सुपर पावर बनने की सनक और इज़राइल का हश्र

पिछली सदी से अब तक मुसलमानों और उदारवादी कार्यकर्ताओं की कई पीढ़ियाँ इस धारणा में जीती रहीं कि एक अकेला इज़राइल 57 मुस्लिम देशों पर भारी रहा है। यह धारणा 1967 के अरब-इज़राइल युद्ध में इज़राइल के हाथों मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की हार के साथ और मज़बूत हुई थी।

तब से इस विषय पर सैकड़ों-हज़ारों रिपोर्ट्स, लेख और किताबें लिखी जा चुकी हैं, और लाखों चर्चाओं में यही बात दोहराई जाती रही। जो लोग इतिहास से अनभिज्ञ हैं या वैश्विक राजनीतिक घटनाक्रमों के पीछे के कारकों को नहीं समझते, वे आज भी यही राग अलापते हैं।

जानबूझकर इस तरह की बातें करने वाले या तो मूर्ख हैं या दक्षिणपंथी तत्व, जैसे भारत में नफरत की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी और इसके सहयोगी संगठन। ये तत्व इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करते हैं कि पश्चिमी देशों ने अपनी पुरानी दुश्मनी निकालने के लिए इज़राइल को अरबों के बीच चालाकी से स्थापित किया था।

यदि इज़राइल की अवधारणा, इसके गठन, विवादों, युद्धों और समझौतों पर नज़र डालें, तो यह स्पष्ट होता है कि यह कृत्रिम रूप से बनाया गया देश पूरी तरह पश्चिमी देशों की मुस्लिम विरोधी नीतियों और उन पर नियंत्रण व शक्ति संतुलन के लिए बनाया गया था।

उन्नीसवीं सदी के अंत में, जब यूरोपीय देश उस्मानिया सल्तनत को घेरने की चालें चल रहे थे, उसी दौरान इस अवैध देश को बनाने का विचार शुरू हुआ। सबसे पहले 1897 में स्विट्ज़रलैंड के बेसल में यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने के लिए ज़ायोनी सम्मेलन आयोजित किया गया था।

1917 में ब्रिटिश विदेश मंत्री आर्थर बाल्फ़ोर ने लॉर्ड वाल्टर रोथ्सचाइल्ड को एक पत्र लिखा, जिसमें फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर बनाने के लिए ब्रिटिश समर्थन व्यक्त किया गया। प्रथम विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्रों और उस्मानिया सल्तनत की हार के बाद, 29 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के गठन के ब्रिटिश प्रस्ताव को स्वीकृति मिली, जिसे अरब देशों ने स्वीकार नहीं किया।

नौ साल बाद, 1956 में मिस्र द्वारा स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण के जवाब में इज़राइल और ब्रिटेन ने मिलकर मिस्र पर हमला किया। दिसंबर में, संयुक्त एंग्लो-फ़्रेंच हस्तक्षेप के बाद, क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र आपातकालीन बल तैनात किया गया, और मार्च 1957 में इज़राइली सेना वापस हट गई। स्वेज़ संकट के समाधान को अरबों की इज़राइल पर जीत के रूप में देखा गया।

1967 के अरब-इज़राइल युद्ध ने धीरे-धीरे यह स्पष्ट कर दिया कि इज़राइल की जीत वास्तव में उसकी अपनी जीत नहीं थी, बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देशों की संयुक्त जीत थी। बिना पश्चिमी सहायता के इज़राइल एक पल भी जीवित नहीं रह सकता।

1967 के बाद इज़राइल और अरब देशों के बीच हुए सभी विवादों, युद्धों और समझौतों में पश्चिमी देशों ने इज़राइल का पक्ष लिया और फिलिस्तीनी अधिकारों की उपेक्षा करते हुए इज़राइल के हितों का संरक्षण किया।

1973 के योम किप्पुर युद्ध में भी यही हुआ। यह युद्ध, जो इस्लामी पवित्र महीने रमज़ान तक चला, 26 अक्टूबर को समाप्त हुआ। इज़राइल ने 11 नवंबर को मिस्र और 31 मई 1974 को सीरिया के साथ औपचारिक युद्धविराम समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

इसके बाद 1979 में कैंप डेविड समझौता हुआ, जिसमें मिस्र और इज़राइल के बीच शांति संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके परिणामस्वरूप इज़राइल सिनाई प्रायद्वीप से हट गया। इस समझौते ने दोनों देशों के बीच 30 वर्षों से चली आ रही युद्ध की स्थिति को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया।

हालांकि, अरब-फिलिस्तीन और इज़राइल विवादों को सुलझाने के लिए 1991 में मैड्रिड समझौता भी हुआ, लेकिन इसका कोई ठोस प्रभाव नहीं हुआ।

1993 में ओस्लो में दो समझौते हुए। पहला, ओस्लो I, 13 सितंबर 1993 को हुआ, जिसमें इज़राइल और फिलिस्तीनी नेतृत्व ने पहली बार एक-दूसरे को मान्यता दी और दशकों पुराने संघर्ष को समाप्त करने का संकल्प लिया। दूसरा समझौता, ओस्लो II, सितंबर 1995 में हुआ, जिसमें शांति प्रक्रिया के लिए गठित निकायों की संरचना और ज़िम्मेदारियों का विस्तार से उल्लेख था।

ओस्लो समझौतों ने फिलिस्तीनी आत्मनिर्णय की अवधारणा को सामने लाया, जो इज़राइल के साथ-साथ फिलिस्तीनी राज्य की स्वीकार्यता से जुड़ा था। इसका अर्थ था कि 1948 में फिलिस्तीनी ज़मीन पर बने इज़राइल को फिलिस्तीनी राष्ट्रीय संप्रभुता के दावों को स्वीकार करना होगा। इसके लिए कई कदम उठाए जाने थे, जिसमें 1967 से अवैध रूप से कब्ज़े वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों से इज़राइली सेना की चरणबद्ध वापसी और फिलिस्तीनी प्रशासन को सत्ता हस्तांतरण शामिल था। यरूशलेम की स्थिति (जिसका पूर्वी हिस्सा फिलिस्तीनी ज़मीन पर है) और इज़राइल की अवैध बस्तियों जैसे मुद्दों पर बाद में बातचीत होनी थी।

इस समझौते के परिणामस्वरूप फिलिस्तीनी प्राधिकरण (PA) का गठन हुआ, और पश्चिमी तट को क्षेत्र A, B और C में विभाजित किया गया। लेकिन, फिलिस्तीनी क्षेत्रों में प्रशासन को लेकर इज़राइल ने लगातार दोहरा रवैया अपनाया।

लोग कहते हैं कि इज़राइल शांति चाहता है, लेकिन वहाँ मोसाद आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रचारक रहा। 1993 और 1995 के ओस्लो समझौतों से शांति की उम्मीद जगी थी। इज़राइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन, जो वामपंथी लेबर पार्टी के नेता थे, मोसाद के प्रभाव से अलग होकर इज़राइल को स्वतंत्र रूप से विकसित करना चाहते थे। यह बात मोसाद को पसंद नहीं आई, और 4 नवंबर 1995 को तेल अवीव में एक शांति रैली के दौरान मोसाद के एजेंट यिगाल अमीर ने उनकी हत्या कर दी।

फिलिस्तीनी हमलों और यहूदी आतंकवादियों द्वारा यित्ज़ाक राबिन की हत्या ने समझौतों को तोड़ दिया, जिससे क्षेत्र में फिर से शत्रुता और तनाव का माहौल बन गया। 2000 में कैंप डेविड में इज़राइल और PLO के बीच वार्ता टूटने के बाद, फिलिस्तीनियों ने दूसरा इंतिफ़ादा शुरू किया।

इसके बाद भी कई समझौतों की कोशिशें हुईं, लेकिन पश्चिमी देशों के सक्रिय सहयोग से इज़राइल ने फिलिस्तीनी अधिकारों को लगातार कुचला। 2005 से 2008 के बीच फिलिस्तीनियों को ओस्लो समझौतों के लागू होने की उम्मीद थी, लेकिन इज़राइल के मुकरने के बाद दमन का दौर फिर शुरू हो गया।

उस समय पश्चिमी तट और पूर्वी यरुशलम में 1,10,000 से ज़्यादा यहूदी बस्तियाँ थीं, जो आज बढ़कर 7,00,000 से अधिक हो चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून इन बस्तियों को अवैध मानता है, लेकिन इज़राइल ने हमेशा इस पर चालाकी दिखाई।

इस बीच, फिलिस्तीन की आंतरिक राजनीति में उथल-पुथल हुई, और नेतृत्व की असफलता के कारण हमास जैसे असंतुष्ट विद्रोही संगठन का उदय हुआ। धीरे-धीरे फिलिस्तीनी असंतुष्ट समूहों का नेतृत्व हमास के हाथों में चला गया, जिसके बाद हमास और इज़राइली सशस्त्र बलों के बीच मुठभेड़ें शुरू हो गईं।

पश्चिमी देशों के रणनीतिकार और स्वयं को समाजवादी व उदारवादी कहने वाले लोग भी इज़राइल की आतंकवादी गतिविधियों की अनदेखी करते रहे। 2008 के बाद से गाज़ा के फिलिस्तीनी इज़राइली सेना के आतंक का सामना कर रहे हैं, जिसमें पांच साल के बच्चों से लेकर 70 साल के बुजुर्गों की हत्या, अपहरण, अवैध हिरासत और जेल जैसी अमानवीय कार्रवाइयाँ शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2008 से 2020 तक के 12 वर्षों में इज़राइली सेना ने 1,20,000 फिलिस्तीनियों की हत्या की और हज़ारों को अवैध रूप से जेल में रखा। इसके बाद अक्टूबर 2023 से अब तक इज़राइल ने लगभग 60,000 फिलिस्तीनियों की हत्या की, जिनमें 20,000 बच्चे शामिल हैं।

दक्षिणपंथी लोग बीच-बीच में कहते हैं कि फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने भी इज़राइली बच्चों और बुजुर्गों की हत्या की, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सत्ता द्वारा प्रायोजित आतंकवाद ज़्यादा ख़तरनाक होता है और उसकी हिंसा बहुआयामी होती है। फिलिस्तीनी हमलों में मारे गए इज़राइलियों की संख्या लगभग 5,000 है, जबकि इज़राइली सेना ने सवा लाख हत्याएँ कीं, जिनमें हज़ारों बच्चे शामिल हैं। विश्व में इन हत्याओं का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा था, और ईरान को छोड़कर अरब देशों ने भी इस पर बात करना बंद कर दिया था। लेकिन हमास ने लगातार डटकर इज़राइल का मुक़ाबला किया।

इसीलिए फिलिस्तीनी जनता हमास के पीछे एकजुट हुई, क्योंकि 2008 से पश्चिमी देशों ने फिलिस्तीनी अधिकारों को हाशिए पर डालना शुरू कर दिया था। हमास ने अपनी जान जोखिम में डालकर और बलिदान का जज़्बा दिखाकर फिलिस्तीनी मुद्दे को फिर से जीवित कर दिया।

वर्तमान में ईरान और इज़राइल के बीच तनाव और युद्ध की शुरुआत इज़राइल की शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों से हुई। इज़राइल ने अपनी कथित आत्मरक्षा के नाम पर हाल के वर्षों में न केवल ईरानी सैन्य अधिकारियों की हत्या की, बल्कि कथित परमाणु बम की आशंका के आधार पर ईरानी वैज्ञानिकों की हत्याएँ भी कीं और उन्हें न्यायसंगत ठहराने का प्रचार किया। यह ऐसा ही है जैसे कोई गुंडा नहीं चाहता कि कोई उसके ख़िलाफ़ बोले और उसकी गुंडागर्दी चलती रहे।

अमेरिकी लॉबी ने इज़राइल की आतंकवादी कार्रवाइयों को आत्मरक्षा का नाम देकर उसकी खूब प्रशंसा की। इसीलिए इज़राइल ने अपनी कथित “उन्नत” तकनीक और “अभेद्य” सुरक्षा के नाम पर एक डरावना प्रचार खड़ा किया। इसी घमंड में उसने ईरान को दबाने की पूरी कोशिश की।

ईरान, फिलिस्तीन के प्रति अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण, पश्चिमी देशों और इज़राइल की आँख का काँटा बना रहा। इस काँटे को निकालने की बहुत कोशिशें हुईं, लेकिन नतीजा सिफ़र रहा।

इज़राइल का कथित अभेद्य आयरन डोम, अचूक मिसाइलें और सुपर पावर होने का घमंड सब मिट्टी में मिल गया। अरब देशों के मुक़ाबले सुपर होने का दावा हमास के अक्टूबर 2023 के हमले में ध्वस्त हो गया। 13 जून के बाद ईरानी “स्वदेशी” मिसाइलों की मार से इज़राइली शहरों की हालत ने उसकी तकनीक और सुरक्षा के दावों को बेनक़ाब कर दिया।

यह भी कयास लगाया जा रहा है कि इज़राइल का घमंड और हथियार बाज़ार में उसका बढ़ता दखल कुछ पश्चिमी देशों को खटक रहा था। हथियार बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी छिनने के कारण इज़राइल को वह समर्थन नहीं मिला, जिसकी उसे उम्मीद थी। इसीलिए युद्ध के तीसरे दिन से इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की बार-बार अपील के बावजूद न तो अमेरिका युद्ध में कूदा और न ही अन्य पूँजीवादी देशों ने सक्रिय समर्थन दिया। युद्ध के नौवें दिन ईरान के कथित परमाणु केंद्रों पर अमेरिकी हमला ज़्यादा प्रतीकात्मक था, रणनीतिक कम। युद्धविराम भी इसी कड़ी का हिस्सा है। इससे यह सिद्ध होता है कि इज़राइल का अस्तित्व अमेरिकी समर्थन पर टिका है।

(इस्लाम हुसैन गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और काठगोदाम, नैनीताल में रहते हैं)

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