Thursday, March 28, 2024

मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत: किसानों ने सेट कर दिया आगामी चुनावों का राजनीतिक एजेंडा

मुज़फ्‍फ़रनगर में आयोजित किसानों की महापंचायत कई लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण साबित हुई है। पंचायत में लोगों की भागीदारी और नेताओं के भाषणों से मिले संदेश के आधार पर कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन अब एक दूसरे चरण में प्रवेश कर गया है। जिसमें किसानों के तीनों कानूनों को वापस लेने के साथ जनता के दूसरे मुद्दे भी शामिल हो गए हैं। इसमें तमाम सार्वजनिक संस्थानों के बेचे जाने, महंगाई से लेकर नौजवानों के बेरोजगारी तक का मुद्दा शामिल है। मंच से हुए भाषणों में सारे के सारे नेता इन मुद्दों के इर्द-गिर्द ही अपनी बात रखे और इस तरह सूबे की सत्ता को उन्होंने उखाड़ फेंकने का संकल्प जाहिर किया। इस रूप में कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन न केवल इस रैली के बाद एक दूसरे चरण में पहुंच गया है बल्कि अब यह राजनीतिक एजेंडा तय करने की भूमिका में बढ़ चला है। जिसमें सीधे-सीधे सूबे और देश की की सत्ता उसके निशाने पर हैं।

यह रैली बेहद जरूरी मौके पर हुई है। ऐसे समय में जबकि पिछले कुछ दिनों से सरकार और उसका गोदी मीडिया इस बात का लगातार दुष्प्रचार कर रहे थे कि किसान आंदोलन खत्म हो गया है और बॉर्डर से लोग अपने घरों को वापस लौट गए हैं। वहां सिर्फ तंबू ही तंबू बचे हैं। तब इस एक रैली ने उनके सारे सवालों का जवाब को दे दी है। इस बात में कोई शक नहीं कि इस दौरान खेती-किसानी के अपने कामों के चलते किसानों को अपने घरों को भी कुछ समय देना पड़ रहा था। इसका असर बॉर्डर पर जरूर पड़ा। लेकिन स्थानीय स्तर पर खासकर हरियाणा और पंजाब में किसान लगातार बीजेपी-अकाली नेताओं की घेरेबंदी के अपने अभियान को जारी रखे हुए थे। और इस मामले में कतई किसी स्तर पर ढील नहीं दी गयी थी। जिसका नतीजा हाल के मोगा और करनाल के दो लाठीचार्जों में देखा जा सकता है। लेकिन महापंचायत ने उन सारे सवालों के एक साथ जवाब दे दिए हैं। जिसकी योगेंद्र यादव ने महापंचायत में अपने तरीके से सौ सुनार की एक लोहार की बात कहकर पुष्टि ही की।

बहरहाल अगर भागीदारी की बात करें तो यह एक बेहद सफल रैली कही जा सकती है। अगर कहा जा रहा है कि मुजफ्फरनगर में सैलाब उमड़ा था तो यह कोई झूठी बात नहीं है। पूरा जीआईसी का ग्राउंड लोगों से भर गया था। वहां सिर्फ सिर ही सिर दिख रहे थे। उसके साथ ही शहर की गलियों और सड़कों पर किसान ही किसान थे। और आस-पास की छतों से लेकर सड़कों तक पर लोग खड़े होकर नेताओं के भाषण सुन रहे थे। रैली के आयोजकों को शायद इस बात का अनुमान पहले से था लिहाजा उन्होंने ग्राउंड से सटी सड़कों पर पहले से ही लाउडस्पीकर लगा दिए थे। यहां तक कि एक विरोधी विचारधारा के पत्रकार ने कहा कि शहर में इस समय एक लाख गाड़ियां आयी हुई हैं। इससे रैली में शामिल लोगों की संख्या का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे तो किसान नेता दसियों लाख की भीड़ उमड़ने की बात कह रहे थे। लेकिन एक ठोस अनुमान के मुताबिक यह संख्या 3 से 3.5 लाख तक थी। जिसमें हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मेजर भागीदारी थी। इसके अलावा यूपी के तराई और उत्तराखंड से भी किसान आए थे। साथ में पूर्वांचल से लेकर मध्य प्रदेश और दक्षिण के राज्यों का प्रतिनिधित्व भी इस पंचायत में दिखा।

इस महापंचायत का एजेंडा बिल्कुल साफ था। और उसको किसानों ने छुपाया भी नहीं। मोर्चे के केंद्रीय नेतृत्व ने इस बात को बार-बार कहा है कि बीजेपी वोट के चोट से ही डरती है। लिहाजा किसान अब यह करके दिखाएगा। इसी तर्ज पर मोर्चे ने पिछले दिनों बंगाल के चुनावों में हस्तक्षेप किया था जिसका नतीजा अपने तरीके से सामने आया और सरकार बनाने का दावा करने वाली बीजेपी को बुरी मात का सामना करना पड़ा। अब जबकि यूपी और उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं तो किसानों ने मिशन यूपी-उत्तराखंड का ऐलान कर दिया है। मुजफ्फरनगर में हुई इस पंचायत को सरकार के खिलाफ किसानों के लांचिंग पैड के तौर पर देखा जा सकता है। किसी बंगाल और दूसरे सूबे के मुकाबले किसान आंदोलन यूपी के चुनाव को इसलिए ज्यादा प्रभावित कर सकता है क्योंकि उसका एक बड़ा हिस्सा खुद आंदोलन की जद में है। इसलिए न केवल किसानों को बल्कि समाज से जुड़े दूसरे हिस्सों को भी वह बीजेपी के खिलाफ खड़ा करने में सफल हो सकता है।

इस बात में कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन के लिहाज से पूर्वांचल और मध्य यूपी का इलाका अभी भी कमजोर है। इस गैप को कैसे पूरा किया जाए यह किसान नेताओं की चिंता का विषय बना हुआ है। और वो लगातार इस मसले पर सोच रहे हैं। उन्होंने इसका हल भी खोजना शुरू कर दिया है। बताया गया है कि इस पर गहराई से विचार-विमर्श करने के लिए 9-10 सितंबर को लखनऊ में एक बैठक रखी गयी है। जिसमें मोर्चे का केंद्रीय नेतृत्व भाग लेगा। तमाम दूसरे पक्षों से इस तरह के सुझाव आ रहे हैं कि अगर किसानों के आंदोलन को लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस समेत पूर्वांचल के तमाम हिस्सों में चलने वाले नौजवानों के रोजगार आंदोलन से जोड़ दिया जाए तो यह न केवल नई गति पकड़ लेगा बल्कि एक बड़े और बेहद ऊर्जाशील आधार को अपने दायरे में समेट लेने में कामयाब हो जाएगा जो पूरे आंदोलन और उसके भविष्य के लिए एक निर्णायक बढ़त साबित होगी। यह संख्या के साथ ही गुणात्मक स्तर पर आंदोलन को एक दूसरे चरण में ले जाकर खड़ा कर देगा।

इस महापंचायत से जो कुछ और चीजें सामने आयी हैं उसको भी ध्यान रखना जरूरी है। किसान मोर्चे ने अब जिले स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करने के लिए उस दिशा में पहल करने का आह्वान लोगों से किया है। ऐसा होने पर चुनाव को जमीनी स्तर पर प्रभावित करने और उसे ऐच्छिक दिशा में मोड़ने की ताकत मिल सकती है। हालांकि कुछ लोग इसे आने वाले दिनों में अलग से राजनीतिक प्लेटफार्म खड़ा करने की दिशा में एक पहल के तौर पर भी देख रहे हैं। बहरहाल ये अभी भविष्य के गर्भ में है इस पर कुछ भी कहना अभी मुश्किल है।

इन सारी खूबियों और अच्छाइयों के बावजूद कुछ कमियां भी हैं जो पहले भी दिखती रही हैं लेकिन इस महापंचायत में खुलकर सामने आयी हैं। लिहाजा उनकी तरफ भी इशारा करना जरूरी हो जाता है। इस बात में कोई शक नहीं कि मुसलमानों और हिंदुओं के बीच 2014 के दंगे के तौर पर सांप्रदायिक ताकतों ने जो खाईं पैदा की थी वह कमोबेश अब पट गयी है। लेकिन अभी भी उसमें थोड़ा गैप मौजूद है। मुसलमान जगह-जगह किसानों का स्वागत करते दिखे लेकिन रैली में उनकी उतनी भागीदारी नहीं दिखी। और न ही मंच से उनके नेताओं को बुलवाकर इस तरह के किसी गैप को पूरा करने की कोशिश की गयी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अभी भी यह जाटों का आंदोलन बना हुआ है जनांदोलन का रूप नहीं लिया है। मंच से लगातार खापों के प्रतिनिधियों को बुलाया जाना और दूसरी जातियों और तबकों मसलन अल्पसंख्यकों के अलावा खासकर सैनियों और दलितों की उस तरह की हिस्सेदारी सुनिश्चित न कर पाना इसी का संकेत है। इस आंदोलन को 9 महीने तक खींचने और यहां तक ले आने के लिए उसके नेतृत्व को हजारों-हजार सलाम पेश किया जाना चाहिए। बावजूद इसके इस दौरान उसके बीच जितनी घनिष्ठता, एकजुटता और एकात्मकता पैदा हो जानी चाहिए थी उसका भी अभाव दिखा। इस मामले में राकेश टिकैत का व्यक्तित्व और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बड़ा प्रश्न बनी हुई है। लिहाजा तात्कालिक तौर पर योगी और उत्तराखंड के धामी को सत्ता से बेदखल करने के अपने कार्यभार को पूरा करते हुए मोर्चे को अपनी इन अंदरूनी कमियों और कमजोरियों को भी न केवल चिन्हित करना होगा बल्कि उसे दूर करने का हर संभव उपाय भी करना पड़ेगा।

एक आखिरी बात जिसके बगैर यह लेख पूरा नहीं होगा। इन सारी कवायदों का आखिर यूपी की राजनीति और उसके चुनाव पर कितना असर पड़ेगा? इस बात में कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन बाहर से केवल सहयोग कर सकता है सत्ता परिवर्तन की निर्णायक लड़ाई राजनीतिक दलों द्वारा ही लड़ी जानी है। इस मामले में विपक्ष की तरफ से पहल की जो उम्मीद थी वह नहीं दिख रही है। बंगाल में ममता जैसा एक नेतृत्व था जो मोदी-शाह की जोड़ी को तुर्की-ब-तुर्की चुनौती दे रहा था। और उसी का नतीजा था कि कारपोरेट की थैलियां खोल देने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हरचंद कोशिश के बावजूद बीजेपी नेतृत्व को मुंह की खानी पड़ी। लेकिन यूपी में कम से कम विपक्ष का ऐसा कोई चेहरा सामने नहीं आया है। बहरहाल इन सारी कमियों और कमजोरियों के बावजूद किसान आंदोलन यूपी में न केवल खुद बल्कि पूरे सूबे को निर्णायक स्थिति में ले जा सकता है। और कई बार ऐसा होता है कि परिस्थितियां ही जनता को विपक्ष बना देती हैं। और कम से कम समस्याओं और सवालों के स्तर पर यूपी को इसी नजरिये से देखा जा सकता है। लेकिन यह जनता को कितना खड़ा कर पाएगा यह सबसे बड़ा सवाल बना हुआ है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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