Saturday, April 20, 2024

राजनीतिक प्रतिशोध और असंतोष को दबाने में यूएपीए की धारा 43डी (5) का इस्तेमाल

भीमा कोरेगाँव मामले में अभियुक्त जेसुइट पादरी व मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़ादर स्टैन स्वामी की हिरासत में मौत के सन्दर्भ में क्या भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) के इस अनुरोध को स्वीकार करेगी जिसमें आग्रह किया गया है कि भारत से बिना पर्याप्त कानूनी आधार के हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को रिहा कर दिया जाए, जिसमें केवल आलोचनात्मक या असहमतिपूर्ण विचार व्यक्त करने के लिए गिरफ्तार किए गए लोग भी शामिल हैं।

इसके अलावा, इसने भारत सरकार से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा और संघ के मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए किसी को भी हिरासत में नहीं लिया जाए। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में रखना स्वीकार्य नहीं है। लेकिन इसका उत्तर नहीं में होगा, क्योंकि सरकार यूएपीए के तहत धारा 43डी (5) का इस्तेमाल राजनीतिक प्रतिशोधऔर असंतोष को दबाने में कर रही है। 

यूएपीए के तहत आरोपियों को दोषी साबित कर पाने की दर अच्छी नहीं है,क्योंकि पुलिस को दोषी ठहराने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। दोषी ठहरानेके लिए ठोस सबूत की जरुरत होती है जो पुलिस के पास पहले दिन से ही नहीं होता। पुलिस चाहती है कि मुक़दमा शुरू किए बिना एक व्यक्ति को पांच साल के लिए जेल में डाल दिया जाए। वे सिर्फ ज़मानत खारिज कराना चाहते हैं। पुलिस को कोई जांच नहीं करनी है, उन्हें सिर्फ ज़मानत का विरोध करना है। ज़मानत का विरोध होने पर कोई भी आरोपी तीन-चार साल जेल में बिता देगा, चाहे वह बेकसूर ही क्यों न हो।

अपनी मौत से दो दिन पहले ही स्वामी ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत धारा 43डी (5) की संवैधानिक वैधता को भीमा कोरेगांव के आरोपी फादर स्टेन स्वामी ने 1967 के गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की धारा 43 डी (5) की संवैधानिक वैधता को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी थी जो किसी अभियुक्त की ज़मानत को तकरीबन असंभव बना देती है (फादर स्टेन स्वामी बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी)।स्वामी ने अपनी रिट याचिका में कहा था कि धारा 43 डी (5) किसी भी आरोपी को यूएपीए के तहत जमानत दिए जाने के लिए एक अचूक बाधा उत्पन्न करती है और इस प्रकार यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करती है।

दरअसल यूएपीए की धारा 43डी (5) के प्रावधानों से न्याय की प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है। देशभर में यूएपीए के तहत गिरफ्तार अनेक अभियुक्त कई वर्ष जेलों में विचाराधीन क़ैदियों की तरह बिताते हैं जबकि उनके मुक़दमे की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाती ?

धारा 43डी(5) में कहा गया है कि संहिता में किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम के अध्याय IV और VI के तहत दंडनीय अपराध का कोई भी व्यक्ति, यदि हिरासत में है तो उसे जमानत पर या अपने स्वयं के बांड पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिए आवेदन पर सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया हो। बशर्ते कि ऐसे आरोपी व्यक्ति को जमानत पर या अपने स्वयं के बांड पर रिहा नहीं किया जाएगा यदि कोर्ट की केस डायरी या संहिता की धारा 173 के तहत की गई रिपोर्ट के अवलोकन पर यह राय है कि यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही है। स्वामी ने तर्क दिया था कि अदालत द्वारा आरोप के सत्य होने की प्रथम दृष्टया शर्त, आरोपी के लिए जमानत पाने में एक बड़ी बाधा डालती है और जमानत के प्रावधान को भ्रामक बनाती है।

यूएपीए कानून 1967 में लाया गया था। इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत दी गई बुनियादी आजादी पर तर्कसंगत सीमाएं लगाने के लिए लाया गया था। पिछले कुछ सालों में आतंकी गतिविधियों से संबंधी पोटा(POTA) औरटाडा (TADA) जैसे कानून खत्म कर दिए गए, लेकिन यूएपीए कानून अब भी मौजूद है और पहले से ज्यादा मजबूत है। अगस्त 2019 में ही इसका संशोधन बिल संसद में पास हुआ था, जिसके बाद इस कानून को ताकत मिल गई कि किसी व्यक्ति को भी जांच के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। पहले यह शक्ति केवल किसी संगठन को लेकर थी। यानी इस एक्ट के तहत किसी संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित किया जाता था। सदन में विपक्ष को आपत्ति पर गृहमंत्री अमित शाह का कहना था कि आतंकवाद को जड़ से मिटाना सरकार की प्राथमिकता है, इसलिए यह संशोधन जरूरी है। अब इस कानून को ताकत मिल गई है कि किसी व्यक्ति को भी जांच के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत जिस व्यक्ति पर आतंकवाद से संबंधित आरोप लगे हों उसे ज़मानत पर या निजी मुचलके पर तब तक रिहा नहीं किया जा सकता जब तक कि जमानत याचिका पर सरकारी वकील का पक्ष सुन न लिया जाए। इस धारा के तहत अगर अदालत यह मान ले कि जो आरोप लगाए गए हैं वो पहली नज़र में (सुनवाई से पहले ही) सही हो सकते हैं तो ऐसी स्थिति में ज़मानत पर रिहाई नहीं हो सकती।सरकारी वकील के विरोध करने पर जमानत ट्रायल कोर्ट से लगभग नामुमकिन हो जाता है।

ऐसा नहीं है कि यूएपीए के मामलों में अभियुक्तों को ज़मानत नहीं मिलती, कुछ अभियुक्तों को ज़मानत पर रिहा किया गया है।दिल्ली दंगों के मामले में गर्भवती सफ़ूरा ज़रगर को तब ज़मानत मिली थी जब सरकारी वकील ने इसका विरोध नहीं किया था, उसके पहले उनकी ज़मानत की याचिकाएँ ख़ारिज कर दी गई थीं। इसी तरह दिल्ली के दंगों के सिलसिले में यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किए कुल 22 लोगों में से तीन छात्र नेताओं–देवांगना कलिता, आसिफ़ इक़बाल तन्हा और नताशा नरवाल–को 13 महीने जेल में रहने के बाद पिछले महीने ज़मानत मिली है। इनमें से ज़्यादातर मामलों में ज़मानत की याचिकाएँ पहले कई बार ख़ारिज हो चुकी थीं।

इसी साल फ़रवरी में बॉम्बे हाई कोर्ट ने भीमा-कोरेगांव मामले के आरोपी बीमार कवि और कार्यकर्ता वरवर राव को चिकित्सा आधार पर छह महीने के लिए अंतरिम ज़मानत दी थी।ज़मानत देते वक़्त अदालत ने कहा था कि भीमा-कोरेगांव मामले में अभी सुनवाई शुरू होने में लंबा समय लग सकता है इसलिए अभियुक्त के स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें ज़मानत दी जा रही है।

17 जून को, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 2020 पूर्वी बेंगलुरु दंगों के लिए यूएपीए के तहत आरोपित 115 से अधिक आरोपियों को जमानत दे दी, जिसमें कहा गया था कि एनआईए अदालत ने आरोपियों को सुने बिना जांच के लिए समय बढ़ा दिया था। अदालत ने हवाला दिया कि जमानत देने के कारण आरोपी के कानून के तहत निष्पक्ष व्यवहार करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया था।

दरअसल यूएपीए की धारा 43डी (5) के बारे में उच्चतम न्यायालय ने साफ़ कहा कि इस धारा के प्रावधान अदालतों के अधिकार से ऊपर नहीं हैं, जिसके तहत अदालतें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर ज़मानत दे सकती हैं। इसी साल फ़रवरी में यूनियन ऑफ इंडिया बनाम केए नजीब मामले में एक यूएपीए के अभियुक्त को ज़मानत देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह माना जा जुका है कि विचाराधीन क़ैदियों को मुक़दमा चलने के दौरान अनिश्चित काल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आदर्श रूप से किसी भी व्यक्ति को अपने कृत्यों के प्रतिकूल परिणाम तब तक नहीं भुगतने चाहिए जब तक कि उसका दोष न्यायिक प्रक्रिया से सिद्ध न हो जाए।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक प्रभावी ट्रायल को सुनिश्चित करने के लिए और एक संभावित अपराधी को छोड़े जाने के जोखिम को कम करने के लिए न्यायालयों को यह तय करने का अधिकार सौंपा जाता है कि किसी व्यक्ति को लंबित मुक़दमे में रिहा किया जाना चाहिए या नहीं। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि एक बार जब यह स्पष्ट हो जाता है कि एक समयोचित सुनवाई संभव नहीं होगी और आरोपी एक लम्बी अवधि के लिए कारावास का सामना कर चुका है तो अदालतें उसे ज़मानत देने के लिए बाध्य होंगी।

हकीकत तो यही है कि जिस तरह फ़ादर स्टैन स्वामी की ज़मानत याचिका का विरोध एनआईए ने किया और वह बार-बार खारिज की गई, अंत में इस मानवाधिकार कार्यकर्ता की मौत हिरासत में हो गई, उसी तरह एनआईए ने बीमार चल रहीं सुधा भारद्वाज, हैनी बाबू, गौतम नवलखा और दूसरे अभियुक्तों की ज़मानत नहीं होने दी और इन सबकी स्थिति खराब है।इसके अलावा ज़्यादातर अभियुक्त उम्रदराज हैं, बीमार हैं, अशक्त हैं और उनकी ज़मानत एक से अधिक बार खारिज हो चुकी है। तो क्या जेल में ही मरना उनकी नियति बन गयी है?

जनकवि व सामाजिक कार्यकर्ता वरवर राव अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें भीमा कोरेगाँव मामले में स्वास्थ्य के आधार पर ज़मानत मिली, हालांकि एनआईए ने उनकी ज़मानत का भी विरोध किया था। राव 81 साल के हैं, कई तरह के रोगों से पीड़ित हैं, फ़िलहाल ज़मानत पर हैं और एक निजी अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं। बंबई हाई कोर्ट ने फ़रवरी में उन्हें स्वास्थ्य आधार पर छह महीने की सशर्त ज़मानत दी थी, जो अगस्त में ख़त्म हो जाएगी।

इस मामले में कुल मिला कर 16 अभियुक्त हैं, जिसमें सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वरवर राव, गौतम नवलखा, वरनॉन गोंजाल्विस, महेश राउत, सागर गोरखे, हैनी बाबू, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, आनंद तेलतुम्बडे, शोमा सेन, ज्योति राघोबा जगताप, सुधीर धवले और रमेश गायचोर का नाम शामिल है। स्टैन स्वामी का निधन हो गया, वरवर राव के अलावा किसी को ज़मानत नहीं मिली, किसी के ख़िलाफ़ चार्जशीट तय समय पर दायर नहीं किया गया। सुधा भारद्वाज भायखला जेल में और अन्य सभी तलोजा जेल में बंद है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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