मदुरै के निकट कीलाडी, इस शब्द का उच्चारण तमिल उच्चारण के अनुकूल नहीं है, में एक पुरातत्व स्थल का उत्खनन भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे पुरातात्विक तथ्यों को लेकर सामने आया, जिससे इतिहास के कुछ नए पन्नों को जोड़ने की जरूरत बन पड़ी। इस उत्खनन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले के. अमरनाथ रामकृष्णा ने वहाँ मिले तथ्यों को लेकर एक रिपोर्ट लिखी। यह रिपोर्ट उस समय चर्चा का विषय बन गई। आने वाले समय में इस स्थल पर विस्तारित उत्खनन का कार्य चलता रहा।
यह उत्खनन क्षैतिज और गहराई दोनों स्तरों पर किया गया। यहाँ से मिले तथ्य संगम काल और कुछ उसके पूर्ववर्ती समय के थे। इन तथ्यों के आधार पर दक्षिण भारत में नगरीकरण का समय, जिसे आमतौर पर 300 ई.पू. माना जाता रहा था, वह और पीछे चला गया। यहाँ से मिले तथ्य, खासकर लोहे की उपस्थिति, इसे भारत में अन्य पुरातत्व स्थलों से मिले तथ्यों के समान प्रतीत कराते थे। साथ ही, यहाँ की नगर व्यवस्था हड़प्पा के आरंभिक समय के करीब जा बैठती है।
भारत में पहला नगरीकरण नवपाषाण काल, जिसे ताम्र-पाषाण काल का नाम भी दिया जाता है, के दौर में आता है और इसका प्रतिनिधित्व हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की नगर व्यवस्था में दिखता है। इसी समय के उत्तरवर्ती काल में गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में भी यह संस्कृति उभरती हुई दिखती है। इस उत्तरवर्ती काल के अवसान के समय में लोहे का प्रयोग भी धीरे-धीरे सामने आता हुआ दिखता है।
पुरातत्व के अध्ययन में लोहे के प्रयोग को लेकर कई तरह के दावे किए जाते रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा दावा कथित तौर पर आर्यों के आगमन और लौह अयस्कों के प्रयोग से संबंधित है। इस आगमन को सामान्यतः ई.पू. 2000 में कुछ सालों की कमी या बेशी का समय मान लिया गया है। उत्तर काला पॉलिशदार चमकदार बर्तनों के प्रयोग को लोहे के साथ जोड़कर देखा जाता है। इसी प्रकार भूरे रंग के चित्रित बर्तनों को भी ‘आर्य संस्कृति’ के प्रसार की तरह देखा जाता है।
कीलाडी में हुए उत्खनन ने काल और उससे जुड़ी संस्कृतियों के समय को एक तरह से उलट देने का काम किया है। इस उत्खनन और इससे हासिल पुरातात्विक तथ्यों का विश्लेषण करने वाले के. अमरनाथ रामकृष्णा को पिछले 9 महीनों में तीन बार स्थानांतरित किया जा चुका है। हाल ही में उन्हें पुरातत्व विभाग के धरोहर विभाग, नई दिल्ली का निदेशक पद पर नियुक्त किया गया था। अब उन्हें इसी पद पर ग्रेटर नोएडा में स्थानांतरित कर दिया गया है।
यह माना जाता है कि पुरातत्व विभाग का यह केंद्र बहुत सक्रिय अवस्था में नहीं है। इसके कारण इस स्थानांतरण को एक तरह का ‘दंडात्मक स्थानांतरण’ माना जा रहा है। इससे पहले सितंबर 2024 में उन्हें पुरातत्व विभाग के उत्खनन और अन्वेषण, नई दिल्ली का निदेशक बनाकर चेन्नई से दिल्ली बुला लिया गया था। उस समय उन्हें पदोन्नति से नवाज़ा गया था।
हालांकि इस पदोन्नति को तमिलनाडु में, और कई अन्य नज़रों में भी, केंद्र की ओर से की गई एक पूर्वाग्रह की राजनीति बताया गया था। उनके लगातार स्थानांतरण को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। उन्हें कीलाडी से 2017 में असम स्थानांतरित कर दिया गया था। वे 2021 में ही वापस चेन्नई आ पाए थे।
इस बार जो स्थानांतरण की बाढ़ उन पर थोप दी गई है, उसके पीछे उनकी कीलाडी पर 982 पेज की रिपोर्ट है, जिसे उन्होंने 30 जनवरी 2023 को पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंपा था। इस रिपोर्ट में पुरातात्विक तथ्यों की समयावधियों को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ है। समयावधियों को तय करने की अब कई उन्नत तकनीकें आ चुकी हैं, जिनमें कार्बन-तिथि निर्धारण से लेकर विकीर्णन पद्धति तक का इस्तेमाल हो रहा है। यह बताया जा रहा है कि पुरातत्व विभाग की ओर से उनकी रिपोर्ट को दुरुस्त करने, खासकर तिथिक्रम को ठीक करने के लिए कहा गया है। इसमें एक पक्ष उत्खनन स्थल के भू-स्तरीकरण का भी है।
कीलाडी से जो तथ्य मिले हैं, उनसे संगम साहित्य लगभग 300 साल और पीछे चला जाता है और इसकी समयावधि 585 ई.पू. बनती है। यहाँ से मिले बर्तनों पर सबसे पुरानी ब्राह्मी की लिखावट मिली है। यह रिपोर्ट यहाँ के इतिहास को ई.पू. 5000 साल पीछे तक ले जाती है, जो हड़प्पन काल के समानांतर और कुछ हद तक पूर्ववर्ती दिखती है। यहाँ केंद्र में भाजपा की सरकार के सामने वह सांस्कृतिक चुनौती है, जो अब तक हड़प्पन सभ्यता को सरस्वती सभ्यता से जोड़ने के लिए इतिहास, भूगोल, और पुरातत्व को ही चुनौती देने में लगी हुई है।
ऐसे में इससे हज़ार मील दूर एक ऐसे ही स्थल की खोज उनके लिए एक गंभीर चुनौती बनती हुई दिख रही है। केंद्र सरकार के संस्कृति और पर्यटन मंत्री गजेंद्र शेखावत रामकृष्णा की रिपोर्ट को ‘वैज्ञानिक रुख’ अपनाने पर जोर दे रहे हैं, तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन इस प्रकरण को ‘तमिल-विरोधी पूर्वाग्रह’ बता रहे हैं।
इस बढ़ते विवाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और तमिलनाडु राज्य पुरातत्व विभाग को आदेश दिया कि वह इस उत्खनन स्थल को अपने हाथ में ले ले। इसी जून में इस स्थल पर 11वाँ उत्खनन होना है। अब तक 20,000 पुरातात्विक तथ्य यहाँ से हासिल हो चुके हैं।
कीलाडी से मिले पुरातात्विक तथ्यों में तमिल-ब्राह्मी अभिलेख, सूत कातने की तकली, ताँबे के सुए, धागों को तानकर बाँधने वाले पत्थरों की मालाएँ, ताँबे और सोने के आभूषण, बर्तन और अन्य सामान, हाथीदाँत की चूड़ियाँ, भोजन बनाने, खाने और भंडारण के बर्तन आदि हैं। यहाँ की ईंटों की संरचनाएँ हैं। यहाँ से पशु-आधारित खेती और जीवनचर्या के प्रमाण मिले हैं।
100 एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला यह पुरातत्व स्थल एक नगर का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखता है, जहाँ खेती, दस्तकारी, और उन्नत पक्के मकानों के निर्माण और उसकी उचित व्यवस्था मिलती है। यह भारत के सभ्यता के इतिहास में एक नया अध्याय खोलता हुआ प्रतीत हो रहा है।
यह बात पूरी तरह से सच है कि वर्तमान ही अतीत को इतिहास बनाता है। यह तभी संभव है जब वर्तमान हमें अपने अतीत को देखने दे। जो वर्तमान जितना अधिक अंधा होता जाता है, वह अपने इतिहास से कटता जाता है। जिस वर्तमान को रतौंधी जैसी बीमारी हो जाए, तब वह उतना ही देखता है जितना वह बीमारी देखने देती है। इन बीमारियों को आप पूर्वाग्रह का नाम दे सकते हैं।
जब हल्दीघाटी के लिखित इतिहास को वर्तमान में इसलिए बदल दिया गया क्योंकि एक मंत्री को यह इतिहास लेखन ‘पसंद’ नहीं आया। इसी तरह में मध्यकाल के हिस्से में मुगलकाल पर काली स्याही पोत देने का निर्णय, ऐसे ही ‘पसंद’ का परिणाम था। यूरोप में उठी ‘आर्य-श्रेष्ठता’ की बीमारी जब भारत में आई, तब इसने इतिहास-दृष्टि में सिर्फ रतौंधी जैसी बीमारी ही पैदा नहीं की, इसने ज़ॉम्सीबी किस्म के प्राणी भी पैदा किए और इतिहास की धरोहरों को ही अपने निशाने पर लेना शुरू कर दिया।
हालांकि इससे न तो इतिहास नष्ट होता है, न ही नया इतिहास, जिसका दावा किया जा रहा है, बनता है और न ही लिखा जाता है। कीलाडी की रपट को भले ही ड्रॉफ्ट रपट कहकर उसे और उसे लिखने वाले को ठंडे बस्ते में डाल देने की कोशिशें की जाएं, यह रपट अपने तथ्यों के साथ सामने है और अपने समय के साथ खड़ी है।। इतिहास को वर्तमान के साथ संवाद करने से रोकना संभव नहीं है।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)