी स्वेन ऊधम सिंह से मिलने आता है। वह एक डिब्बे में लड्डू भी लाता है। लड्डू जो ऊधम सिंह को बहुत पसंद है। स्वेन ऊधम सिंह से कहता है कि मैं जानता हूं कि तुम कातिल नहीं हो सकते, तुमने किसी का कत्ल नहीं किया। फिर ऐसा क्या हुआ’। स्वेन की इस बात पर ऊधम सिंह जलियांवाला बाग के नरसंहार के बारे में बताता है। यह फ़िल्म का आखरी एक घंटा है। रौलेट एक्ट के खिलाफ जनता का आंदोलन, पुलिस का दमन और 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड की तैयारी करते ओड्वायर और डायर।

शांतिपूर्ण ढंग से चल रही सभा को डायर के सिपाही चारों ओर से घेर लेते हैं और बिना चेतावनी के उन पर गोलीबारी शुरू कर देते हैं। इस नरसंहार को फ़िल्म न केवल विस्तार से बल्कि अपने चरम भयावह रूप में दिखाती है। इससे ज्यादा भयावह रूप तो उन्होंने देखा होगा जो उन क्षणों में जलियांवाला बाग में मौजूद थे और जिन्होंने अपनी आंखों के सामने लोगों को गोलियों की बौछारों के बीच गिरते-मरते देखा था। शूजीत सरकार ने उसे ठीक उसी रूप में जीवंत करने की कोशिश की है और निश्चय ही रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ (1982) में दिखाये गये दृश्य से यह ज्यादा भयावह भी है जबकि ‘गांधी’ फ़िल्म का दृश्य भी कम भयावह नहीं था।

इस हत्याकांड के समय ऊधम सिंह जलियांवाला बाग में नहीं थे। जब उसका एक साथी घायल अवस्था में उसके पास पहुंचता है और उसे मालूम पड़ता है कि वहां गोलियां चली है, तब वह जलियांवाला बाग पहुंचते हैं। वह दीवार फांदकर अंदर जाते हैं। चारों ओर लाशों के ढेर लगे हैं, उसमें वह अपनी प्रेमिका और दोस्त रेशमा को ढूंढता है जो मर चुकी है। उसे घायल लोगों के कराहने की आवाज़ें आती हैं। ऊधमसिंह को कुछ समझ नहीं आता कि वह क्या करें। एक घायल औरत पानी मांगती है। वह पड़ोस के घर से गिलास में पानी लेकर आते हैं, लेकिन पानी पीने से पहले ही औरत मर जाती है। वह घायलों को कंधे पर रखकर पड़ोस के एक घर में ले जाते हैं। लेकिन मैदान में इतने घायल हैं कि वह हाथ ठेला ले आते हैं और उस पर लाद-लादकर घायलों को ले जाते हैं।

रात भर वह यही करते रहते हैं। बाद में कुछ डाक्टर और नर्सों को भी घायलों का इलाज करते दिखाया जाता है। जलियांवाला बाग का पूरा घटनाक्रम उनकों अंदर तक हिला देता है। यही घटना उन्हें क्रांतिकारियों के साथ जोड़ती है और वह देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो जाते है। लेकिन कहीं न कहीं उसके मन में उन दरिंदों को सजा देने का संकल्प भी पनपने लगता है जिनके आदेश से निर्दोष और निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलायी गयी थीं।

फ़िल्म आज़ादी की लड़ाई के वीर सेनानी के जीवन गाथा को ही प्रस्तुत नहीं करती, आज़ादी के लिए क्रांतिकारियों के संघर्ष को, उनके बलिदान को और उनकी सोच को भी बहुत ही प्रभावशाली रूप में पेश करती है।

(लेखक जवरीमल्ल पारख रिटायर्ड प्रोफेसर हैं। और आजकल गुड़गांव में रहते हैं।)

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