Friday, April 19, 2024

जलवायु परिवर्तन को लेकर महामारी जैसी कार्रवाई हो

जलवायु परिवर्तन का संकट गहराता जा रहा है। इसे लेकर दुनियाभर की सरकारें सक्रिय हैं। लेकिन उनके प्रयास नाकाफी हैं। इसे रेखांकित करती एक अनोखी पहल वैश्विक स्तर पर हुई है। दुनियाभर के 220 प्रमुख मेडिकल जर्नलों ने साझा संपादकीय प्रकाशित किया है जिसमें जलवायु-परिवर्तन को कोरोना महामारी की तरह अत्यावश्यक मानते हुए अधिक कारगर कार्रवाई करने का अनुरोध सरकारों से किया गया है ताकि वैश्विक तापमान को औद्योगीकरण के पहले के तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने से रोका जा सके।

संपादकों ने कहा है कि विज्ञान असंदिग्ध है कि वैश्विक तापमान में औद्योगीकरण के पहले से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ोत्तरी होने और जैव-विविधता में नुकसान जारी रहने से स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव होगा जिसे दोबारा पहले वाली स्थिति में लाना असंभव होगा। जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर तीव्र प्रभाव को संपादकीय में रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि यह प्रभाव जोखिमग्रस्त समुदायों, जिसमें बच्चे, वृध्द, नस्लीय अल्पसंख्यक, गरीब और बीमार लोगों पर अधिक पड़ेगा।

चिंताजनक यह है कि दुनिया के ताकतवर देश तापमान का 1.5 डिग्री से अधिक बढ़ना अपरिहार्य मानने लगे हैं और इसे स्वीकार करते नजर आ रहे हैं। इसलिए कार्रवाई अपर्याप्त हो रही है जिसका मतलब है कि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक बढ़ने की आशंका है जिसका स्वास्थ्य और पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसलिए तापमान में बढ़ोतरी को नियंत्रित करने के लिए निश्चित रूप से अधिक और तत्काल कार्रवाई किया जाना चाहिए। अनेक सरकारों ने कोविड-19 का मुकाबला करने लिए अप्रत्याशित ढंग से कोष जुटाया। उसी तरह की आपातकालीन सक्रियता की जरूरत पर्यावरणीय संकट का मुकाबला करने में भी है।

जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ रहे हैं। प्रत्यक्ष प्रभाव का उदाहरण है कि गर्मी से संबंधित बीमारियां बढ़ रही हैं, अतिशय गर्मी की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। फसल-चक्र बदल रहा है, विभिन्न फसलों की पैदावार घट रही है, एकतरफ जल का अभाव, दूसरी तरफ अतिशय वर्षा का भी स्वास्थ्य पर प्रभाव संभावित है। खाद्य पदार्थों की कमी और इस वजह से कुपोषण बढ़ना तापमान का प्रमुख अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि जलवायु-परिवर्तन की वजह से उत्पन्न कारणों जैसे कुपोषण, मलेरिया, डायरिया, और लू लगने से 2030 से 2050 के बीच लगभग ढ़ाई लाख अधिक मौतें होंगी।       

वास्तव में साझा संपादकीय चिन्हित करता है कि उच्चतर तापमान की वजह से निर्जलीकरण में बढ़ोत्तरी और गुर्दे की कार्यशीलता में क्षति हो सकती है। इसके अलावा असाध्य चर्मरोग, तीव्र संक्रमण, मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव, गर्भधारण में जटिलताएं, एलर्जी, हृदय एवं फेफड़ा संबंधी रोग और मृत्यु हो सकती है।

स्वास्थ्य पत्रिकाओं में साझा संपादकीय संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन के ग्लासोव में होने वाले 26 वें आयोजन के कुछ सप्ताह पहले प्रकाशित हुआ है।  जैव-विविधता पर संयुक्त राष्ट्र की समान तरह की बैठक भी चीन के कुनमिंग में प्रस्तावित है। यह संपादकीय ऐसा माहौल बनाने में उपयोगी हो सकता है कि इन बैठकों में ठोस और कारगर निर्णय हो सके।

आमतौर पर बड़ी बैठकों के पहले माहौल बनाने के लिए इस तरह की गतिविधियां होती हैं। जलवायु सम्मेलनों के सप्ताह या महीने भर पहले से यह सब शुरु हो जाता है। विभिन्न देश नई योजनाओं और संकल्पों की घोषणाएं करते हैं। गैर-सरकारी संगठन और शोध संस्थानें अनेक रिपोर्टें व अध्ययन जारी करते हैं, विरोध और प्रदर्शन होते हैं। यह सब निर्णय प्रक्रिया को सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इनका उदेश्य वार्ताकारों पर दबाव बनाना होता है कि अधिक कारगर समझौता हो सके। और कुछ सीमा तक इन बैठकों के अंतिम निर्णय को प्रभावित भी करते हैं।

साझा संपादकीय ने वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने पर जोर दिया है, न कि 2 डिग्री सेल्सियस जिसकी मांग वर्तमान लोकप्रिय में हो रही है। वैसे ताजा आईपीसीसी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि वर्तमान हालत में 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पार करने में दो दशक से भी कम समय लगेंगे, यह खतरनाक स्थिति है।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल पटना में रहते हैं।) 

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles