आज कल पति-पत्नी के बीच हत्या और हिंसा की इतनी ज्यादा घटनाएं हो रही हैं जिनका कोई हिसाब नहीं है। कहीं पत्नी प्रेमी के साथ मिलकर हनीमून के दौरान पति की हत्या करवा दे रही है तो कहीं पति को मारकर उसकी लाश को घर में ही ड्रम में सीमेंट से सील कर दिया जा रहा है। कहीं जहर देकर घटना को अंजाम दिया जा रहा है तो कहीं किसी दूसरे तरीके अपनाए जा रहे हैं। एक-एक कर इन घटनाओं को गिनाना यहां मकसद नहीं है। बल्कि ऐसा क्यों हो रहा है?
इसके पीछे क्या वजहें हैं? और कैसे इनको रोका जा सकता है। इन सारे मुद्दों पर सोचने-समझने और विचार करने के लिए यह लेख लिखा जा रहा है। दरअसल पिछले तीस सालों में समाज, देश, राजनीति, अर्थव्यवस्था और उसकी संस्कृति में जो बदलाव आया है उसका न तो व्यवस्थित तरीके से अध्ययन हुआ है और न ही उसके जरिये किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद जरूरी बदलावों को अंजाम दिया जा रहा है। नतीजा यह है कि घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और समाधान का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे भारतीय समाज किसी अंधी गली में जाकर फंस गया हो।
इंटरनेट और डिजिटल क्रांति ने समाज को बिल्कुल बदल कर रख दिया है। खासकर युवा पीढ़ी इस मामले में बहुत आगे खड़ी हो गयी है। लेकिन इन माध्यमों से जो लोग परिचित नहीं हैं या फिर उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं वो अभी भी उसी पुराने दौर और खयालात में जी रहे हैं। डिजिटल क्रांति ने युवाओं का न केवल देश के भीतर बल्कि दुनिया में चलने वाली चीजों से परिचय करा दिया है। इस लिहाज से उनके दिमाग, सोच और खलायात में एक क्रांतिकारी बदलाव आ गया है। पिछले तीस साल यही हैं जब महिलाओं के अधिकारों पर भी सबसे ज्यादा बातें हुई हैं। नौकरियों में आरक्षण की बात हो या फिर महिलाओं को घरों से निकल कर बाहर काम करने का मसला घर हो या परिवार या फिर सरकार सभी ने मिलकर प्रोत्साहित किया है।
इस कड़ी में महिलाओं का जबर्दस्त सशक्तीकरण हुआ है। महिलाओं ने न केवल स्वतंत्र रूप से सोचना शुरू किया है बल्कि उन्होंने अब अपने फैसले भी स्वतंत्र रूप से लेने शुरू कर दिए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देश में होने वाले विभिन्न किस्म के चुनाव हैं। वह लोकसभा हो या कि विधानसभा या फिर कोई स्थानीय निकाय महिलाएं अब बढ़-चढ़ कर उनमें हिस्सा लेती हैं। अनायास नहीं राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्रों में महिलाओं के लिए अलग-अलग योजनाएं और नगद धन मुहैया कराने की व्यवस्था करनी शुरू कर दी है। क्योंकि अब वह अपने घर के पुरुषों से पूछकर मतदान नहीं करती हैं। किसको वोट करना है वो अपने फैसले खुद लेती हैं।
ऐसे में ऐसी लड़कियां जो पढ़ी-लिखी हैं और इंटरनेट से लेकर डिजिटल प्लेटफार्म पर सक्रिय हैं। उनकी चेतना और दिमागी स्थिति का अंदाजा लगाना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है। और वैसे भी आजकल फिल्मों से लेकर आम जीवन में लड़कियां अपने फैसले खुद ले रही हैं। यहां तक कि मिडिल क्लास जो अभी तक अपनी बेटियों की शादियां बेहद परंपरागत तरीके से करता आया था। वह अपनी बेटी के लिए सुयोग्य लड़का देखता था और लड़के की हैसियत के मुताबिक दहेज देकर उनकी शादियां करा देता था। इस तरह से एक लंबे दौर तक मध्य वर्ग इसी परंपरा का पालन करता रहा।
लेकिन इस पूरे दौर में होता यह था कि लड़कियां बहुत पढ़ी नहीं होती थीं। उनकी कामचलाऊ पढ़ाई करवा दी जाती थी। और फिर अच्छे घर में उनको ब्याहे जाने की व्यवस्था कर दी जाती थी। जिसमें यह बात तय रहती थी कि महिला को पति के घर में जाकर नौकरी नहीं करनी है और घरेलू महिला बनकर घर-परिवार की सेवा करनी है। यह अंडरस्टैंडिंग लड़की के पिता से लेकर होने वाले पति और उसके परिवार तक के बीच रहती थी।
लेकिन अब मामला बिल्कुल बदल गया है। पिता अपने बेटे और बेटियों में कोई भेदभाव नहीं करता है। वह बेटी को भी बेटे के ही बराबर शिक्षा दे रहा है। और उसका भी उसी तरह से पालन-पोषण कर रहा है जैसे वह बेटे की करता है। इस कड़ी में लड़कियां हर क्षेत्र वह इंजीनियरिंग हो या कि मेडिकल, एकैडमिक हो या कि कोई दूसरा क्षेत्र लड़कों से कंधे से कंधा मिलाकर उनसे प्रतियोगिता कर रही हैं। और कई जगहों पर तो देखा जा रहा है कि वह लड़कों के मुकाबले बेहद अव्वल हैं। ऐसे में मां-बाप को भी अपनी बेटी की शादी को लेकर उतनी चिंता नहीं रहती है। क्योंकि पढ़ने-लिखने के बाद लड़की को अच्छा रोजगार मिलने पर शादी के लिए लड़कों की खुद ही कतार लग जाती है। या फिर इस कड़ी में लड़कियों को अपना कोई जीवन साथी मिल जाता है। और वह उसके साथ शादी के लिए घर वालों को तैयार कर लेती हैं।
मध्यवर्ग में भी अब जाति, धर्म और क्षेत्र की दीवारें टूट रही हैं। इसलिए आमतौर पर माता-पिता भी अपनी बच्ची के फैसले का विरोध नहीं करते हैं। हां इस बात का ख्याल ज़रूर रखते हैं कि सामने वाले से कितनी निभ पाएगी और उसकी क्या पृष्ठभूमि है इन सब को जान समझ लिया जाए। हालांकि वह सब कुछ सेकेंड्री ही मामला होता है। और फिर इस तरह से दोनों पक्षों की सहमति से शादियां हो जाती हैं। ज्यादातर मामलों में यह सब कुछ बगैर दहेज के होता है क्योंकि लड़की के रूप में लड़के वाले को पहले ही एक कमाशुत चीज मिल गयी है जो जीवन भर उसके लिए एटीएम का काम करेगी।
और लड़की के पिता की भी अपने पैसों को बच्ची की पढ़ाई पर खर्च करने के बाद वह स्थिति नहीं रहती कि वह बच्ची के दहेज के लिए कुछ अलग से बचा सके। इसलिए उसकी भी पूरी कोशिश यही होती है कि बच्ची खुद ही अपना कोई वर ढूंढ ले जिससे उनको इस तरह की किसी कवायद में न जाना पड़े। बल्कि आजकल यह देखा जा रहा है कि जो बच्चियां अपना वर नहीं ढूंढ पातीं वो मां-बाप के लिए एक अतिरिक्त काम देकर बोझ ही साबित होती हैं।
अब मसला कहां फंस रहा है? मसला फंस रहा है उन शहरों और कस्बों में जहां मध्य वर्ग अभी नई परिस्थिति के मुताबिक चीजों को समझने और देखने के लिए तैयार नहीं है। या फिर अपनी पीढ़ीगत दिक्कत के चलते अभी भी पुरानी दुनिया में जी रहा है। नई सोच, समझ और संस्कृति के बारे में उसको कोई जानकारी भी नहीं है। अगर कुछ है भी तो वह उसे अपनी परंपरागत संस्कृति और सभ्यता के खिलाफ मानता है। अगर बच्ची का किसी लड़के से प्यार है तो उसे स्वीकार कर शादी करवाने की जगह वह हमेशा उसको खारिज करने की कोशिश में रहता है। यहीं पेंच फंस जा रहा है।
मेट्रो कल्चर में आजकल लड़कियों का ज्यादा से ज्यादा ब्यावफ्रेंड रखना सम्मान का प्रतीक हो गया है। और यही बात अब छोटे शहरों से होते हुए कस्बों और गांवों तक में प्रवेश कर गयी है। ऐसे में एक तरफ बच्चियों की बिल्कुल स्वच्छंद दुनिया है और आसमान तक उनके पंखों की उड़ान है। और दूसरी तरफ इन सब मामलों में उनके मां-बाप बिल्कुल दूसरे ध्रुव पर खड़े हैं। जिनके पास उनको समझने का कोई बैरोमीटर ही नहीं है। और फिर यहीं से शुरू हो जाती है खींचतान। जो कई बार तकरार, मारपीट, हिंसा और हर तरह के उत्पीड़न और प्रतिकार में बदल जाती है। और कई बार तो यह हत्या का रूप ले लेती है।
इस समस्या को हल करना इस दौर के बुद्धिजीवियों, समाजिक अध्ययनकर्ताओं और सत्ता से जुड़े लोगों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सबसे पहले तो इसको समस्या के तौर पर चिन्हित किया जाना जरूरी है। और एकबारगी अगर चिन्हित कर लिया गया तो फिर उसके अध्ययन और उससे निकलने का रास्ता भी तलाश लिया जाएगा।
बात खत्म करूं उससे पहले एक और चीज की तरफ ध्यान दिलाना बहुत जरूरी है। बात-बात में जो हत्या और हिंसा हो रही है आखिर उसके पीछे क्या कारण है? यह भी एक बड़ा सवाल है। दरअसल पिछले दस सालों में देश के भीतर जो माहौल बनाया गया है उसका ही यह नतीजा है। देश और समाज में सत्ता पोषित घृणा और नफरत का जो अभियान चलाया गया। एक खास समुदाय के खिलाफ उसको केंद्रित किया गया और फिर सड़कों पर वह कभी मॉब लिंचिंग के तौर पर या फिर उनके घरों पर हमले और कभी किसी दूसरे रूप में नियमित तौर पर सामने आता रहा। और इसी कड़ी में सत्ता का विरोध करने वालों को देशद्रोही और राष्ट्र विरोधी से लेकर न जाने किन-किन तमगों से नवाजा गया।
आलम यह है कि पूरे देश में प्रेम और सौहार्द की जगह नफरत और घृणा का माहौल व्याप्त है। घरों और परिवारों तक में विचारधारा के आधार पर लोग एक दूसरे के दुश्मन बन बैठे हैं। उनके बीच आपस में बातचीत तक नहीं हो रही है। इसने पूरे माहौल को विषाक्त कर दिया है। ऐसे में अब अपने सपनों को पूरा करना हो या फिर अपने किसी दूसरे हित को साधना हो तो लोग उसकी राह में बांधा बन रहे शख्स को हटाने में एक मिनट की भी देरी नहीं लगाते। क्योंकि पिछले दिनों हुई हत्याओं, हिंसक घटनाओं और दूसरी वारदातों में ज्यादातर आरोपी बाइज्जत बरी हो गए या फिर उनको किसी रास्ते से बचा लिया गया।
बल्कि ऐसे लोग जेल के भीतर डाले गए जिनका कोई गुनाह ही नहीं था। ऐसे में समाज में यह धारणा और मजबूत होती गयी कि किसी जघन्य वारदात को अंजाम देने के बाद भी कानून के शिकंजे से बचा जा सकता है। या फिर एक प्रक्रिया में उससे राहत हासिल की जा सकती है। इन सारी चीजों ने मिलकर देश और समाज को यहां लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन यहां आकर अब हम फंस गए हैं उससे कैसे बाहर निकला जाए सबसे बड़ा सवाल यही है।
(महेंद्र जनचौक के संपादक हैं।)