हिंदी भली या कन्नड़?

कई बार दिमाग इतना चकरा जाता है कि यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सही है और कौन गलत। आदमी भ्रम में पड़ जाता है। एक पक्ष को सुनो तो लगता है वह सही है और दूसरे पक्ष को सुनो तो लगता है वही सही है। हाल में कर्नाटक में बैंक अधिकारी और ग्राहक के बीच जो हुआ वह ऐसा ही मामला है।

बेंगलूर के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई ) की चंदापुरा शाखा में एक बैंक अधिकारी ने कन्नड़ में बात करने से मना कर दिया। बैंक में पहुंचा ग्राहक महिला अधिकारी से कन्नड़ में बात करने को कह रहा था लेकिन महिला अधिकारी हिंदी में बात करने पर अड़ी हुई थी। उसने कहा कि वह हिंदी में ही बात करेगी। इस घटना का एक वीडियो वायरल हुआ। 

वायरल वीडियो के अनुसार एक व्यक्ति महिला बैंक अधिकारी से कुछ बातें कर रहा है। इसके बाद दोनों में बहस हो जाती है। महिला अधिकारी ग्राहक को हिंदी में जवाब दे रही थी तो ग्राहक ने उससे कन्नड़ बोलने को कहा। जिस पर महिला अधिकारी ने कहा कि मैं कन्नड़ नहीं बोलती। मैं केवल हिंदी में ही बात करूंगी। कुछ जगहों पर इस बातचीत का ब्योरा इस प्रकार आया है-

ग्राहक – एक सेकेंड, ये कर्नाटक है।

बैंक मैनेजर – मुझे आपने नौकरी नहीं दी है।

ग्राहक – ये कर्नाटक है मैडम।

बैंक मैनेजर – तो ये भारत है।

ग्राहक – कन्नड़ फर्स्ट मैडम।

बैंक मैनेजर – मैं आपके लिए कन्नड़ में बात नहीं करूंगी।

ग्राहक – तो आप कभी कन्नड़ में बात नहीं करेंगी ?

बैंक मैनेजर – नहीं, मैं हिंदू बोलूंगी।

बैंक मैनेजर और ग्राहक के बीच इसी तरह कुछ देर बात चलती रही। दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे। फिर बैंक मैनेजर कहती हैं- हिंदी।

ग्राहक – कन्नड़

बैंक मैनेजर – आप एसबीआई चेयरमैन से बात कर लीजिए।

ग्राहक – मैडम, यह कर्नाटक है। आपको कन्नड़ में बात करनी चाहिए। बात चेयरमैन की नहीं है, आरबीआई का नियम है कि आप जिस राज्य में हैं, वहां की भाषा आपको बोलनी होगी।

बैंक मैनेजर- मैं कन्नड़ नहीं बोलूंगी।

ग्राहक – सुपर मैडम, सुपर।

अब आप अगर ग्राहक की बात सुनते हैं तो आपको लगता है कि ग्राहक बिल्कुल सही बोल रहा है। बिजनेस के हिसाब से भी और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ( आरबीआई ) के नियम के हिसाब से भी। व्यापार का मूल सिद्धांत यह है कि जिस भाषा को अपनाने से व्यापार बढ़ता है उसे अपनाया जाता है। इसीलिए बहुत सारी बहुराष्ट्रीय और विदेशी कंपनियां तक अलग – अलग क्षेत्रों में अपना माल बेचने के लिए वहां की भाषा जानने वाले लोगों को नौकरी पर रखती हैं।  भारतीय कंपनियां भी विदेशों में व्यापार बढ़ाने के लिए वहां की भाषाएं जानने वाले लोगों को तरजीह देती हैं। यह तो देश की ही बात है। बिहार में किसी कंपनी को अपना माल बेचना है तो वह कन्नड़ भाषी को नहीं लगाती। इसी तरह उत्तर भारत की कंपनियां भी जिस राज्य में व्यापार करना है वहां की भाषा जानने वाले लोगों को प्रमुखता देती हैं। जितनी राष्ट्रीय सेवाएं हैं उनके कर्मचारियों को भी काम करने वाली जगह की भाषा की जानकारी दी जाती है। 

आरबीआई का भी नियम है कि सभी सार्वजिनक और निजी बैंकों को तीन भाषाओं – अंग्रेजी, हिंदी और संबंधित राज्य की भाषा में काम करना होता है। साथ ही ब्रांच में लगे बोर्ड, बुकलेट्स, अकाउंट खोलने के फॉर्म, पे इन स्लिप्स, और पासबुक भी इन तीनों भाषाओं में होने चाहिए। वहीं हिंदी भाषी होने के कारण यह कहा जा सकता है कि अगर महिला अधिकारी ने हिंदी में बोलने की बात कही तो उसमें गलत क्या किया ? आखिर हिंदी देश में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है। देश के करीब 40 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते हैं। हिंदी समझने वालों की तादाद तो और ज्यादा है। वहीं कर्नाटक के लोग अगर दिल्ली या उत्तर भारत में कहीं आते हैं तो वे हिंदी बोलते भी हैं और समझते भी हैं। तो अगर कर्नाटक में कोई बैंक महिला अधिकारी हिंदी बोल रही है तो वहां भी उसे समझना चाहिए। इसमें दिक्कत क्या है ? 

अगर चीजों के समझने और सुलझाने के नजरिये से देखा जाए तो ये कोई बड़ी बात नहीं थी। ग्राहक और मैनेजर अगर दोनों अपनी बात विनम्रता से कहते तो बात यूं आगे नहीं बढ़ती। अगर ग्राहक सचमुच हिंदी नहीं समझ पा रहा था तो बैंक में उपस्थित वह किसी ऐसे व्यक्ति की मदद ले सकता था जो हिंदी समझता हो। वह महिला अधिकारी की बात हिंदी में समझकर उसे कन्नड़ में समझा देता। हो सकता है उस बैंक में ही ऐसा कोई कर्मचारी हो जो उसकी मदद कर देता। लेकिन व्यक्ति अपनी समस्या सुलझाने की बजाय नियम-कानून और कन्नड़ बोलने पर जोर देने लगता है। वह कन्नड़ भाषा को प्रतिष्ठा का सवाल बना लेता है। इसी तरह महिला अधिकारी को भी अगर कन्नड़ नहीं आती थी तो वह ग्राहक को समझा सकती थी कि उसे कन्नड़ नहीं आती और किसी दूसरे की मदद ले सकती थी। लेकिन उसे भी शायद हिंदी का अभिमान था। इसलिये वह भी हिंदी में ही बात करने पर अड़ गई। एसबीआई ने मामला बढ़ता देख उस महिला अधिकारी का ट्रांसफर कर दिया।

नतीजा ये हुआ कि बात इतनी बढ़ी कि राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने उस महिला अधिकारी के रवैये की निंदा की। मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा – एसबीआई ब्रांच मैनेजर का ये व्यवहार निंदनीय है और ये आम लोगों के प्रति अपमान दिखाता है। मुख्यमंत्री ने आगे लिखा- हम एसबीआई द्वारा तुरंत उस अधिकारी का ट्रांसफर किये जाने की सराहना करते हैं। अब ये मामला बंद माना जा सकता है। मैं वित्त मंत्रालय और वित्तीय सेवा विभाग से आग्रह करता हूं कि देश भर में बैंक कर्मचारियों के लिए भाषा और संस्कृति को लेकर जागरूकता ट्रेनिंग अनिवार्य की जाए। स्थानीय भाषा का सम्मान करना लोगों का सम्मान करना है।

भाषा को लेकर दक्षिण के राज्यों में व्यावहारिक दिक्कत तो है। मेरा खुद का अनुभव है कि कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में अगर आप हिंदी और अंग्रेजी बोलते हैं तो वहां के ज्यादातर लोग या तो समझ नहीं पाते या वो जानबूझकर ( जिसकी संभावना न के बराबर हो सकती है ) आपकी बात का कोई जवाब नहीं देते। एक बार उत्तर भारतीय पत्रकारों का एक दल रात में चेन्नई से मदुरै के लिए रवाना हुआ। ड्राइवर को न हिंदी आती थी न अंग्रेजी। इस तरह वह किसी भी बात का उत्तर देने में असमर्थ था। बेंगलुरु की एक बस में कोई उत्तर भारतीय चढ़ा। उसे किसी ऐसी जगह पर जाना था जिसके बारे में न तो कंडक्टर जानता था न बस में सवार दूसरे लोग। हिंदी भी न कंडक्टर समझ पाता था न बाकी लोग। वो तो एक व्यक्ति ऐसा मिला जो टूटी-फूटी अंग्रेजी में उस व्यक्ति को गाइड कर सका। हालांकि बाद में बस से उतरने पर एक ऑटो वाले ने उसे उस जगह पर पहुंचा दिया जहां उसे जाना था। क्योंकि वो ऑटो वाला बिहार का था।

दक्षिण के राज्यों में काम करने संबंधी भाषागत दिक्कत सिर्फ केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों या उत्तर भारतीयों को ही नहीं आ रही है बल्कि कुछ दूसरी व्यावसायिक कंपनियों को भी इसका सामना करना पड़ रहा है। कन्नड़ विवाद के चलते ही बेंगलुरू की एक टेक कंपनी ने अपना दफ्तर पुणे ले जाने का फैसला किया है। कर्मचारियों पर कन्नड़ बोलने का दबाव और ट्रैफिक की दिक्कतें इसकी मुख्य वजह हैं। यह कंपनी अगले छह महीने में अपनी शिफ्टिंग पूरा कर लेगी।

दक्षिण के राज्यों में भाषा विवाद की समस्या एक बड़ी समस्या है। और यह लंबे समय से चली आ रही है। भारत सरकार की ओर से भी इसे सुलझाने की दिशा में कोई गंभीर पहल कभी नहीं की गई। जबसे बीजेपी सत्ता में आई है तब से तो वह दादागिरी के बल पर इस समस्या को हल करना चाहती है। 

उसने कई कदम ऐसे उठाये हैं जिससे हिंदी को बढ़ावा मिला है लेकिन दूसरी भारतीय भाषाओं ( केवल दक्षिण की ही भाषाएं नहीं ) की उपेक्षा हुई है। हाल में शिक्षा नीति को लेकर तमिलनाडु से हुआ विवाद, आकाशवाणी से क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों को उन राज्यों में स्थानांतरित करना और विदेशी दूतावासों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अलग से अधिकारी तय करना आदि उसी का उदाहरण है। भारतीय भाषाओं की उपेक्षा के कारण ही पिछले करीब 78 सालों में देश की तीन सौ भाषाएं लुप्त हो गई हैं। हालांकि ऐसा करने से हिंदी का भी कोई भला नहीं हो सका है।

(अमरेंद्र कुमार राय वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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