इजराइल ने 13 जून को ईरान पर घातक हमले किए। उसके साथ ही उसने पश्चिम एशिया को युद्ध के एक दौर में झोंक दिया। मगर यह घटनाक्रम उसके मकसद के अनुरूप आगे नहीं बढ़ा है। बल्कि यह इतिहास का एक नया अध्याय साबित होने जा रहा है। एक ऐसा अध्याय जिसमें इजराइल का रुतबा सिरे से गायब दिखेगा। 22 जून को इस लड़ाई में प्रत्यक्ष भागीदारी कर अमेरिका ने उस अध्याय को और भी अहम बना दिया। इसलिए कि अब इस अध्याय में अमेरिका भी एक अपेक्षाकृत क्षीण शक्ति के रूप सामने आएगा।
अमेरिका ने 22 जून को ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर बमबारी की। जवाब में 23 जून को ईरान ने कतर और इराक स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डों पर हमले किए। तब ये अंदेशा गहराया कि अमेरिका वापस इस युद्ध में लौटेगा। मगर आश्चर्यजनक रूप से डॉनल्ड ट्रंप ने ईरानी हमलों को कमजोर बताते हुए उन्हें गंभीरता से लेने से इनकार कर दिया। उलटे उन्होंने इजराइल और ईरान के बीच “युद्ध-विराम” का एलान कर दिया।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ट्रंप की घोषणा की पुष्टि नहीं हुई है। मगर हम मान कर चल रहे हैं कि देर-सबेर ये लड़ाई थमेगी। यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वह इस युद्ध का अंत नहीं होगा, बल्कि महज एक ठहराव होगा। इसलिए कि युद्ध के अंतर्निहित कारणों के समाधान की कोई सूरत सामने नहीं है। इस लड़ाई की पृष्ठभूमि लंबी है। संदर्भ गहरा है। ये सब जब तक कायम हैं, तब तक पश्चिम एशिया में स्थायी शांति की संभावना नहीं बन सकती।
पश्चिम एशिया में अशांति एवं अस्थिरता की जड़ इजराइल है। फिलीस्तीनियों की जमीन छीन कर औपनिवेशिक परियोजना के तहत जबरन बसाए गए इस कृत्रिम देश के शासकों ने अगर फिलस्तीनी आबादी के साथ सह-अस्तित्व को स्वीकार कर लिया होता, तो आरंभिक हिंसा के बावजूद उस क्षेत्र में युद्ध के हालात हमेशा नहीं बने रहते। 1993 में ओस्लो समझौते के तहत इजराइल सह-अस्तित्व के सिद्धांत को मानने के लिए तैयार हुआ था। द्वि-राष्ट्र समाधान (two nation solution) इसी सिद्धांत पर आधारित था।
मगर उसके बाद के 32 साल का इतिहास गवाह है कि उस समाधान के प्रति ना तो इजराइल ईमानदार था और ना ही उसके संरक्षक पश्चिमी देश। नतीजतन, इलाके में हिंसा और युद्ध की पृष्ठभूमि बनी हुई है। फिलीस्तीनियों के विभिन्न संगठन अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष का परचम संभाले हुए हैं। उनमें से ही एक- हमास ने सात अक्टूबर को ऐतिहासिक हमला किया था। उसके जवाब में गुजरे 21 महीनों में इजराइल ने गजा में आम निहत्थी आबादी का मानव संहार जारी रखा है।
अमेरिका की हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के एक नए अध्ययन के मुताबिक इजराइली मानव संहार के कारण तीन लाख 77 हजार फिलस्तीनी अब तक मारे जा चुके हैं। 55 हजार मौतों की जो संख्या बताई जाती है, वह प्रत्यक्ष हमलों में हुई मौतें हैं। परोक्ष मौतों का आकलन करें, तो संख्या पौने चार लाख से ऊपर जाती है।
फिलस्तीनियों पर इस अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध की जो ताकतें पश्चिम एशिया में लामबंद हैं, उनमें ईरान की सर्व-प्रमुख भूमिका है। चाहे लेबनान स्थित हिज्बुल्लाह हो या यमन स्थित अंसारुल्लाह (हूती) या सीरिया में बशर हाफिज अल-असद का पूर्व शासन, इन सबके साथ इजराइल के गहरे संबंध जग-जाहिर रहे हैं।
1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से ईरान जिस रूप में मौजूद है, उसमें अनेक खामियां निकाली जा सकती हैं, मगर वहां के शासकों को इस बात का श्रेय देना होगा कि उस पूरे इलाके में वे अकेले ऐसे हैं, जिन्होंने पश्चिमी साम्राज्यवाद का मातहत बनना मंजूर नहीं किया है। वरना, 1973 के यौम किप्पुर युद्ध में इजराइल की विजय के बाद से वहां के लगभग तमाम देशों ने धीरे-धीरे इजराइल संबंधी पश्चिमी एजेंडे को स्वीकार कर लिया। तब से फिलीस्तीनियों को उनका समर्थन रस्म-अदायगी भर रहा है। उन सबके बीच ईरान एक अपवाद है।
और यही कारण है कि ईरान को इजराइल अपना प्रमुख शत्रु मानता है। यही मुख्य वजह है कि अमेरिका और यूरोपीय देश ईरान की घेरेबंदी की अनवरत कोशिश में जुटे रहते हैं। जिन पश्चिमी देशों ने अपने संरक्षण में इजराइल को परमाणु हथियार संपन्न देश बनवाया है, वे ईरान के पास ऐसे हथियार आने का हौव्वा खड़ा किए रहते हैं। दरअसल, 13 जून को ईरान पर किए गए हमले का कारण भी ऐसा ही हौव्वा था।
ईरान परमाणु बम बनाने के कहीं आस-पास भी नहीं है, यह आकलन खुद डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की राष्ट्रीय खुफिया निदेशक तुलसी गबार्ड ने अमेरिकी कांग्रेस में पेश किया था। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने भी ईरान के खिलाफ हाल में जो प्रस्ताव पारित किया, उसमें ईरान के परमाणु बम बनाने के करीब होने की बात नहीं कही गई है। उसमें आरोप यह लगाया गया कि ईरान परमाणु ठिकानों की जांच में अपेक्षित सहयोग नहीं कर रहा है।
इसके बावजूद इजराइल ने 13 जून को हमले शुरू किए, तो मकसद ईरान को परमाणु क्षमता से वंचित करना बताया गया। 22 जून को अमेरिका ने भी यही मकसद बता कर ईरान के परमाणु ठिकानों पर बमबारी की। इस क्रम में ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि वे अपनी ही सरकार के खुफिया निदेशालय की तरफ से पेश आकलन की परवाह नहीं करते।
बहरहाल, इजराइल और अमेरिका असल में ईरान के परमाणु ठिकानों को कितना नुकसान पहुंचा पाए हैं, यह स्पष्ट नहीं है। उन्होंने ईरान की परमाणु तकनीक क्षमता नष्ट कर दी है, यह कहने का तो कोई भी आधार मौजूद नहीं है। उलटे खासकर अमेरिका ने परमाणु हथियारों का प्रसार रोकने के लिए मौजूद संधि- एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) के प्रभाव को अब बेहद क्षीण कर दिया है। इस संधि के तहत कहीं भी किसी परमाणु ठिकाने पर हमला नहीं किया जा सकता, क्योंकि उससे विकिरण (रेडिएशन) फैलने का भीषण खतरा पैदा होता है।
अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, इसलिए उस पर ना सिर्फ संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था, बल्कि इस विश्व संस्था की देखरेख में हुई तमाम संधियों की रक्षा का भी अतिरिक्त प्रभार है। इस नाते उसका दायित्व था कि वह इजराइल को ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले करने से रोकता। मगर उलटे वह इसमें सहभागी बना। इसलिए उचित ही यह कहा गया है कि 22 जून को उसने हमला सिर्फ ईरान पर नहीं किया, बल्कि उसने संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय नियमों, एनपीटी और अंतरराष्ट्रीय संबंध के कायदों पर भी बमबारी कर दी!
लेकिन हासिल क्या हुआ? ये लड़ाई जब भी थमेगी, तो जो बातें दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ जाएंगी, वो क्या होंगी?
ईरान पर बम गिरे, उसके बड़े सैन्य अधिकारी मारे गए, वहां सैकड़ों लोगों की जान गई, इन्फ्रास्ट्रक्चर को भारी नुकसान हुआ, ये सब महत्त्वपूर्ण बातें हैं। मगर युद्ध के इस अध्याय के प्रमुख कथा ये नहीं हैं। पश्चिम एशिया में ऐसा तो गुजरे 80 साल से होता रहा है। पहले ब्रिटेन, और फिर अमेरिका के संरक्षण में इजराइल वहां बेलगाम और मनमानी कार्रवाइयों को अंजाम देता रहा है। उसकी छवि ‘मारने वाले’ देश की रही है। पास-पड़ोस के देशों के लिए वह अभेद्य किला समझा जाता रहा है। उसके खुफिया तंत्र की छवि सर्व-ज्ञाता की रही है, जो जब जो चाहे करने में सक्षम है! 1967 के युद्ध में इजराइल ने एक साथ तीन देशों को युद्ध में पराजित कर दिया था। 1973 में एक साथ दो देश उससे पराजित हुए। उससे उसकी अपराजेय छवि बनी।
क्या जून 2025 की लड़ाई के बाद इजराइल की ये छवि बरकरार रहेगी? और क्या उसके आका यानी अमेरिका की इस क्षेत्र के नियति-नियंता छवि बरकरार रहेगी?
जो घटनाएं हुई हैं, उनमें ही इन सवालों के जवाब छिपे हुए हैं। ईरान के भीषण और सटीक हमलों में इजराइल का लहू-लुहान होना इस युद्ध की प्रमुख कथा बना है। इतिहास में यह पहला मौका है, जब इजराइल ने कहीं हमला किया, तो उस पर भी समान रूप से मार पड़ी। उसके प्रमुख रणनीतिक ठिकाने भी बर्बाद हुए। उसके यहां भी इन्फ्रास्ट्रक्चर, इमारतें, बंदरगाह मलबे में तब्दील हुए। कुख्यात खुफिया एजेंसी मोसाद का मुख्यालय जमींदोज हुआ। हताहत लोगों की हाय-तौबा वहां भी सुनने को मिली। फैले भय के कारण आबादी का पलायन वहां से भी हुआ। यानी अभेद्य किला भेद दिया गया।
और इजराइल के आका यानी अमेरिका का हाल यह है कि वहां के राष्ट्रपति को 22 जून को बम गिराने के बाद बिना ईरान को पहुंचे नुकसान का आकलन हुए ही अपनी जीत का एलान करना पड़ा। संभवतः इसलिए कि ट्रंप को अंदाजा था कि जब आकलन होगा, तो अमेरिकी हमले उतने प्रभावी नजर नहीं आएंगे, जितना वे दुनिया को बताना चाहते हैं। मगर अमेरिका की उससे भी अधिक कमजोरी 23 जून को जाहिर हुई, जब अपने सैन्य अड्डों पर ईरान के हमलों का जवाब देने का साहस उसने नहीं दिखाया।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि ईरान ने अमेरिकी अड्डों को कितना नुकसान पहुंचाया। महत्त्वपूर्ण यह है कि पश्चिम एशिया में एक देश ने अमेरिकी अड्डों पर हमला करने का जज्बा दिखाया। इन हमलों के बाद उस क्षेत्र में अब कभी अमेरिका उतना खौफनाक नहीं दिखेगा, जितना 22 जून तक दिखता था। अमेरिकी सैन्य अड्डे अब कभी अपनी सुरक्षा और दूसरों के लिए खौफ का स्रोत नहीं रह जाएंगे, जैसा वे अब तक रहे हैं।
ये बातें भावात्मक नहीं हैं। बल्कि इनके पीछे ठोस परिस्थितियां हैं, जो भू-राजनीतिक समीकरणों में आए बदलावों का परिणाम हैं। वैसे इजराइल के हमलों के बाद से ही ईरान के इर्द-गिर्द हो रही प्रतिक्रियाओं में इन बदलावों की झलक देखने को मिलने लगी थी। मगर अमेरिकी हमले के बाद ये बदलाव और मुखर हो गए। 22 जून की सुबह अमेरिका ने बम गिराए। उसके बाद जो हुआ, वह गौरतलब है।
- इन हमलों के कुछ घंटों के बाद ही ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची मास्को रवाना हो गए। वहां उनकी सीधी बातचीत रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन से हुई। पुतिन ने उनके सामने अमेरिकी हमलों की दो टूक निंदा की। रूसी राष्ट्रपति ने ईरान के प्रति खुला समर्थन जताया।
- इस बातचीत के बाद क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने यह महत्त्वपूर्ण बयान दिया कि ईरान ‘जो भी जरूरत महसूस करेगा’, रूस की उसकी पूर्ति करेगा।
- इसके पहले रूस के पूर्व राष्ट्रपति और पुतिन के करीबी समझे जाने वाले दिमित्री मेदवेदेव ने यह कह कर सनसनी फैला दी थी कि कई देश ईरान को परमाणु हथियार देने को तैयार हैं।
- मेदवेदेव की टिप्पणी के बाद यह खबर सोशल मीडिया पर बहुचर्चित हुई कि उत्तर कोरिया से एक ‘रहस्यमय खेप’ तेहरान के लिए रवाना हो गई है। इसके पहले उत्तर कोरिया औपचारिक रूप से ईरान के लिए अपना पूरा समर्थन जता चुका था। इस परमाणु हथियार संपन्न देश के सिलसिले में यह याद रखना चाहिए कि इसी वर्ष उसका रूस से रणनीतिक समझौता हुआ, जिसमें डिफेंस पैक्ट भी शामिल है। इसका अर्थ यह है कि दोनों देश अपनी रक्षा नीतियों को एक दूसरे से तालमेल बनाते हुए तय करेंगे।
- दरअसल, इजराइल के हमलों के बाद जब कुछ हलकों में यह कर कर रूस की आलोचना की जा रही थी कि वह ईरान की मदद नहीं कर रहा है, तो सेंट पीटर्सबर्ग इकॉनिकम फोरम के दौरान खुद पुतिन स्पष्टीकरण दिया। उन्होंने कहा कि ईरान के साथ अप्रैल में हुए रणनीतिक समझौते में रूस डिफेंस पैक्ट डालना चाहता था, लेकिन ईरान को वह पसंद नहीं आया। पुतिन ने यह भी कहा कि रूस ने ईरान को मिसाइल इंटरसेप्टर सिस्टम देने की पेशकश की थी, जिसकी जरूरत तब ईरानी नेतृत्व को महसूस नहीं हुई।
इस बीच चीन की भूमिका को लेकर कयास लगाए गए हैं। मगर गहराई से देखें, तो नए स्वरूप ले रहे भू-राजनीतिक समीकरणों की पृष्ठभूमि में चीन की मजबूत मौजूदगी नजर आएगी। गौर कीजिएः
- इसी लड़ाई के दौरान ईरान ने अमेरिकी जीपीएस सिस्टम से पूरी नाता तोड़ लिया। ऐसा वो इसलिए कर पाया, क्योंकि उसके पास चीन के बेइदू नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम का विकल्प मौजूद था। चीन ने तत्परता से उसे ये सेवा उपलब्ध कराई। आधुनिक युद्ध में नेविगेशन सिस्टम की अहमियत स्वयं-सिद्ध है।
- वर्षों से पश्चिमी प्रतिबंध झेल रहे ईरान के लिए चीन एक तरह की रणनीतिक जीवन-रेखा बना रहा है। ईरान के तेल का वह प्रमुख खरीदार है। बदले में वह ईरान सरकार और वहां के नागरिकों के लिए तकनीक संबंधी एवं अन्य सामग्रियों का वह सप्लायर है। यह सब चीन ने पश्चिमी प्रतिबंधों को ठेंगे पर रखते हुए किया है।
इन सबके अलावा चीन और रूस ने ईरान को कूटनीतिक स्तर पर जो समर्थन एवं सहयोग दिया है, उसके बिना ईरान आज अमेरिका एवं इजराइल को इतना प्रभावी टक्कर देने की स्थिति में नहीं आ पाता। चीन और रूस के बीच उद्देश्य की बनी एकता इस मामले में निर्णायक पहलू साबित हुई है। गौरतलब है कि इजराइली हमले के बाद पुतिन और शी जिनपिंग ने फोन पर सीधी बातचीत कर अपनी रणनीति में तालमेल बिठाया था।
चीन और रूस ने उचित ही ईरान पर हुए हमलों को नई उभर रही विश्व व्यवस्था पर आक्रमण के रूप में देखा। उनके नजरिए से देखें, तो ईरान ऐसा मोर्चा है, जिसे बचाने में उन दोनों महाशक्तियों का अपना हित भी है। दूसरी तरफ ईरान का रुतबा बढ़ा, तो उसे पश्चिमी वर्चस्व के खिलाफ फतह हुए एक मोर्चे की तरह देखा जाएगा।
फिलहाल, नए विश्व समीकरणों के सूत्रधार पश्चिमी वर्चस्व को एक और झटका देने में कामयाब हुए दिख रहे हैं। बेशक इस सफलता को यूक्रेन, व्यापार युद्ध, और तकनीकी प्रतिस्पर्धा के मोर्चों पर उन्हें मिली कामयाबियों से जोड़ कर देखा जाएगा। ये सारी घटनाएं दुनिया में उभर रही नई कहानी को और भी स्पष्ट करती जा रही हैं।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)