बलूचिस्तान जितना ही अमीर है, वहां के बाशिंदे उतने ही ग़रीब हैं 

बलूचिस्तान जितना ही अमीर है, वहां के बाशिंदे उतने ही ग़रीब हैं। यह वाक्य पाकिस्तान की संघीय व्यवस्था, आंतरिक उपनिवेशीकरण और पंजाबी प्रभुत्व की राजनीतिक-सैन्य-सामाजिक संरचना के विरोधाभास को स्पष्ट रूप से सामने रखता है।

 बलूचिस्तान का क्षेत्रफल और आबादी 

क्षेत्रफल के हिसाब से पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत बलूचिस्तान है और आबादी के लिहाज़ से यह पाकिस्तान का सबसे छोटा सूबा है। यह पूरे पाकिस्तान के क्षेत्रफल का 44 प्रतिशत है, जबकि यहां पाकिस्तान की पूरी आबादी के महज़ 6.85% लोग रहते हैं। इस प्रांत में बलूचों की आबादी सबसे ज़्यादा, यानी  52% है, उसके बाद पश्तून 36% हैं।शेष 12% आबादी में ब्राहुई, हज़ारा, सिंधी, पंजाबी, उज्बेक और तुर्कमेन्स जैसे छोटे-छोटे समुदाय शामिल हैं। 

बलूचिस्तान की अकूत प्राकृतिक संपदा

लेकिन,यहां पाए जाने वाले समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों और ज़िंदगी की खस्ताहाली में जो सम्बन्ध है,उसे एक बलूचिस्तानी कहावत पूरी तरह स्पष्ट कर देती है कि बलूचिस्तान में लोगों के पास मोजे नहीं हैं,मगर पड़ते हुए हर क़दम के नीचे सोने हैं। आइए संक्षेप में जानते हैं कि वहां की प्राकृतिक संपदा कितनी अकूत है: 

• गैस भंडार: 1952 में खोजे गए सूई गैस क्षेत्र ने दशकों तक पंजाब और सिंध को गैस प्रदान की है। 

• खनिज संपदा: रेको डिक में सोना-तांबा, कोयला, क्रोमाइट आदि की प्रचुरता है।

• रणनीतिक स्थान: यहां चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की धुरी, ग्वादर बंदरगाह स्थित है।

• समुद्री तट: 700 किमी से अधिक तटीय क्षेत्र।

मगर, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान देने के बावजूद बलूचिस्तान की विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य या बुनियादी ढाँचे में न्यायसंगत हिस्सेदारी नहीं है।

पाकिस्तान में पंजाबी प्रभुत्व की भूमिका

इस ग़ैर-बराबरी का मुख्य कारण है-पाकिस्तान की सत्ता संरचना में पंजाबियों का व्यापक वर्चस्व।यह वर्चस्व विशेष रूप से सेना, नौकरशाही और राजनीति में है।आइए,इन तीनों में पंजाबियों की दखल किस हद तक है,उसे संक्षेप में जानें:

 सैन्य वर्चस्व

• पाकिस्तान की सेना में 70–75% अधिकारी पंजाबी समुदाय से आते हैं।

• सेना ही राष्ट्रीय सुरक्षा, संसाधन उपयोग तथा आंतरिक दमन से संबंधित फ़ैसले लेती है, बलूच निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका एकदम न्यूनतम है।

• बलूच जनता इसे एक सैन्य क़ब्ज़ा मानती है, न कि एक संघीय साझेदारी।

संसाधनों पर नियंत्रण

• सूई गैस से पंजाब को दशकों से लाभ मिल रहा है, लेकिन बलूचिस्तान के गांव आज भी अपनी ही गैस से वंचित हैं।

• रॉयल्टी और राजस्व बंटवारा भी अन्यायपूर्ण है, जिससे स्थानीय बलूच आबादी खुद को ठगा हुआ महसूस करती है।

CPEC और ग्वादर परियोजना

• ग्वादर बंदरगाह जैसी परियोजनाओं को इस्लामाबाद और लाहौर में बैठी सत्ता द्वारा नियंत्रित किया जाता है, यहां भी बलूचों की भागीदारी न्यूनतम है।

• ज़मीन अधिग्रहण में स्थानीय लोगों को उचित मुआवज़ा या पुनर्वास नहीं दिया गया।

• रोज़गार के अवसर ग़ैर-बलूच (मुख्यतः पंजाबी) लोगों को दिए जाते हैं, जिससे बलूच युवा बेरोज़गार रहते हैं।

 बलूच लोगों की योजनाबद्ध उपेक्षा

पंजाबी प्रभुत्व का असर बलूच समाज की सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक उपेक्षा में स्पष्ट रूप से दिखता है:

• शिक्षा: पाकिस्तान में सबसे कम साक्षरता दर बलूचिस्तान में है।

• स्वास्थ्य और ढांचा: पंजाब की तुलना में बलूचिस्तान में अत्यधिक पिछड़ापन है।

• राजनीतिक आवाज़: बलूच राष्ट्रवादी नेताओं को अक्सर गिरफ़्तार कर लिया जाता है, लापता कर दिया जाता है या मौत की घाट उतार दिया जाता है।

• आर्थिक भागीदारी: बलूच युवाओं को रोज़गार और अवसरों में हाशिए पर रखा जाता है, जबकि उनके प्रदेश की संपदा पूरे देश को चलाती है।

 संघीय ढांचे में उपनिवेशी सोच

पंजाबी नेतृत्व का बलूचिस्तान के प्रति रवैया एक आंतरिक उपनिवेश जैसा है:

• केंद्र (पंजाब) को चलाने के लिए सीमांत क्षेत्र (बलूचिस्तान) का दोहन।

• सेना के ज़रिए दमन और संसाधनों पर नियंत्रण।

• बलूचों को आत्मनिर्णय, संसाधनों पर अधिकार या आत्मसम्मान से वंचित रखना।

इसका नतीजा है:

• बलूच अलगाववाद में वृद्धि।

• सशस्त्र संघर्ष, आंदोलन और घोर अविश्वास।

• राष्ट्र से कटाव और अस्मिता की लड़ाई।

 सत्ता केंद्रित व्यवस्था और बलूचों की दरिद्रता

“बलूचिस्तान समृद्ध है, लेकिन बलूच गरीब हैं”, क्योंकि वहाँ  संसाधनों की भरमार है, लेकिन उन संसाधनों पर उनका स्वामित्व नहीं। सत्ता, धन और निर्णय-निर्धारण पर पंजाबियों का वर्चस्व है, जबकि बलूचों के हिस्से में शोषण, विस्थापन और चुप्पी है।

40 प्रतिशत क्षेत्रफल वाले इस सूबे को पाकिस्तान की सरकारी नौकरी में छ: प्रतिशत की हिस्सेदारी है,342 की क्षमता वाली नेशनल असेंबली में महज़ 16 सीटें हैं। जब तक पाकिस्तान सत्ता के जातीय असंतुलन को स्वीकार कर वास्तविक संघीय ढांचे की ओर नहीं बढ़ता, तब तक बलूचों की गरीबी और पराजय और गहरी ही होती जाएगी।

इस तरह,बलूच गरीब इसलिए नहीं हैं कि उनके पास संसाधन नहीं हैं, बल्कि इसलिए उनकी बुरी गत है, क्योंकि उनके पास सत्ता नहीं है।यह ठीक वही स्थिति दशकों पहले भारत में ओबीसी,एससी और एसटी की थी,जहां उनके पास सत्ता नहीं थी,तो आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। आज ओबीसी और एससी के बरक्स एसटी की हालत कमोवेश उन बलूचों की तरह ही है, जिनके इलाक़े में संसाधन तो प्रचुर है,लेकिन हालत अच्छी नहीं है।इन बीते दशकों में ख़ासकर ओबीसी ने कुछ हद तक एससी को और बहुत हद तक एसटी को धकियाते हुए सत्ता और संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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