Friday, April 26, 2024

दिल्ली दंगों पर ‘संविधान वॉच’ की रिपोर्टः अपराधियों को बचाने और पीड़ितों को फंसाने की मुकम्मल कोशिश

फरवरी 2020 में हुए दिल्ली फसाद के संदर्भ में ‘संविधान वॉच’ द्वारा जारी रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस द्वारा पुष्ट जान-माल के नुकसान के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि इसमें सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का हुआ। यहां तक कि उनके धार्मिक स्थलों पर भी हमले किए गए। इसमें खासतौर से सीलमपुर, चांगबाग़ और गोकुलपुरी के पास की बड़ी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र शामिल थे। यहां विवादास्पद नागरिकता कानून वापस लेने की मांग करते हुए शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन चल रहे थे। भाजपा नेताओं की तरफ से इन प्रदर्शनों को बदनाम करने के लिए कई तरह के आरोप लगाए जा रहे थे। खासकर दिल्ली चुनाव के दौरान उसके वरिष्ठ नेताओं ने उनको ‘देश विरोधी’ या ‘देश के खिलाफ’ साजिश तक कहा था, जिसका अक्स दिल्ली पुलिस की जांच में भी साफ देखा जा सकता है।

दिल्ली पुलिस की मुसलमानों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण भूमिका में दंगों के दौरान खामोश तमाशाई बने रहने या हिंदू दंगाई समूहों का साथ दने का आरोप भी शामिल है। दंगों की जांच में उसने न केवल दंगा पीड़ित मुसलमानों बल्कि सीएए आंदोलनकारियों और उनका समर्थन करने वाले संगठनों के सदस्यों को गिरफ्तार और प्रताड़ित किया। यूएपीए और अन्य गंभीर धाराओं में मुकदमे कायम किए बल्कि वैचारिक आधार पर लक्ष्य बनाते हुए ‘कट्टरपंथी और वामपंथी संगठनों’ जैसे नदी के दो किनारों को भी एक कर दिया।

रिपोर्ट में अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्युमन राइट्स वाच और एम्नेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्टों को भी उद्धृत किया गया है जो इस रिपोर्ट के निष्कर्षों की पुष्टि करती हैं। ह्युमन राइट्स वाच ने कहा कि यह हिंदू भीड़ की ओर से लक्षित हमला था, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि दंगों से पहले (भाजपा) नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए। रिपोर्ट में दंगों को पूर्व नियोजित बताते हुए जहां एक तरफ मुख्यधारा की मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं, वहीं भाजपा समर्थित संगठनों द्वारा पीड़ित मुसलमानों का दानवीकरण का संगठित अभियान भी चलाया गया, जिसके लिए विशेष रूप से भाजपा समर्थक ‘ऑपइंडिया और स्वराज’ द्वारा दंगों पर जारी रिपोर्टों का भी हवाला दिया गया है।

रिपोर्ट में मानवाधिकार आयोग समेत पूरे न्यायतंत्र को भी उसकी भूमिका के लिए कटघरे में खड़ा किया गया है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने में विफल रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और अधिवक्ताओं पर हमलों, प्रताड़नाओं और फर्जी मुकदमों का ज़िक्र करते हुए न्याय और देशहित में आठ सूत्रीय मांग भी की गई है।

1. उकसावे और लक्षित हमले
फ़रवरी महीने की 23 से 26 तारीख़ के बीच, दिल्ली के उत्तर पूर्वी ज़िला में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। पुलिस ने इस हिंसा में 53 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है। पुलिस ने इस बात की पुष्टि भी की है कि इस दंगे में 400 लोग घायल हुए और तीन स्कूलों और भारी संख्या में वाहनों समेत क़रीब 200 घरों और 300 से अधिक दुकानों को क्षतिग्रस्त कर दिया गया।  इस दंगे ने 2000 से अधिक लोगों को अपना घर-बार छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया [1]। अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि भी की है कि इस हिंसा में सबसे ज़्यादा जान-माल का नुक़सान मुसलमानों का हुआ है। यह दीगर बात है कि हिंदू भी मारे गए और घायल हुए [2]। मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर बड़े पैमाने पर हमले हुए [3]। वैश्विक मानवाधिकार रक्षा समूह ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस बात की ओर इशारा किया है कि ये हमले जानबूझकर हुए थे और यह भी कहा कि यह हिंसा ‘हिंदू भीड़ की ओर से लक्षित हमला था [4]।’

उत्तर पूर्व ज़िले के कुछ हिस्सों में जहां मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है, यह हिंसा स्थानीय थी। विशेषकर करावल नगर, खजूरी ख़ास, चांद बाग़, गोकुलपुरी, जाफ़राबाद, मुस्तफ़ाबाद, अशोक नगर, भगीरथ विहार, भजनपुरा, कर्दम पुरी और शिव विहार में [5]। ये ऐसे इलाक़े भी थे जहां मुसलमान महिलाएं जनवरी की शुरुआत से ही विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (सीएए) के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रही थीं, विशेषकर सीलमपुर, चांदबाग़ और गोकुलपुरी में। ये प्रदर्शन मुख्य रूप से सड़क के बग़ल में धरने के रूप में चल रहे थे और इसमें भाग लेने वाले महिला एवं पुरुष प्रदर्शनकारी राष्ट्र गीत गाते, संविधान का पाठ करते और अपने भाषणों में सरकार से सीएए को वापस लेने की मांग करते [6]।

उत्तर पूर्वी दिल्ली में जो प्रदर्शन चल रहा था वह यमुना नदी के दूसरे किनारे पर शाहीन बाग़ में चल रहे प्रसिद्ध धरने की तर्ज़ पर ही था, जिससे  देश भर में इस तरह के प्रदर्शनों की प्रेरणा मिली और इसे दशकों का सबसे बड़ा प्रदर्शन माना गया [7] और यह भी कहा गया कि इस प्रदर्शन ने मुसलमानों में ‘राजनीतिक जागरुकता’ लाने का काम किया [8]। उत्तर पूर्वी दिल्ली के ये इलाक़े दिल्ली में विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा के चुनाव अभियान का भी क्षेत्र था जो एक ख़ास विचारधारा के लोगों को लामबंद कर उनके ध्रुवीकरण के लिए चलाए जा रहे थे।

दिल्ली विधानसभा का चुनाव 8 फ़रवरी को हुआ था। भाजपा ने अपने अभियान में विशेष कर सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों को और आम तौर पर मुसलमानों को निशाना बनाया और इसमें उसके वरिष्ठ नेता तक शामिल थे। उनका यह अभियान लोगों में इस्लाम के बारे में डर पैदा करने पर केंद्रित था। इस क्षेत्र से भाजपा को दो सीटें (करावल नगर और घोंडा) मिलीं, जबकि 70 सीटों वाली विधानसभा में इस चुनाव में उसे कुल 8 सीटों पर कामयाबी मिली।  इस क्षेत्र की अन्य सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही [9]। 

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे 11 फ़रवरी 2020 को घोषित हुए, जिसमें भाजपा की करारी हार हुई और इसके तुरंत बाद ही उत्तर पूर्वी दिल्ली में हिंसा शुरू हुई। इस चुनाव में भाजपा के सभी बड़े नताओं ने व्यापक पैमाने पर चुनाव प्रचार किया था। इस हिंसा की शुरुआत कपिल मिश्रा समेत भाजपा नेताओं की सरेआम दी गई धमकियों के बाद हुई, जिसके बारे में अख़बारों में बहुत कुछ छप चुका है। कपिल मिश्रा उन नेताओं में शामिल हैं जो चुनाव हार गया था। उसने 23 फ़रवरी 2020 को दिल्ली पुलिस को ताक़ीद की थी कि वह सीएए के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शनों को बंद करवाए नहीं तो वे लोग खुद कोई कार्रवाई करने के लिए बाध्य होंगे।

इससे पहले उसके समर्थकों ने ‘कार्रवाई का आह्वान’ करते हुए अपने समर्थकों से सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों से मुक़ाबला करने को कहा था। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कैसे दंगों से पहले नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए और रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा नेताओं ने ऐसे भाषण दिए [10]। इसके बाद सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों और उत्तर पूर्वी दिल्ली के आम मुसलमानों पर पूर्व निर्धारित लक्ष्य के अनुसार हमले हुए और भाजपा के नेता और उनके समर्थक इसमें सबसे आगे थे और पुलिस इनकी मदद कर रही थी। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, चार दिन तक चले इस क़त्लेआम के बाद हिंदू कार्यकर्ताओं के जत्थे मुसलमानों के मुहल्लों में घूमते थे।

आती-जाती कारों की बोनट पर हमले करते थे। उसमें बैठे लोगों को जय श्री राम कहने को मजबूर करते थे और इस दौरान दूसरे लोग जो बाहरी लगते थे, मुसलमानों की दुकानों को आग के हवाले कर रहे थे, जबकि पुलिस इस दौरान मूक दर्शक बनी रही [11]। बहुत शीघ्र ही स्थिति बेक़ाबू हो गई और देखते-देखते यह कई दशकों की सर्वाधिक वीभत्स दंगों में बदल गई। मुसलमान अपना घर-बार छोड़कर भागने लगे और सेना की तैनाती की मांग की गई और इन सबके बीच पुलिस ने या तो कोई कार्रवाई नहीं की या फिर दंगाइयों का साथ देते हुए हमले करते हुए दिखी [12]।  

अथॉरिटीज़ दिल्ली में सीएए क़ानून पास होने के बाद दिसंबर 2019 के अंत से ही दिल्ली में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले लोगों, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, के ख़िलाफ़ कठोरता से पेश आने लगी थी, उनके ख़िलाफ़ ज़रूरत से ज़्यादा बल प्रयोग किए गए, मनमाने तरीक़े से उन्हें गिरफ़्तार किया गया, जेलों में डाला गया जहां उनके साथ ज़्यादतियां की गईं। उत्तर पूर्वी दिल्ली के लोगों के ख़िलाफ़ भी फ़रवरी 2020 में हुए दंगों और उसके बाद काफ़ी क्रूरता से पुलिस पेश आई। उन्हें अकारण गिरफ़्तार किया गया और पुलिस उनके साथ अमानवीय तरीक़े से पेश आई। दूसरी ओर, अथॉरिटीज़ ने वरिष्ठ भाजपा नेताओं के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की न ही उनके समर्थकों और न उनसे जुड़े संगठनों के सदस्यों के ख़िलाफ़।

सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, इन लोगों ने मुस्लिमों को निशाना बनाया और इनके ख़िलाफ़ दंगे फैलाए। इस तरह की कार्रवाई अनुच्छेद 19 (1) (a)(b), बोलने की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं शांतिपूर्वक सभा करने सहित संविधान प्रदत्त कई अधिकारों का उल्लंघन है। ये अंतरराष्ट्रीय संधियों का भी उल्लंघन करते हैं, जिसमें इंटरनेशनल कवनंट ऑन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स-आईसीसीपीआर (अन्य बातों के अलावा शांतिपूर्ण तरीक़े से जमा होने से संबंधित अनुच्छेद 21) भी शामिल हैं, जिनको लागू करने का वादा भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया हुआ है।

2. दुष्प्रचार और प्रोपगंडा
हिंसा के भड़कने के तुरंत बाद, सरकार-समर्थक कई टीवी चैनलों ने यह कहना शुरू कर दिया कि यह हमला ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का षड्यंत्र है, ताकि अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के भारत आने के मौक़े पर देश की छवि ख़राब की जा सके। इन खबरों में वरिष्ठ भाजपा नेताओं के हिंसा-भड़काऊ बयानों को अमूमन नज़रंदाज़ किया गया। दक्षिण-पंथी सोशल मीडिया प्लैट्फ़ॉर्म्स, जिसमें भाजपा-समर्थक ऑपइंडिया और स्वराज्य शामिल हैं, अपनी भूमिका निभाने के लिए आगे आए और दंगे के बारे में मनगढ़ंत और फ़र्ज़ी खबरों से इंटरनेट को भर दिया।

इस बारे में दो रिपोर्ट्स आईं, एक मार्च 2020 के शुरू में और दूसरी कुछ समय बाद मई 2020 में। इन रिपोर्ट्स में कहा गया कि इसने दंगे के तथ्यों का पता लागाया है और यह भी कि यह हिंदू विरोधी हिंसा थी। इन दोनों ही रिपोर्ट्स को तैयार करने वाले वे लोग बीजेपी के विचारों से सहमति रखते थे और इन रिपोर्ट्स को उस गृह मंत्रालाय के वरिष्ठ अधिकारियों ने प्राप्त किया, जिनके सीधे नियंत्रण में दिल्ली पुलिस आती है। इनमें से एक रिपोर्ट तो खुद गृह मंत्री अमित शाह ने प्राप्त की।

पहली रिपोर्ट में ‘शहरी नक्सल-जिहादी नेट्वर्क’ पर दोष लगाया गया और इस बारे में विशेषकर जेएनयू के छात्र नेता शरज़ील इमाम और कई ऐसे संगठनों का नाम लिया गया जो सीएए के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक तरीक़े से हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय थे। जैसे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसीएशन, सीपीआई (एमएल) का छात्र संगठन; पिंजड़ा तोड़, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाला संगठन; जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी (जेसीसी), छात्रों का अलम्नाई नेटवर्क और पॉप्युलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफआई)। कहा गया कि ये संगठन इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार हैं और यह भी कि सीएए के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों का अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठनों से संबंध हैं और विदेशी एजेंसियां इसमें शामिल हैं, जिन्होंने इस विरोध को पैसे से मदद दी है [13]। 

दूसरी रिपोर्ट ने ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘कट्टरपंथी समूहों’ पिंजड़ा तोड़, जेसीसी, पीएफआई और आम आदमी पार्टी के स्थानीय नेता पर ‘अज्ञात हिंदू समुदाय पर पूर्व नियोजित और संगठित तरीक़े से’  ‘लक्षित हमले’  के लिए ज़िम्मेदार माना और रिपोर्ट ने यह दावा भी किया कि इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के नेटवर्कों से आर्थिक मदद मिली [14]। इन दोनों ही रिपोर्टों  में ऑपइंडिया से मिले डाटा और साक्ष्यों का व्यापक तौर पर उपयोग किया गया है। इत्तिफ़ाकन, मीडिया पर्यवेक्षकों ने ऑपइंडिया के बारे में कई बार आगाह किया है कि यह तथ्यों को तोड़ता-मरोड़ता है और फ़र्ज़ी खबरें फैलाता है [15]। 

ये दोनों ही रिपोर्ट इस सवाल का जवाब नहीं देते कि अगर सीएए के ख़िलाफ़ विरोध करने वाले लोगों ने बहुत ही सलीके से योजना तैयार करके हमले किए तो इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों की इसमें मौत कैसे हुई। इन दोनों रिपोर्टों में बीजेपी नेताओं के उन भड़काऊ भाषणों को छिपा लिया गया है, जिनकी वजह  से दंगा फैला। हिंसा को रोक पाने, बड़ी संख्या में हिंसा-पीड़ित मुसलमानों को हिंसा से बचाने में दिल्ली पुलिस की विफलता और कई बार एक पक्षीय हमले में भाग लेने में दिल्ली पुलिस की भूमिका के बारे में इन दोनों रिपोर्टों में से किसी में भी कोई ज़िक्र नहीं है।

30 जुलाई को ऑपइंडिया ने अपनी रिपोर्ट जारी की और इसे दिल्ली का ‘हिंदू-विरोधी दंगा’ बताया [16]। 350 से अधिक पृष्ठों की यह रिपोर्ट पूर्व में किए गए दावों को ही दुहराते हुए आगे बढ़ता है और कहता है कि ‘यह एकमात्र सत्य है कि हिंदूवादी लोगों ने हिंसा के इस चक्र को शुरू नहीं किया’ [17], और दावा किया कि यह हिंसा ‘वामपंथियों और इस्लामिक लोगों की देश को जलाने की साज़िश’ का परिणाम है” [18]।

पिछली  रिपोर्ट की तरह ही, यह रिपोर्ट भी इस बात का खुलासा नहीं करती है कि मुसलमानों का इतना नुक़सान कैसे हुआ साथ ही यह बीजेपी नेताओं और विस्तृत हिंदू नेटवर्क के सदस्यों की भूमिका पर चुप्पी साध लेती है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने हमले की अगुवाई की और इसे अंजाम दिया। रिपोर्ट पुलिस की विफलता और इसमें उसकी मिली भगत पर भी चुप है। शायद इस भयंकर कमी को दूर करने और परिष्कृत दिखने के लिए यह रिपोर्ट भाषा का सहारा लेती है: “यह दंगा हिंदुओं के ख़िलाफ़ था या मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस बात का निर्धारण मरने वाले लोगों की संख्या के आधार पर नहीं किया जा सकता बल्कि इससे कि हिंसा किसने शुरू की और इसके कारण क्या थे”। इतना ही नहीं, यह रिपोर्ट अज्ञात और काल्पनिक बातों में भी गोता लगाती है, “इस बात के विश्लेषण की भी ज़रूरत है कि हिंसा फैलाने के लिए किस पक्ष की तैयारी थी और किस पक्ष ने अपनी रक्षा में हमला किया” [19]। 

3. न्याय को विकृत करना
यह ‘हिंदुत्व मीडिया मशीन’ का लगातार दुष्प्रचार है और इसके तार बीजेपी सरकार से जुड़े हुए हैं [20]। उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर जो सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों के ख़िलाफ़ लक्षित हमला था और इस लिहाज़ से यह उत्तर पूर्वी दिल्ली के सभी मुसलमानों के ख़िलाफ़ था, उसे ज़बरदस्ती हिंदुओं के ख़िलाफ़ मुस्लिम-वाम छात्र समूहों का देश-विरोधी षड्यंत्र बताने की कोशिश की जा रही है। यह अभियान इस हिंसा में मुख्य बीजेपी सदस्यों की भागीदारी हिंसा को उकसाने, उसका आयोजन और उसे अंजाम देने पर पर्दा डालने की कोशिश है। इसके अलावा यह उन नागरिकों के विरोध को आपराधिक बनाने की कोशिश है, जो स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण क़ानून का शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध कर रहे थे।

मीडिया और क़ानूनी कार्यकर्ताओं के एक वर्ग के निडर और साहसी प्रयासों से हिंसा के बाद से नए तथ्य सामने आए हैं और आम लोगों को इन तथ्यों के बारे में पता है। ये नए तथ्य यह बताते हैं कि कपिल मिश्रा और दिल्ली और पड़ोसी उत्तर प्रदेश के अन्य बीजेपी नेता उत्तर पूर्वी दिल्ली में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए इन दंगों को भड़काने, इसके आयोजन और उन्हें अंजाम देने में कितनी गहराई और व्यापकता से शामिल थे। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि ये दिल्ली पुलिस की भूमिका पर भी प्रकाश डालते हैं, जिसने निष्पक्षता से कार्रवाई करते हुए मुसलमानों को दंगाइयों से बचाया नहीं, बल्कि हिंदू दंगाइयों के साथ मिलकर खुद भी मुसलमानों पर हमले किए। ये तथ्य पीड़ितों, और वहां रह रहे लोगों और दूसरे गवाहों के बयानों पर आधारित हैं।

इन लोगों ने पुलिस में शिकायत करने और अपना बयान दर्ज कराने की कोशिश की कि उन्होंने क्या देखा और उन पर किस तरह की ज़्यादती हुई और इनमें से कई ने तो हिंसा फैलाने वालों के नाम भी बताए हैं। पुलिस ने तो पहले इन शिकायतों को दर्ज करने से इंकार कर दिया और इसके बाद दंगाई समूहों के साथ मिलकर, हमले में शामिल कई लोगों ने खुद ही एक अभियान चलाना शुरू कर दिया और वे शिकायतकर्ताओं और गवाहियों को धमकाने लगे और अपनी शिकायतें वापस नहीं लेने और आपराधिक प्रक्रिया को नहीं रोकने पर उनके ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई की खुलेआम धमकी देने लगे।

आम लोगों को इस दंगे के बारे में एक और जानकारी यह प्राप्त हुई है, जानकारी का यह स्रोत है वे सरकारी दस्तावेज जिसे पुलिस और जांच एजेंसियों ने अदालत में या तो आरोपियों की ज़मानत याचिका पर सुनवाई के दौरान या फिर आरोपी के ख़िलाफ़ चार्ज लगाने और मुक़दमा चलाने के लिए अभियोजन की जांच रिपोर्ट को अदालत में पेश करने की वजह से सामने आया है। अन्य दस्तावेज़ों के अलावा ये दस्तावेज हैं प्रथम सूचना रपट (एफआईआर), पुलिस हलफ़नामे, अमल की रिपोर्ट और चार्जशीट। पुलिस सीआरपीसी के तहत अपनी ज़िम्मेदारियों का उल्लंघन करते हुए शुरू से ही इन दस्तावेज़ों को आपराधिक कार्रवाई के पक्षकारों के साथ साझा करने से मना करती रही है। पर अब ये दस्तावेज अदालत के माध्यम से लोगों तक पहुंचे हैं।

अदालत में जमा कराए गए इन दस्तावेजों में जो कहानी गढ़ी गई है और जो बातें बताई गई हैं, घटनाएं कैसे हुईं, उसको अंजाम देने वाले और इन अपराधों के पीछे की मंशा, ऐसा लगता है कि अथॉरिटीज़ ने इसमें दिल्ली में हुई हिंसा की स्क्रिप्ट को दुबारा लिखने का प्रयास किया है, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ लक्षित हिंसा है उसे हिंदुओं और वृहत्तर राष्ट्रीय हितों के ख़िलाफ़ मुसलमानों की साज़िश बताया गया है और यहां तक कि इसे ‘सशस्त्र विद्रोह’ की बात करके सरकार के ख़िलाफ़ अलगाववादी आंदोलन चलाना बताया है [21]। जहां भी पुलिस ने हिंदुओं के हमले की बात को स्वीकार किया है वहां भी, उसने यह दावा किया है कि उन्होंने ऐसा मुसलमानों/वामपंथियों के हमलों का जवाब देने के लिए किया। पुलिस ने हलफ़नामे में यह दावा भी किया कि उसे किसी बीजीपी नेता के ख़िलाफ़ हिंसा को उकसाने का कोई प्रमाण नहीं मिला।

पुलिस के बयानों में जिस तरह के दावे किए गए हैं, जो साक्ष्य पेश किए गए हैं और जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है और निजी समूहों ने जो ‘तथ्यान्वेषी’ रिपोर्ट दी है जिसका कि ऊपर ज़िक्र किया गया है, वह इस बात की ओर इशारा करता है कि सच को नज़रों से ओझल करने, और शांतिपूर्ण तरीक़े से जमा होकर बोलने और संगठन बनाने की आज़ादी के संविधान प्रदत्त अधिकारों को आपराधिक बनाने के लिए दुष्प्रचार उद्योग और क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों के बीच कितना बेहतर तालमेल था, जबकि जिन्होंने हमले किए उन्हें सुरक्षा दी गई है। इन सब में, इतना तय है कि आपराधिक अभियोजन के लिए इन बातों के गंभीर परिणाम होने वाले हैं।

न्याय को विकृत करने के इस प्रयास का एक और गंभीर पक्ष है पुलिस का सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों, हिंसा पीड़ितों, और उनका साथ देनेवाले मानवाधिकारों के रक्षकों (एचआरडी) को फ़र्ज़ी मामलों में फंसाना, उन्हें गिरफ़्तार करना और कड़ी दंडात्मक धाराओं के तहत उन्हें हिरासत में रखना। इन कड़ी दंडात्मक धाराओं में शामिल है भारत का मुख्य आतंकवाद विरोधी क़ानून, ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम, 1967 (यूएपीए), भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत ‘देशद्रोह’ के प्रावधान, जिसमें व्यापक षड्यंत्र का दावा किया गया है। अन्य संगठनों के अलावा, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पुलिस के सीएए के आलोचकों के ख़िलाफ़ दमनकारी क़ानून का प्रयोग करने और सत्ताधारी बीजेपी के समर्थकों की हिंसा के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं करने के बीच विरोधाभासों को रेखांकित किया है [22]। 

इस प्रोपगंडा की वजह से उन्हें ‘दोहरी छूट’ मिल गई है: हमलावरों को किसी भी तरह के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है, जबकि हिंसा के शिकार हुए लोगों को दंडित किया जा रहा है!

4. तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में दिल्ली हिंसा   
यह कोई पहला मौक़ा नहीं है जब भारत में न्याय को विकृत किया गया है। गुजरात में 2002 में मुसलमानों की सामूहिक हत्या एक नमूने (टेम्प्लेट) जैसा है कि कैसे प्रोपगंडा को लामबंद कर एक फ़र्ज़ी कहानी गढ़ी जा सकती है। इसमें क्रिया-प्रतिक्रिया का सिद्धांत भी शामिल है। व्यापक पैमाने पर जनसंहार में तब्दील हो जाने वाली लक्षित हिंसा को इसमें जायज़ बताया जाता है जबकि वरिष्ठ भाजपा नेताओं सहित हिंसा करने वालों, हिंसा को उकसाने वालों, इसे अंजाम देने वालों, लोगों का क़त्लेआम करने वालों और इनको मदद देने वाले राज्य के अधिकारियों को बचाया जाता है [23]।

खोजी पत्रकारों ने हमें बताया है कि हिंसा फैलाने वालों में जो मुख्य लोग थे उनकी भूमिका पर पर्दा डालने में न्याय व्यवस्था– पुलिस, जांच एजेंसियों, अभियोजन की क्या भूमिका रही है [24]। आशीष खैतान ने अभी हाल ही में हमें बताया: “गुजरात दंगों के बाद हुए एक के बाद एक मामलों में ग़लत साक्ष्य, मनमाफ़िक जांच, आतंकित गवाहों, सिद्धांतहीन और आत्मसमर्पण करने वाले अभियोजन और दिखावे की सुनवाई का बार-बार प्रयोग हुआ” [25]। दिल्ली में 1984 में हुए सिखों के क़त्लेआम में 4000 से भी अधिक सिख मार दिए गए और भयानक तबाही मचाई गई, उड़ीसा के कंधमाल में ईसाइयों के ख़िलाफ़ हुए हमले में 100 लोग मारे गए और 5600 से अधिक घरों को लूटा गया, 395 गिरजाघरों पर हमले हुए और 54,000 लोगों को अपना घर-बार छोड़ कर भागना पड़ा, इन सभी मामलों में न्याय व्यवस्था को इसी तरह विकृत किया गया।

पर इस अंधेरे समय में भी राहत की बात रही उच्च्तर न्याय व्यवस्था की भूमिका विशेषकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और सुप्रीम कोर्ट (एससी) का जो पीड़ितों की मदद के लिए सामने आए, कई ऐसे मामलों की दुबारा सुनवाई शुरू की, जिन्हें अभियोजन ने बंद कर दिया था; और मामले की दुबारा जांच के लिए स्वतंत्र जांच बिठाई। पर इस बार जो दिल्ली में हुआ उसमें न्याय व्यवस्था को विकृत करने की साज़िश के गहरे होने का अंदेशा है और इसे दुरुस्त किए जाने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

जैसा कि ऑपइंडिया की हाल की रिपोर्ट बताती है, यह प्रोपगंडा कहीं ज़्यादा परिष्कृत है और यहां तक कि इसे प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों की मदद से भी नवाजने की कोशिश हुई [26]। इस बार ऐसा नहीं लगता कि संवैधानिक अधिकारों और न्याय की गारंटी देने वाले और कार्यपालिका के अत्याचार पर अंकुश लगाने वाले उच्च्तर न्यायिक संस्थानों की पीड़ितों की मदद में कोई दिलचस्पी है। भारत में न्यायिक संस्थानों का जो व्यापक ढांचा है- उच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट, एनएचआरसी- वह सीएए के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों को सुरक्षा देने या उन्हें दिल्ली और अन्य जगह पुलिस के अत्याचारों से बचाने में काफ़ी हद तक विफल रहा है।

कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें, तो न तो उच्च्तर अदालतें और न ही एनएचआरसी ने आज तक खुद किसी मामले में हस्तक्षेप किया है और आम जनता को जमा होने और सभा करने का अधिकार नहीं देने, प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ अत्यधिक बल प्रयोग को रोकने और पुलिस एवं अन्य अधिकारियों के ग़लत कार्यों के ख़िलाफ़ उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने के लिए कोई कदम उठाया है। इन संस्थाओं ने क़ानून को लागू करेने वाली उन संस्थाओं के ख़िलाफ़ भी कोई कार्रवाई नहीं की, जिन्होंने बीजेपी के उन वरिष्ठ नेताओं का बाल तक बांका नहीं होने दिया जिन्होंने उत्तर पूर्वी दिल्ली में सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों और विशेषकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुलेआम हिंसा की धमकी दी।

न्यायिक संस्थानों की इस शिथिलता ने पुलिस और अधिकारियों को अभयदान देने में रक्षा कवच का काम किया है और इससे उन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग ले रहे नागरिकों को अपना निशाना बनाने के लिए और ज़्यादा प्रोत्साहन मिला है; इन संस्थानों ने खुद हिंसा को अंजाम देने वालों विशेष कर बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को किसी भी तरह की आपराधिक कार्रवाई से बचाया है। यही कश्मीर में हुआ है और जहां अदालत की परवाह किए बिना नागरिकों के अधिकारों को बूटों तले रौंदा जा रहा है और प्रोपगंडा ने प्रशासन का स्थान ले लिया है। भीमा कोरेगांव में भी यही हुआ है-वहां सामाजिक न्याय के लिए काम करने वाले लोगों की एक पूरी पीढ़ी और समाज में सबसे ज़्यादा हाशिए पर ठेल दिए गए दलितों और आदिवासियों की अपने अधिकारों की लड़ाई को ग़ैरक़ानूनी करार दे दिया गया है। देश के कमजोर अल्पसंख्यकों और उसके आम नागरिकों और क़ानून के शासन लिए यह बेहद अशुभ है।

5. मांगें
i.  हिंसा की स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच हो और इस जांच समिति के पास पुलिस को मामले दर्ज करने का निर्देश देने और आरोपियों को दंडित करने का अधिकार हो। 
ii.  तब तक न्यायपालिका दंगे से संबंधित सभी मामलो (एएमयू, जेएनयू, जामिया, यूपी और दिल्ली) की कोविड के समय में सुनवाई की दृष्टि से इन्हें आपातकालीन मामले के रूप में लें।
iii. जांच के तरीक़ों का पालन करते हुए दिल्ली पुलिस सभी प्रक्रियाओं (जैसे मजिस्ट्रेट को इस बारे में मेमो देना कि वह गिरफ़्तारी और चार्जशीट की सूचनाएं साझा क्यों नहीं करती हैं) का आवश्यक रूप से पालन करें।
iv. ऐसे वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार जो रिपोर्ट कर रहे हैं और दंगा पीड़ितों को राहत दिलाने के लिए काम कर रहे हैं और इस वजह से अगर उन पर हमले हो रहे हैं तो दिल्ली पुलिस तत्काल कार्रवाई करे।
v.  दिल्ली पुलिस उन व्यक्तियों और टीवी चैनलों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज करे, जिन्होंने भड़काऊ भाषण दिए हैं, हिंसा भड़काई है और घृणा फैलाई है और दुष्प्रचार में शामिल रहा है।
vi. राज्य की पुलिस जिस तरह आंख मूंदकर यूएपीए का प्रयोग कर रही है उसके ख़िलाफ़ अदालत को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और उसे एक अलग से स्वायत्त समिति का गठन करना चाहिए और ऐसे निष्पक्ष अथॉरिटीज़ को इसकी ज़िम्मेदारी देनी चाहिए जो देश भर में यूएपीए के मामलों की बढ़ती संख्या के दुष्परिणामों को समझता है।
vii.  हिंसा पीड़ितों और सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों और कार्यकर्ताओं, जिन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फंसाकर निशाना बनाया जा रहा है, को हुए नुक़सान के लिए मुआवज़ा दिया जाए भले ही यह नुक़सान उनके शरीर के अंगों को पहुंचा है, संपत्तियों का नुक़सान हुआ है, आजीविका छिनी है या उनका शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न हुआ है या फिर उन्हें परेशान किया गया है।
viii. जिस तरह से सोशल मीडिया प्लेट्फ़ॉर्म्स जैसे ट्विटर, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप का प्रयोग हिंसा को भड़काने, भेदभाव और राष्ट्र विरोधी फ़र्ज़ी खबरों को फैलाने में हुआ है, उसको देखते हुए इन सोशल मीडिया प्लेट्फ़ॉर्म्स को चाहिए कि वे आवश्यक रूप से एक समयबद्ध जांच समिति का गठन करें, जिसमें सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए।

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