क्या समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का संघ सबसे बड़ा शत्रु है?

ना जी ना ये सब संघ के चोचले हैं। भले ही ‘संघ की अब भाजपा को ज़रूरत नहीं है’ ये भाजपाध्यक्ष जेपी नड्डा कह चुके हैं किंतु संघ को भाजपा की ज़रूरत है यह सच सब जान रहे हैं। क्योंकि भाजपा ने संघ को सिर्फ जान ही नहीं बख़्शी है बल्कि  इज्जत भी अता फरमाई है उसकी बदौलत आज दिल्ली में संघ की आलीशान इमारत अस्तित्व में आई है। वरना नागपुर से आगे संघ निकल नहीं पाया था। संघ प्रमुख मोहन भागवत जी को एसपीजी सुरक्षा नियम विरुद्ध भाजपा ने मुहैया कराई है। 

इधर सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि भाजपा को समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष दलों और सत्तालोलुप कांग्रेसियों का साथ ना मिला होता तो संघनीत भाजपा कभी भी सत्ता के करीब नहीं पहुंच सकती थी। आज भी भाजपा जेडीयू नीतीश कुमार जैसे समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष तेलुगु देशम प्रमुख चंद्रबाबू नायडू की वैशाखियों के दम पर ही सत्ता पर काबिज़ है।

इधर संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का हालिया बयान कि आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा गया समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाए जाने पर विचार करना चाहिए, ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। ठीक वैसे ही जैसे पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह कहना कि आरक्षण की व्यवस्था पर पुनर्विचार करना चाहिए। इन दोनों बयानों को नए राजनीतिक संदर्भ में संघ परिवार की संविधान बदलने की मंशा से जोड़ा जाना लगभग तय है।

किंतु, जैसा कि पूर्ववत लिखा जा चुका है कि संघ और भाजपा बिना समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं। हालांकि उनकी मंशा मनुवादी समाज की स्थापना ही है किंतु भारत जैसे विशाल देश में यह असंभव है इसलिए भागवत जी, सभी के एक डीएनए की बात करते हैं तथा दलित पिछड़ी जातियों को दोयम दर्जे से बाहर निकालने पर जब तब जोर देते हैं और अखंडता, एकता, समानता की बात कहते हैं। किंतु कथनी करनी का फ़र्क सबको नज़र आने लगा है कि इनके इरादे नेक नहीं है। आज होसबोले को संघ का अपना इतिहास भी टटोलना चाहिए जब जनसंघ ने जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नेता के साथ मिलकर इमरजेंसी के बाद कांग्रेस से सत्ता छीनी थी। उसमें मधु लिमए और जार्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादी लोग थे। तब कांग्रेस से निकले मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे।याद कीजिए, 1977 में चुनाव घोषित हो जाने के बाद, कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, भारतीय जनसंघ और लोकदल के मिलन से जनता पार्टी का गठन हुआ। कांग्रेस छोड़कर आए जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी ने कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया और जनता गठबंधन में शामिल हो गए।

यही हाल अटल बिहारी जी की सरकार में रहा जब भाजपा के साथ, शिव सेना, तेलुगु देशम, अखिल भारतीय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, जनता दल यूनाइटेड, जदयू, आरजेडी, बीजेडी, नेशनल कांफ्रेंस, शिरोमणि अकाली दल, हरियाणा विकास पार्टी, लोकशक्ति, मद्रास स्टेट मुस्लिम लीग, तमिल मनीला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, मर्केस्टिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस, जम्मू एंड कश्मीर पैंथर्स पार्टी, जनता दल (सेक्युलर), राष्ट्रीय लोकदल, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच एवं भारतीय जनता युवा मोर्चा जैसे चौबीस दल एनडीए में शामिल थे। इनमें बहुसंख्यक दल समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे। तो ऐसे चली थी संघनीत तथाकथित एनडीए सरकार।

ये बात और है कि दो बार झूठ और छल से भाजपा पूर्ण बहुमत से भी आई। 2014 में संघ के अन्ना हजारे और छिपे संघियों ने कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के झूठे आरोप का धुआंधार प्रचार कर पूंजीपतियों के धन के ज़रिए कराकर मात्र 31%वोट हासिल कर सरकार बनाई। तो दूसरी बार कथित तौर पर झूठ और ईवीएम हावी रही। लेकिन तीसरी बार जनता की नाराज़गी का ग्राफ़ बढ़ने पर तथा बड़े पैमाने पर भारी नकली वोटर के सहारे के बावजूद भाजपा 260 सीटों पर थम गई। ये आरोप विचाराधीन हैं।कहते हैं काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

बहरहाल, तस्वीर साफ है कि आज नीतीश नायडू की बैसाखी भाजपा को संभाले हुए है यदि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान से हटाने की बात ज़ोर पकड़ती है तो भाजपा को कोई नहीं बचा सकता। इसलिए भले ही ये दोनों शब्द संघ को रास ना आ रहे हों लेकिन इन शब्दों का साथ छोड़ना उनके लिए बहुत हानिकारक हो सकता है।

खास बात ये कि संविधान के 42वें संशोधन की प्रेरणा जिसमें ये दो शब्द जोड़े गए जयप्रकाश नारायण जी ने इंदिरा जी से जुड़वाए थे और यह भी सच है कि जयप्रकाश नारायण जी ने जब संघ को साथ लेकर उनके खिलाफ मोर्चा खोला तो उनके प्रतिरोध के भय से इंदिरा जी ने आपातकाल लगाया था। इसका खुलासा उस दौर में संभवत: खुशवंत सिंह की लिखी पुस्तक इंदिरा रिटर्न्स में मिलता है।

आज समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने का शोर बहुत है किंतु यह संघ का एक शिगूफा ही है। उसमें फिलहाल ऐसा कुछ करने का साहस नहीं है।

(सुसंस्कृति परिहार लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।)

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