नई दिल्ली। ”इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चुकी थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहाँ 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने शुरू हो गए थे। इसके विरोध की एक हल्की-सी सुरीली आवाज़ सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली ‘गारियों’ (विवाह गीतों) में दिखाई दी थी। जब बारात पंगत में बैठती थी, तब स्त्रियाँ ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो’ गीत गाती थीं। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएँ और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित ‘वाटर वर्क्स’ से पानी आने लगा।” अनुपम मिश्र अपनी शानदार किताब आज भी खरे हैं तालाब में बता रहे हैं कि कैसे दिल्ली में नल लगने से यहाँ के तालाबों और कुओं पर असर पड़ा।
भिश्ती और अकबर का क्या है नाता?
नल से पानी की आपूर्ति पर एक व्यंग्य इब्ने इंशा ने उर्दू की आखिरी किताब में किया। वे हुमायूँ के शासनकाल की एक छोटी-सी झलक के रूप में लिखते हैं, ”विज्ञान और आविष्कारों के खिलाफ़ हमारी दूसरी दलील यह है कि अगर हुमायूँ के ज़माने में पानी पाइपों और नलों के ज़रिए आया करता, तो न मशकें होतीं, न सक्के (भिश्ती)। लिहाज़ा न अकबर होता, न शाहजहाँ, न बादशाही, न ताजमहल, न नूरजहाँ, न उसके कबूतर। क्योंकि हुमायूँ बिना अकबर को पैदा किए यमुना में डूब गया होता। अल्लाह, अल्लाह ख़ैर सल्ला।”
जब भिश्ती बना था बादशाह!
दरअसल, हुमायूँ को चौसा के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था और जब वह जान बचाकर भाग रहा था, तब वह नदी में डूबने लगा। तभी एक भिश्ती ने अपनी मशक में हवा भरकर उसकी मदद की थी। इसके बाद हुमायूँ ने समय आने पर उस भिश्ती को एक दिन (कहीं-कहीं ढाई दिन या फिर आधे दिन का ज़िक्र है) का बादशाह बना दिया था। उस भिश्ती ने भी अपने शासन को यादगार बनाने के लिए ‘चाम के दाम’ (चमड़े के सिक्के) चलवाए। तो भले ही एक दिन के लिए, लेकिन भिश्ती ने भी हिंदुस्तान की हुकूमत पर अपना नाम दर्ज करवा लिया। क्या पता यह लोककथा थी या हक़ीक़त, लेकिन सदियों बाद भी यह क़िस्सा ज़िंदा है।
पानी की कहानी
लेकिन यहाँ बात हो रही थी पानी के नदी से नल तक के सफ़र की, जिसने शायद इतिहास बदल दिया, पानी का भूगोल बदल दिया। अनुपम मिश्र लिखते हैं, ”शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं।” पानी की कहानी का एक किरदार है भिश्ती, जिसका ज़िक्र इब्ने इंशा ने किया। हम उसी की बात करेंगे।

जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर भिश्ती आज भी पिलाते हैं पानी
तो आख़िर कौन होते हैं ये भिश्ती? ये क्या करते हैं? और इनका पानी से क्या नाता है? यह जानने के लिए हम जुम्मे की नमाज़ के दिन जामा मस्जिद पहुँच गए, जहाँ एक शख़्स तेज़ धूप में खड़ा लोगों को बुला-बुलाकर पीने के लिए पानी दे रहा था। पानी पीने वाले हर तबके के लोग दिख रहे थे। एक रिक्शा चालक ने अपना रिक्शा रोककर एक के बाद एक दो-तीन कटोरे पानी पी लिया, तो कोई गर्मी से बेहाल अपने बच्चों को पानी पिलाता दिखा, तो कोई नमाज़ी पसीना पोंछते हुए पानी के कटोरे भरवाकर वहीं बैठकर पानी पीता, ज़रा दम लेता और आगे बढ़ता दिखा। कोई बदले में जेब में हाथ डालकर जो कुछ चिल्लर मिलते, उसे थमा देता, पर ऐसा करने वाले भी एक-दो ही दिखे।
किए जा नेकी
जिस गर्मी में इंसानी मिज़ाज चिड़चिड़ा हो जाता है, उसमें ये भिश्ती लोगों की मनुहार करते दिखे। लोगों को प्यार से बुला-बुलाकर पानी पिलाते दिखे। हमने एक भिश्ती से पूछा, ”आपको यह काम करते हुए कैसा लगता है?” जवाब में उसने कहा, ”हमें तो जी अच्छा लगता है, यह हमारी रोज़ी-रोटी है।”
हमने उससे आगे पूछा, ”धूप और गर्मी बहुत तेज़ है।” हमारे सवाल का जवाब वह आसमान की ओर एक उंगली उठाते हुए देता है, ”कोई बात नहीं, हमें अल्लाह देखता है, वही हमें हिम्मत देता है।” यह शख़्स पिछले 15 साल से जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर लोगों को इसी तरह मुफ़्त में पानी पिलाता आ रहा है-बिना नाम पूछे, बिना दाम मांगे, बिना धर्म पूछे, बिना जात पूछे, न हैसियत देखता है, न रुतबा, न कीमती कपड़ों को देखता है, न लिबास पर लगे पैबंद निहारता है। जैसे पानी पिलाना ही इसका मकसद और मज़हब हो।
बादशाही कुआँ आज भी दे रहा है पानी
यह ग़रीब है, पानी पिलाने के अलावा मज़दूरी का काम भी कर लेता है। सप्ताह के अन्य दिनों में लोगों की तादाद कम होती है, तो पानी पिलाने वाले भिश्ती भी कम दिखते हैं, लेकिन जुम्मे (शुक्रवार) के दिन क़रीब चार से पाँच भिश्ती बहुत ही मुस्तैदी के साथ लोगों को पानी पिलाते नज़र आते हैं। बदले में उन्हें मीना बाज़ार और आसपास के दुकानदार एकमुश्त पैसा दे देते हैं। एक मशक पर 40 रुपये मिलते हैं, जिसमें 20 रुपये पानी के और 20 रुपये की बर्फ आ जाती है। हमने पता लगाने की कोशिश की कि एक दिन में वे कितना कमा लेते हैं, तो जवाब मिला कि जुम्मा ही ऐसा दिन होता है, जब वे दिन में क़रीब 12 से 13 मशक पानी लोगों और दुकानदारों तक पहुँचाते हैं। पानी पिलाने के अलावा, आसपास के दुकानदारों के मटकों, कूलरों और तमाम शरबत बनाने वालों तक वे हरे-भरे शाह की दरगाह के कुएँ का पानी पहुँचाते हैं।
भिश्तियों की कितनी संख्या बची है?
कंधे पर चमड़े से बनी मशक में पानी भरकर लोगों तक पहुँचाने वालों को भिश्ती कहा जाता है। चूँकि पानी पिलाना सबाब (पुण्य) का काम माना जाता है और इसे नेकी में गिना जाता है, इसलिए कुछ लोग इन्हें बहिश्ती (जन्नत के लोग) भी कहते हैं। ये लोग ख़ुद को सक्का और अब्बासी भी बुलाते हैं। कहा जाता है कि ये अरब से आए थे और बादशाहों के साथ चलने वाले लश्कर में लोगों को पानी पिलाते थे। अब इनकी संख्या कितनी बची है, यह कहना मुश्किल है।

जामा मस्जिद की सीढ़ियों के क़रीब ही एक दरगाह है, जिसे हरे-भरे शाह साहब की दरगाह कहा जाता है। वैसे तो इस दरगाह को सरमद शहीद की दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। सरमद शहीद और औरंगज़ेब का क़िस्सा अपने आप में एक अलग दास्ताँ है, जिसका ज़िक्र फिर कभी। लेकिन इसी दरगाह में एक कुआँ है, जिसे बादशाही कुआँ भी कहा जाता है। यह कुआँ कितनी सदियों पुराना है, यह साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता, लेकिन जब शाहजहाँ ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की, तब से यह कुआँ जामा मस्जिद के एक हिस्से को पानी मुहैया करा रहा है। और आज भी इसका ठंडा पानी भिश्ती अपनी मशकों में भर-भरकर लोगों की प्यास बुझाते हैं।

कब तक ज़िंदा रह पाएगी यह रिवायत?
हमने देखा कि चार से पाँच भिश्ती लगातार कुएँ से पानी निकालकर अपनी-अपनी मशक (चमड़े की बनी थैली) में भर रहे थे। उस मशक में क़रीब 35 से 40 बाल्टी पानी आ जाता है। हालाँकि कुएँ का पानी ठंडा ही होता है, लेकिन भीषण गर्मी की वजह से उस पानी में बर्फ भी मिलाई जा रही थी। मशक में पानी और बर्फ डालने के बाद उसके मुँह पर बहुत ही हुनरमंदी के साथ एक टोंटी-नुमा छोटा-सा पाइप लगाया जाता और फिर रुख़ किया जाता है जामा मस्जिद के गेट का, जहाँ खड़े होते ही वे अपनी कमर में बँधे लाल कपड़े से चाँदी की तरह चमकते कटोरों (एल्यूमीनियम के) को निकालते हैं और लगातार खन-खन बजाते रहते हैं। साथ ही एक सदा देते हैं, ”ठंडा पानी फ्री, चिल्ड मिलेगा, गर्मी का मौसम है, ठंडा-ठंडा, कूल-कूल मिलेगा, फ्री मिलेगा, एक कटोरा नहीं, दो-दो कटोरा पियो।” आवाज़ देकर लोगों को पानी पिलाने वाले ये भिश्ती आज भी शाहजहानाबाद की सबाब से जुड़ी एक रिवायत को ज़िंदा रखे हुए हैं। हालाँकि, वे कब तक इसे ज़िंदा रख पाएँगे, यह कहना मुश्किल है। क्या पता यह पीढ़ी आख़िरी ही हो।
पीढ़ियों पुराना काम
इन्हीं भिश्तियों में से एक हैं मोहम्मद उमर। वे पीढ़ियों से जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर लोगों को पानी पिला रहे हैं। उन्हें ठीक से यह भी याद नहीं कि कब उनके अब्बा ने यह काम उन्हें सौंपा और कब इस काम को करते-करते उनकी कमर झुक गई और दाढ़ी सफ़ेद हो गई। जब उनसे पूछा कि वे कब से इस काम को कर रहे हैं, तो वे कुछ सोच में पड़ गए और कहने लगे, ”मुझे याद नहीं, लेकिन मैं हमेशा से यही काम कर रहा था।” तभी वहीं दुकान पर बैठे एक युवक ने कहा, ”मैं बच्चे से बड़ा हो गया और ये जवान से बूढ़े। मैं बचपन से इन्हें देख रहा हूँ।”
हमने उमर से पूछा कि उन्हें यह काम करते हुए कैसा लगता है? उनका जवाब था, ”पेट की ख़ातिर सब करना पड़ता है।” नेकी का काम कब पेट का सवाल बन गया, क्या पता?

मीना बाज़ार के दुकानदार देते हैं पैसा
वहीं, हमारी मुलाक़ात मोहम्मद नईम से भी हुई। नईम का गला लोगों को बुलाते-बुलाते बैठ चुका था। नईम पिछले दो-ढाई साल से इस काम को कर रहे हैं, लेकिन वे अपने परिवार की चौथी पीढ़ी हैं, जो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर लोगों को पानी पिला रहे हैं। जुम्मे के दिन वे सुबह सात बजे आ जाते हैं और लोगों को पानी पिलाना शुरू कर देते हैं। क़रीब दो बजे तक वे जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर लोगों को पानी पिलाते हैं, आसपास के दुकानदारों तक पानी पहुँचाते हैं और दो बजे के क़रीब सीढ़ियों से नीचे उतरकर मीना बाज़ार का रुख़ करते हैं, जहाँ लगे हैंडपंप से पानी भर-भरकर दुकानदारों तक पहुँचाते हैं। वहाँ वे दुकानों में रखे वॉटर जग में पानी भरते हैं। एक दुकानदार ने बताया, ”इनके पुरखे हमारे पुरखों को पानी देते आए हैं और अब हम इनसे पानी लेते हैं। दुकानदारों के यहाँ इनका पैसा बंधा हुआ है। बदले में ये सभी को मुफ़्त में पानी पिलाते हैं।”

ऐसे ही एक और दुकानदार मोहम्मद गुफ़रान से भी हमने बातचीत की। गुफ़रान बताते हैं कि वे भी भिश्ती ही हैं, लेकिन अब वे पानी पिलाने का काम छोड़ चुके हैं। जामा मस्जिद के ठीक सामने उनकी दुकान है, जो क़रीब 60 साल पुरानी है। पहले उनके अब्बा दुकान पर बैठते थे, लेकिन अब वे इस दुकान पर बैठते हैं। वे बताते हैं, ”भिश्ती आज से नहीं, बल्कि जब से जामा मस्जिद बनी है, तब से मशक में पानी भरकर कटोरों में लोगों को पानी पिलाते चले आ रहे हैं। लेकिन अब हम यह काम नहीं करते, हम दुकान पर बैठते हैं।”
मोहम्मद गुफ़रान ने अपने पुश्तैनी काम को छोड़ दिया है, जिसकी असल वजह भिश्तियों के हालात हैं। हमने एक भिश्ती से समझने की कोशिश की कि उनका जीवन कैसे चल रहा है। वे बताते हैं कि एक मशक एक सीज़न चलती है, जिसे वे ख़ुद ही बनाते हैं। पानी पिलाने के लिए एक मशक पर 40 से 50 रुपये मिलते हैं। हमने पूछा कि इतनी कमाई में उनका घर कैसे चलता है, तो उन्होंने कहा, ”हमें अपना ख़र्च कम करना पड़ता है। अल्लाह जो दे, उसका शुक्र। इसके अलावा कुछ मज़दूरी कर लेते हैं।”
कहाँ से पानी निकल सकता है, कभी इसके भी जानकार माने जाते थे
ये भिश्ती उस दौर को याद करते हैं, जब उन्हें पानी पिलाने के लिए ही नहीं, बल्कि पानी की तलाश के लिए भी बुलाया जाता था। उनसे पूछा जाता था कि कहाँ पानी मिलने की संभावना है। लेकिन आज उनका जीवन चंद मशकों तक सिमट गया है। एक भिश्ती हमें बताते हैं, ”अब कहीं भिश्ती पानी पिलाते नहीं मिलेंगे, सिवाय जामा मस्जिद के।” हमने उनसे पूछा कि क्या उनके बाद भी यह रिवायत आगे चल पाएगी? जवाब में वे कहते हैं, ”इस रिवायत के आगे बढ़ने का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं दिख रहा। सुविधाएँ बढ़ रही हैं, काम घट गया है। जब काम ही नहीं होगा, तो छोड़ना ही पड़ेगा।” हमने पूछा कि वे किन सुविधाओं के बढ़ने की बात कर रहे हैं, तो वे बताते हैं, ”हर आदमी बिसलेरी लेकर चल रहा है। उसी की माँग सबसे ज़्यादा है, तो इस पानी को कौन पिएगा? काम बंद हो जाएगा।”
बोतलबंद पानी का बाज़ार
भारत में बोतलबंद पानी का अरबों में व्यापार हो रहा है। प्यूरिफाइड, नेचुरल मिनरल वॉटर, अल्कलाइन और ब्लैक अल्कलाइन मिनरल वॉटर तक बाज़ार में उपलब्ध हैं। ऐसे में कौन गर्मी में सदियों पुराने कुएँ के ठंडे पानी को पीने का ‘जोख़िम’ उठाएगा?

भिश्तियों की गली ‘गली सक्को वाली’
भले ही यह काम सबाब से जुड़ा हो, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि जीने के लिए रोटी चाहिए। यही वजह है कि भिश्ती अब न के बराबर दिखाई देते हैं। जामा मस्जिद के क़रीब ही भिश्तियों की एक गली है, जिसके मुहाने पर लिखा है ‘गली सक्को वाली’, यानी भिश्तियों की गली। यहाँ हमारी मुलाक़ात मोहम्मद आशिक से हुई। वे बताते हैं कि इस गली में भिश्तियों के क़रीब 50 परिवार होंगे और वे सब के सब पानी पिलाने का काम छोड़ चुके हैं। उनमें से ज़्यादातर लोग खानसामा (खाना बनाने वाले) बन चुके हैं। पुराने दिनों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ”हमारे बाप-दादा भिश्ती का काम करते थे। वे बादशाहों के वक़्त से ही यह काम करते थे। हम तभी से दिल्ली में बसे हुए हैं, जब दिल्ली (नई दिल्ली की बात करते हैं) बसी भी नहीं थी। बीच में हमें सरकार में नौकरी मिली (एमसीडी के तहत)। अब सरकार ने भी नौकरियाँ ख़त्म कर दीं। अब बिल्कुल ही ख़त्म हो गया भिश्ती का काम यहाँ से।” इसके अलावा वे और तमाम वजहें भी गिनाते हैं, जिनकी वजह से यह काम प्रभावित हुआ। वे कहते हैं, ”अब जगह-जगह नल लग गए। पहले घरों में नल नहीं थे। पूरी गली में एक नल होता था। उस नल से हम अपनी मशक में पानी भरकर लोगों के घरों तक पानी पहुँचाते थे। अब तो घर-घर में नल हो गए। अब ज़रूरत ही नहीं भिश्ती की। अब भिश्ती का काम बिल्कुल ख़त्म हो गया। अब कोई नहीं बचा।” हमने उनसे जानना चाहा कि गली सक्को वाली में कोई नहीं बचा या फिर पूरे दिल्ली शहर में? तो वे दावा करते हैं कि पूरे शहर में कोई नहीं बचा।
‘दिल वाले’ और ‘अगर वाले’ नाम के थे कभी दो गुट
लेकिन जब हमने उन्हें बताया कि आज भी हरे-भरे शाह की दरगाह के पास कुछ भिश्ती हैं, जो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर पीढ़ियों से पानी पिला रहे हैं और वे भी भिश्ती हैं, तो इस बारे में वे एक दिलचस्प जानकारी देते हैं: ”जब बादशाही वक़्त था, जामा मस्जिद बन रही थी, तब हम दिल्ली के भिश्ती पानी भरते थे, काम करते थे। लेकिन फिर लोग बढ़े, तो और भिश्तियों की ज़रूरत पड़ी। कहा गया कि भिश्ती अपनी औरतों को भी काम पर भेजें। तब हम नहीं चाहते थे कि हमारी औरतें बेपर्दा हों और काम करें। हमने साफ़ मना कर दिया। तो बाहर से भिश्ती लोगों को बुलाया गया, आगरा से। तो उन्होंने पानी भरा, उनकी औरतों ने पानी भरा। इस तरह दो गुट बन गए। जो दिल्ली के रहने वाले थे, उन्हें पुकारा गया ‘दिल वाले’ और जो बाहर से आए, उन्हें कहा गया ‘अगर वाले’ (आगरा वाले)।” इन क़िस्से-कहानियों की ऐतिहासिक सत्यता क्या है, यह कहना मुश्किल है। लेकिन जब हमने जामा मस्जिद पर भिश्ती का काम कर रहे लोगों से पूछा कि वे कहाँ से हैं, तो किसी ने बताया कि वे संभल के हैं, तो कोई अमरोहा का निकला। इस बात में तो सच्चाई थी कि कोई भी पुश्तैनी दिल्ली वाला भिश्ती हमें जामा मस्जिद पर पानी पिलाने का काम करते हुए नहीं मिला।
हमें बताया गया कि गली सक्को वाली के अलावा चूड़ीवालान में भी भिश्ती रहते हैं, लेकिन वहाँ पहुँचने पर हमें कोई नहीं मिला। हाँ, एक चाय बनाने वाले शख़्स ने बताया कि वह भिश्ती है, लेकिन अब वे लोग यह काम छोड़ चुके हैं और अपनी चाय की दुकान खोल ली है।

‘गली प्याऊ वाली’
पानी पिलाने वालों का इतिहास ‘गली सक्को वाली’ तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली-6 में हमें ‘गली प्याऊ वाली’ भी मिली। वहाँ भी एक पुराना प्याऊ दिखा, लेकिन वह बंद पड़ा था और केवल गली बची थी। दिल्ली-6 में और भी कुएँ मिले, लेकिन वे भी बंद हो चुके थे।
ऐसे हालात देखकर रोना आ रहा था। दिल्ली-6 में कई कुएँ थे, लेकिन यह इलाक़ा पानी की किल्लत झेलने को मजबूर है। रिक्शों पर वॉटर जग लोगों तक पानी पहुँचा रहे हैं और कुएँ सूख चुके हैं।
(नाज़मा ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं)