Friday, March 29, 2024

मेरी रूस यात्रा-2: मानो उठ खड़े होंगे सामने लेटे लेनिन

हमारी यात्रा का अगला पड़ाव पीटर द ग्रेट महल पर था जो सेंट पीटर्सबर्ग से 40 किलोमीटर दूर, समुद्र के किनारे बेहद खूबसूरत और रमणीक स्थान पर बना है। इसे रूसी भाषा में पीटरहॉफ पैलेस कहा जाता है। देखा जाए तो पीटरहॉफ, महलों और उद्यानों की एक श्रृंखला है, जिसे पीटर द ग्रेट ने फ्रांस के लुई चौदहवें के वर्साय या वर्सायल महल की प्रतिक्रिया में बनवाया था। पीटर द ग्रेट ने 1717 में फ्रांसीसी शाही दरबार की यात्रा भी की थी। वहां के महल की भव्यता को देखते हुए उसने पीटरहॉफ का निमार्ण कराया जो फ्रांसिसी वर्साय पैलेस की नकल जान पड़ता है।

इसे “द रशियन वर्साय“उपनाम से भी जाना जाता है। इस पैलेस के वास्तुकार डोमेनिको ट्रेज़िनी थे, और जिस शैली को उन्होंने अपनाया वह पूरे सेंट पीटर्सबर्ग में पसंदीदा पेट्रिन बारोक शैली के रूप में प्रसिद्ध हो गई। इस पैलेस का निर्माण 1714 से 1728 के बीच किया गया। उनके अलावा जीन-बैप्टिस्ट अलेक्जेंड्रे ले ब्लॉन्ड, जो वर्साय के लैंडस्केपर आंद्रे ले नोट्रे के साथ काम कर चुके थे, उन्हें पीटरहॉफ के आस-पास बगीचों की डिजाइन के लिए चुना गया। फ्रांसेस्को बार्टोलोमो रास्त्रेली ने एलिजाबेथ के कार्यकाल में 1747 से 1756 तक इस पैलेस के विस्तार को पूरा किया। आज यह पैलेस यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित है।

अगला पड़ाव कैथरिन प्रथम का महल था जो सेंट पीटर्सबर्ग से दक्षिण, 30 कीलोमीटर दूर है। यह महल सार्सकोए सेलो नामक स्थन पर बना है जो शाही राजाओं का ग्रीष्म कालीन आवास था। कैथरिन प्रथम ने पीटर द ग्रेट की मृत्यु के बाद दो साल तक सत्ता संभाली थी। 1743 में इस महल का निर्माण शुरू हुआ था और 1756 में पूरा हुआ। लगभग 1 किमी की परिधि में निर्मित इस महल का अग्रभाग नीले और सफेद रंग से सजाया गया है। इस पर जर्मन मूर्तिकार जोहान फ्रांज डंकर द्वारा डिजाइन किए गए सोने का पानी चढ़ा हुआ है। एलिजाबेथ के शासनकाल में महल के बाहरी हिस्से को सजाने के लिए 100 किलोग्राम से अधिक सोना लगा। 1773 तक उत्तर की ओर के बरामदे सोने से जगमगाते थे मगर कैथरिन द्वितीय ने इसे फिजूलखर्ची माना और जैतून के ड्रेब पेंट से इन्हें पुतवा दिया।

जैसा कि उल्लेख कर चुका हूं, नेवा नदी एवं बालटिक सागर पर स्थित सेंट पीटर्सबर्ग एव व्यापारिक बंदरगाह भी है। नेवा नदी पर बने लीवर पुल बड़े-बड़े पानी के जहाजों के गुजरने के वास्ते रात में खुल जाते हैं। लगभग 22 लीवर पुलों को खोला जाता है। वैसे सेंट पीटर्सबर्ग में नदियों और नहरों पर कुल 342 के आसपास पुल बने हैं। पीटर द ग्रेट ने इस शहर को एम्सटरडम और वेनिस की तरह बसाने की कल्पना की थी। सबसे पहले पैलेस ब्रीज रात 1 बजकर 10 मिनट पर खुलता है और उसके बाद प्रति पन्द्रह मिनट बाद पुल खुलते जाते हैं और जहाज निकलते जाते हैं। पुल के खुलने और जुड़ने का दृश्य रात में देखा जा सकता है। इसके लिए स्थानीय क्रूज बुकिंग की जा सकती है।

हमारा अगला गंतव्यस्थल सुप्रसिद्ध चित्रकार एवं दार्शनिक निकोलाई रेरिख की कर्मभूमि, इजवारा थी जहां निकोलाई रेरिख एस्टेट म्यूजियम हमारा स्वागत करने को तैयार था।
बिहार के रहने वाले गौतम कश्यप, सेंट पीटर्सबर्ग में हिन्दी-रूसी ट्रांसलेटर का काम करते हैं। उन्होंने 17 सितम्बर को हम लोगों को निकोलाई रेरिख़ की कर्मभूमि इजवारा, जिला-वोलऽसव ले जाने का कार्यक्रम बनाया, जहां रेरिख का युवावस्था बीता था। वह स्थान सेंट पीटर्सबर्ग से 80 किलोमीटर दूर था और उसके लिए हमने हाइवे से एक बस पकड़ी जो प्रातः 10.30 पर छूटी थी। रूस में भारत की तरह बसों में कंडक्टर नहीं होते। चालक को ही टिकट बनाने से लेकर यात्रियों को उतारने, उनके सामानों को लॉकर से निकाल कर देना होता है।

ग्रामीण क्षेत्र में गति सीमा होने के कारण बस लगभग दो घंटे में वोलऽसवा पहुंची थी। हम बस स्टॉप पर उतर कर टैक्सी से मात्र 15 मिनट में इजवारा पहुंचे। बोल्शेविक क्रांति के पूर्व रेरिख इजवारा के सामंत थे और सम्मोहन विद्या में विश्वास रखते थे। उनकी चित्रकारी में भी सम्मोहन कला को देखा जा सकता है। एक पुरातत्वविद् के रूप में भी उन्होंने काम किया है। सामंत होने के नाते रेरिख बोल्शेविक क्रांति के विरोधी थे और बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस से बाहर रहे। न्यूयार्क सहित तमाम देशों में घूमते रहे उसके बाद भारत की ओर रुख किए। भारत के कुल्लू में वह लम्बे समय तक रहे और वहीं 13 दिसम्बर, 1947 को उनका देहांत हुआ। वह हिमालय से बेहद प्यार करते थे। उनकी चित्रकारी में हिमालय का चित्रण हुआ है। टैगोर की परपोती से उनके पुत्र का रिश्ता जुड़ा। अपनी चित्रकला के माध्यम से उन्होंने संस्कृति से शांति की ओर अभियान चलाया। वह विरासतों की हिफाजत में सक्रिय रहे। रेरिख़ का जन्मस्थान सेंट पीटर्सबर्ग का वसीलेवस्की द्वीप है जो विश्वविद्यालय के पास है।

जब हम पेड़ों से घिरे रेरिख संग्रहालय पहुंचे, संग्रहालय की निदेशिका, चेर्कसोवा औल्गा अनातोलीविना सफाई अभियान में जुटी थीं। प्रांगण में गिरे पत्तों को बहार रही थीं। उनको हमारे आने की पूर्व सूचना, गौतम कश्यप द्वारा दे दी गयी थी। पहुंचते ही उन्होंने हमारा स्वागत किया और स्वयं परंपरागत रूसी खाना लाकर मेज पर रखने लगीं। रूसी खाने में चुकन्दर, मिंट और कुछ अन्य सब्जियों के साथ तरल पदार्थ एक बरतन में मिला। इसमें व्हाइट सॉस जैसी कोई चीज, ब्रेड में लगाकर, डुबो कर खाई जाती है। हमने रूसी खाने का आनंद लिया और फिर संग्रहालय देखने चले गए। गौतम कश्यप हमारे बीच दुभाषिए का काम कर रहे थे। देहाती क्षेत्रों में अंग्रेजी बोलने वाले भी नहीं हैं और ऐसे में अगर कोई दुभाषिया न हो तो परेशानी आ सकती है।

इजवारा के आसपास गाँव का स्कूल, सोवियत संघ काल के किसानों की फैक्टरियां, आवास और उनको दिए जाने वाले कृषि यंत्रों को देखा, जो अब बर्बाद हो गए हैं। किसानों के हित में सोवियत संघ में जिस प्रकार के काम किए गए थे, उन्हें देखकर आश्चर्य होता है।
सेंट पीटर्सबर्ग में हम ‘द स्टेट म्यूजियम ऑफ पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ रसिया’देखने गए, जहां की खिड़की से कॉमरेड लेनिन, जनता को संबोधित किया करते थे। वहीं पास में एक शानदार मस्जिद है जिसकी गुम्बद और दरवाजा नीले रंग का है।

हमारा अगला पड़ाव रूस की राजधानी मॉस्को थी। हमने बुलेट ट्रेन का विकल्प चुना था जिसे सेंट पीटर्सबर्ग से मॉस्को की कुल 709 किलोमीटर की दूरी चार घंटे में तय करनी थी। रेलवे स्टेशन की छत पर मजदूरों को संबोधित करते लेनिन की खूबसूरत पेंटिंग बरबस ध्यान अपनी ओर खींचती है। टिकट पहले से बुक था इसलिए हम जल्द प्लेट फार्म पर थे। वैसे तो बुलेट ट्रेन की अधिकतम रफ्तार, टेस्टिंग के समय 350 किलोमीटर प्रति घंटा रखा गया था मगर सुरक्षा कारणों से इसे अधिकतम 250 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चलाने की अनुमति है। बीच में दो स्थानों पर ठहराव और बीस कोच जुड़े होने के कारण यह ट्रेन अधिकतम 225 किलोमीटर से ज्यादा गति नहीं पकड़ पाती है। जब हम मॉस्को पहुंचे तो बाहर का तापमान चार डिग्री सेल्शियस तक गिर गया था और तेज हवाएं कानों को तकलीफ पहुंचा रही थीं। इसलिए कहीं और घूमने के बजाए हम सीधे होटल गए। साथ में स्टेशन से मॉस्को के टूर गाइड यूरी साथ थे।

मॉस्को रूस की राजधानी और देश का सबसे बड़ा शहर है जिसकी जनसंख्या 1 करोड़ छब्बीस लाख के लगभग है। यह विश्व का छठां सबसे बड़ा शहर है। रूसी समाज में कई कबीलाई जमात शामिल हैं मगर मॉस्को में 91.6 प्रतिशत आबादी रूसी समुदाय की है। 1.42 प्रतिशत यूक्रेनियन, 1.38 प्रतिशत ततार, 0.98 अर्मेरियन, 0.5 प्रतिशत अजेरी और कुछ अन्य समुदाय के लोग हैं। पूर्वी और पश्चिमी रूस की जनसंख्या में बहुत अंतर है।
अगले दिन हमारे भ्रमण का कार्यक्रम पैदल शहर के मेट्रो स्टेशनों को देखने का था। मॉस्को में मेट्रो की शुरुआत 1935 में हो चुकी थी और तब कुल 11 स्टेशन बने थे।

मॉस्को मेट्रो देश का पहला मेट्रो था। सेंटपीटर्सबर्ग की ही तरह यहां भी मेट्रो का जाल जमीन के 74 मीटर नीचे बिछाया गया है। शहर में लगभग 276 मेट्रो स्टेशन हैं और सभी की डिजाइन भिन्न-भिन्न है। सोवियत संघ में शामिल यूक्रेन और बेलारूस सहित तमाम देशों की संस्कृतियों और 1917 की क्रांति में उनके योगदान को स्टेशनों पर उकेरा गया है। सभी मेट्रो स्टेशन अपने आप में रूसी नायकों, वहां के बलिदान, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और प्रगति को दिखाते हैं। यूक्रेन और बेलारूस सहित अन्य देशों के नाम पर मेट्रो स्टेशन हैं। मेरे टूर गाइड ने बताया कि रूसी जनता के बीच अंधविश्वास कायम है। मेट्रो स्टेशनों पर लगीं ताबें की मूर्तियों के कुछ उभरे हिस्सों, यथा पैर या नाक को लोगों ने छू-छू कर चिकना कर दिया है। ऐसा करना लोग शुभ मानते हैं।

मेट्रो स्टेशनों पर लेनिन की मूर्ति के अलावा बोल्शेविक क्रांति से जुड़े सामाजिक आंदोलन को चित्रों, मूर्तियों आदि में देखा जा सकता है। स्टालिन के संबंध ख्रुश्चेव से ठीक नहीं रहे हैं। कुछ लोग स्टालिन को मजबूत नेता तो कुछ डिक्टेटर मानते हैं। ख्रुश्चेव ने अपने शासनकाल में मॉस्को मेट्रो स्टेशनों से स्टालिन के चित्रों को हटवा दिया था।

मेट्रो स्टेशनों से निकलने के बाद हम रेड स्क्वायर पहुंचे जो शहर का केन्द्रीय आकर्षण है और क्रेमलिन के पूर्वी दीवार की ओर स्थित है। यह रूस का सबसे पुराना ऐतिहासिक स्क्वायर है और अपने अंदर इतिहास की कई लड़ाइयों को समेटे हुए है। यहां के म्यूजियम में लेनिन की समाधि है। उनके शरीर को लेटी हुई अवस्था में संरक्षित कर के रखा गया है। इसे हल्के अंधेरे में शांतिपूर्वक देखा जा सकता है। दर्शनार्थियों द्वारा सम्मान प्रकट करने के रूप में पुरुषों के लिए टोपी उतारकर और महिलाओं को सिर ढंक कर अंदर जाने की इजाजत है। लेनिन के शरीर को इतने वैज्ञानिक तरीके से रखा गया है कि लगता है अभी लेनिन उठ खड़े होंगे। हर हफ्ते उसे संरक्षित किया जाता है। यहां फोटो खींचने की इजाजत नहीं है। रेड स्क्वायर पर क्रेमलिन के बाहर द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए जवानों की याद में ज्योति जलती रहती है। वहां दोनों ओर दो जवान बिना हिलेडुले खड़े रहते हैं। प्रति घंटे इनकी ड्यूटी विशेष परेड प्रक्रिया द्वारा बदलती रहती है।

रेड स्क्वायर पर ही सेंट बेसिल कैथेड्रल है। इसका निर्माण 155 से 1561 के बीच प्रथम मॉस्को शासक इवान द टेरिवल के आदेश से हुआ था। यह आथोडॉक्स चर्च, जो आज संग्रहालय है, कज़ान और अस्त्रखान पर विजय की याद दिलाता है। यह स्क्वायर 330 मीटर लम्बा और 70 मीटर चौड़ा है रेड स्क्वायर से तात्पर्य सुन्दर चौक से है । यह विभिन्न सार्वजनिक समारोहों, सरकारी सैन्य परेडों और घोषणाओं के लिए उपयोग में लाया जाता है। कभी जार शासकों का राज्याभिषेक यहां होता था। आजकल यहां एक शॉपिंग आलीशान मॉल भी बना है। यहां कई संग्रहालय और दर्शनीय भवन हैं।

अगले दिन हम शहर के केन्द्र में स्थित बोल्शोई थियेटर के सामने मार्क्स की ऊंची मूर्ति के पास थे जिस पर रूसी भाषा में लिखा शब्द- दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, आज भी आह्वान करता प्रतीत होता है। नारंगी रंग में रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी का कार्यालय है।

कभी शाही सत्ता का केन्द्र क्रेमलिन का निर्माण 1482-1495 में किया गया था जो लाल ईंटों का बना हुआ है। यहां चार कैथड्रल चर्च एवं एक भवन निर्मित है। घोषणा कैथड्रल इनमें से मुख्य है जिसमें पन्द्रहवीं सदी की चित्रकारी दर्शनीय है। इन चर्चों में दफनाए गए महत्वपूर्ण लोगों की कब्र को देखा जा सकता है जो सजाकर रखी गयी हैं। क्रेमलिन, 1991 तक सोवियत राष्ट्रपति का यह सरकारी आवास हुआ करता था। यहीं 1586 का जार तोप है। 1733-35 का बना एक विशाल घंटा है जो कभी बजा नहीं। यहीं रूसी सैन्य मुख्यालय के बाहर रखे अनेक तोप हैं जो बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा छोड़े गए हैं। इनमें नेपोलियन बोनापार्ट का भी तोप है। यहां हर तरफ ख़ुफ़िया नजर पर्यटकों पर पसरी रहती है।

मेरी रूस यात्रा के दौरान मौसम खराब रहा और रोज हल्की बूंदाबांदी से सामना होता था इसलिए हम सभी अपने साथ छाता लिए रहते थे। अगले दिन में अपने प्रिय लेखक चेखव की कब्र पर गए। उस दिन सड़कें गीली थीं मगर उनकी सफाई हेतु लगातार मशीनें चल रही थीं तो आगे की ओर पानी छिड़कतीं, पीछे से अपने ब्रश से उन्हें रगड़तीं और फिर सोखने वाले पाइप से गंदगी खींचती चल रही थीं। साफ-सफाई की ऐसी व्यवस्था हमारे लिए कल्पना की चीज थी तो इसलिए कुछ क्षण ठहरकर उसे भी निहारता रहा।

मॉस्को में रूसी लेखक अंतोन चेखव की कब्र जहां है वहीं कुछ अन्य साहित्यकारों जैसे कि बुल्गाकोव और मायाकोवस्की की भी कब्रें हैं। और पूर्व रूसी राष्ट्रपति ख्रुश्चेव की। वहां से हम मॉस्को की सर्वाधिक ऊंची जगह, स्पैरो हिल गए, जहां कभी नैपोलियन आया था। सामने मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी है। स्पैरो हिल पर मेन होल के ढक्कन तक कलात्मक हैं और उन पर स्पैरो का चित्र बना हुआ है।

हम लेलिन का, रसिया स्टेट लाइब्रेरी, मॉस्को भी देखने गए जिसके सामने क्राइम एन्ड पनिशमेंट के लेखक दोस्तोवस्की की भव्य मूर्ति विराजमान है। लाइब्रेरी की दीवारों पर देश के सभी महत्वपूर्ण लेखकों की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। रूस में लेखकों, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, सैन्य नायकों आदि सभी को समुचित सम्मान मिला हुआ है। विश्व प्रसिद्ध लेखक मैक्सिम गोर्की की मूर्ति तो लगी ही है, उनके नाम पर मॉस्को में एक खूबसूरत पार्क बना है। इससे लगता है कि इतिहास के मामले में यह जमीन काफी समृद्ध है। यह देश, अपने नायकों को समुचित सम्मान देता है। समुचित स्थानों पर सड़क और पुल बनाने वाले इंजीनियरों की भी मूर्तियां लगा दी गई हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के नायकों की जगह-जगह मूर्तियां लगी हैं। उनके सम्मान में विजय द्वार बने हैं। कोई भी मूर्ति सड़क को बाधित नहीं करती। मार्क्स, लेनिन आदि को छोड़ दें तो राजनेताओं की मूर्तियां नहीं दिखतीं। वर्तमान राष्ट्रपति का कहीं कोई कटआउट देखने को नहीं मिला। पूरा शहर मॉस्को जैसे सजाया गया हो। विगत बीस वर्षों में मास्कों में नया मॉस्को बसा लिया गया है जिसमें दुबई की तरह स्टील और ग्लास की ऊंची-ऊंची बिल्ड़िगें खड़ी हो गई हैं। यहां के भवन निर्माताओं द्वारा मात्र तीन महीने में चार मंजिला मकान बना लेने की क्षमता है। जब हम रूस में थे तब 17 से 19 तक वोट पड़ रहे थे मगर कहीं कोई गहमागहमी नहीं दिखी। कहीं कोई प्रचार या पोस्टर-बैनर नहीं दिखे। बाहरी क्षेत्रों में एकाध फ्लैक्स जरूर थे मगर नाम मात्र को । ऐसा चुनाव भी हमारे लिए आश्चर्य की चीज थी।

सोवियत संघ के विघटन के पूर्व उसकी अंतिम पार्लियामेंट, इसी भवन में सम्पन्न हुई थी। वर्तमान में भी यह पार्लियामेंट है। यहां के तीन चित्रों में से एक मॉडल है जिसके टॉप पर लेनिन की मूर्ति लगी है। इस भवन को जिस जगह पर बनाया जाना था वहाँ, ताजमहलनुमा चर्च बनाया गया क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद, वह नहीं बना।

लेनिन कुछ वर्षों तक जिस भवन में रहे, उसकी बाहरी दीवार पर यह चित्र उकेरा गया है। अभी भी जगह-जगह लेनिन की स्मृतियों को बचा कर रखा गया है जबकि स्टालिन को हटा दिया गया है। चर्च की सत्ता कम्युनिस्टों को पसन्द नहीं करती। देश में मध्यम वर्ग की संख्या 50 प्रतिशत के लगभग है जो निजी संपत्ति का हिमायती है। वह भले ही लेनिन का सम्मान करें मगर कम्युनिज्म का समर्थक नहीं है। 35 प्रतिशत गरीब जनता निश्चय ही कम्युनिज्म की समर्थक है। एक वर्ग ऐसा है जो कम्युनिज्म का समर्थक होते हुए भी वर्तमान कम्युनिस्टों को पसन्द नहीं करता। ऐसी स्थिति में फिलहाल रूस में कम्युनिस्टों के वापस आने की सम्भावना नहीं है।

(सुभाष चंद्र कुशवाहा साहित्यकार और इतिहासकार हैं उन्होंने यह संस्मरण रूस की अपनी यात्रा से लौटने के बाद लिखा है।)

जारी….

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