Friday, March 29, 2024

शिक्षकों की गैरपेशेवर पहचान को बढ़ावा देती नई शिक्षा नीति

स्वतंत्र भारत के करीब 74 सालों के इतिहास में अभी तक तीन बार शिक्षा नीति बनाई गई है। 1968,1986 (संशोधित रूप में 1992) और अब 2020, निश्चित ही शिक्षा के क्षेत्र में ये महत्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज है। शिक्षा नीति किसी भी देश में शिक्षा की दिशा और दशा तय करती है। किसी भी नीति में कुछ अच्छे और कुछ बुरे प्रावधान हो सकते हैं, लेकिन अच्छे और बुरे प्रावधानों से नीति की व्याख्या नहीं की जा सकती है। नीति की व्याख्या, वह कौन सी दिशा देती है, इस संदर्भ में करना होता है।

पिछले दशकों में स्कूली शिक्षा का विस्तार हुआ है। भारत में प्राथमिक कक्षाओं में NER 100% तक पहुंच गया है, लेकिन एक और विचित्र घटना इसके साथ-साथ हो रही थी। जहां एक ओर शिक्षा का विस्तार हो रहा था, वहीं दूसरी ओर शिक्षक की पेशेवर पहचान को महत्वहीन बनाया जा रहा था। एक ऐसा माहौल बनाया गया जहां बड़ी संख्या में गैर पेशेवर लोग भी शिक्षक की भूमिका में आ सकते हैं। ऐसा करने के पीछे मकसद यह रहा कि स्कूली शिक्षा पर होने वाले खर्च को घटाया जाए, क्योंकि पेशेवर शिक्षक के वेतन की वजह से सरकारों पर खर्च का बोझ बढ़ता जा रहा था।

तमाम ऐसे शोध करवाए गए, जिससे यह साबित हो सके कि गैर पेशेवर लोग भी जब शिक्षक बनते हैं तो वे बच्चों को बेहतर पढ़ाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में संसाधन तो बचाया जा सका, लेकिन शिक्षा को नहीं। गुणवत्ता के नए मानक गढ़ दिए गए, लेकिन खोखले मानक अधिक दिनों तक टिक नहीं सकते हैं। आज हमारे सामने ऐसी परिस्थिति है जहां स्कूलों में 95-97% नंबर लाने वाले बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अत्यधिक दबाव में जीते हैं। कई तरह की मानसिक और व्यवहारिक और असंगतियां उनके व्यक्तित्व में पैदा हो रही हैं। एक समाज के तौर पर हमें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।

शिक्षकों की पेशेवर पहचान को मजबूत कर इस समस्या से हम निजात पाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा सकते थे। स्कूली शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए नई शिक्षा नीति से यह उम्मीद थी कि शिक्षक की पेशेवर पहचान को महत्वहीन बना दिए जाने वाली प्रक्रिया पर रोक लगा सकेगी, लेकिन अफसोस, नीति के प्रावधानों से ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है।

इस लेख में हम देखेंगे कि शिक्षकों की गैर पेशेवर पहचान की प्रक्रिया क्या होती है? इसका क्या मतलब होता है? यह किस प्रकार हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहा है? और फिर नीति के प्रावधान कैसे इसे रोकने में असफल होती दिख रही हैं? लेख में हम ग़ैर पेशेवर प्रक्रिया के लिए ‘डिप्रोफेशनलाइजेशन’ शब्द का इस्तेमाल करेंगे।

डिप्रोफेशनलाइजेशन को गूगल सर्च किस प्रकार परिभाषित करता है पहले यह देख लेते हैं। “डिप्रोफेशनलाइजेशन पेशवर पहचान को एक खास प्रक्रिया के तहत कमजोर करना है। इस प्रक्रिया के तहत उच्च कौशल वाले कार्य को कम कौशल या बिना कौशल प्राप्त व्यक्ति से करवाया जाता है।”

पेशेवर वातावरण के अभाव में क्या होता है?
कई स्कूल प्रिंसिपल से मेरी बात होती है। वे कहते हैं कि अगर ध्यान नहीं रखा जाए तो कई शिक्षक क्लास में नहीं जाते हैं, अगर जाते हैं तो पहले निकल जाते हैं, फोन पर बात करते हैं, तैयारी करके नहीं जाते हैं। कुछ नया पढ़ना और सीखना तो बहुत दूर की बात है। हाल ही में, मैं एक चर्चा में भाग ले रहा था। बात आई कि शिक्षक किताबों में पाठ को पढ़ाने से पहले शिक्षकों के लिए जो नोट दिया हुआ रहता है, उसे अमूमन नहीं पढ़ते हैं।

अमूमन नौकरशाही और स्कूल प्रबंधन इसका उपाय प्रौद्योगिकीय और प्रबंधन क्षमताओं के अंदर ढूंढने की कोशिश करता है और इसके फलस्वरूप माइक्रोमैनजमेंट की कोशिश में जुट जाता है।

माइक्रोमैनेजमेंटः हम सब कुछ तय कर देंगे- क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, खड़े रहना है या बैठ जाना है, कितनी देर बोलना है कितनी देर चुप रहना है, क्लास में कहां खड़ा होना है, कहां पर बैठ जाना है, किन शब्दों का इस्तेमाल करना है, किन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना है, इत्यादि। इन सभी उपायों से कुछ देर के लिए ऐसा लगने लगता है कि यह उपाय कारगर हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा सिर्फ लगता है। पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया को यह पूरी तरह मशीनीकृत बना देता है। अभी तक की समझ के अनुसार यह स्थापित रहा है कि पढ़ना-पढ़ाना एक गहन अंतर्संबंध का कार्य (Intimate work) है।

हम जब भी अपने जीवन में उन शिक्षकों के योगदान को याद करते हैं जिन्होंने हमारे जीवन के यात्रा को प्रभावित किया है तो अमूमन वे शिक्षक याद आते हैं जो भावनात्मक रूप में हम से जुड़े हुए थे। यह प्यार में पड़े दो लोगों के तरह होता है, जहां एक की झलक आप दूसरे की आंखों में देख सकते हैं। मुझे ऐसे शिक्षक मिले हैं।

मेरे ख्याल में कोई भी टेक्नोलॉजी या मैनेजरियल स्किल्स बच्चे और शिक्षक के बीच के इस भावनात्मक संबंध को तय नहीं कर सकता है। असली पढ़ाई यहीं होती है। इसी भावनात्मक द्वंद्व में जो शिक्षक और बच्चे के बीच कार्य करता है, और यही वह खाई है, जिसे सिर्फ और सिर्फ शिक्षकों को पेशेवर बनाकर भरा जा सकता है।

अन्यथा हम पहले से ही स्कूलों के अंदर एक मशीनीकृत व्यवस्था का शिकार हो चुके हैं। यह दिन पर दिन बढ़ता रहेगा। हमारा स्कूल इंसान के बदले मशीन बनाकर बच्चों को बाहर निकालेगा। स्कूल एक संस्था के रूप में जिस प्रकार संचालित होती है उसको देखते हुए 1970 के दशक में ही अमेरिकी शिक्षाविद् इवान इलिच ने कहा था कि हम अपने स्कूलों में बच्चों को साइकोलॉजिकली इम्पोटेंट बना रहे हैं, जो सोच नहीं सकते हैं।

स्कूल एक ऐसी संस्था है, जिसका वास्ता हम सब के जीवन से है। अगर हमने इस संस्था को दुरुस्त करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई तो इसकी आंच आज नहीं तो कल हम सब के दरवाजे तक पहुंचेगी। बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। एक व्यापक समाज में जिस मुद्दे को लेकर आज कोई चिंता नहीं है, उसकी कीमत हमें कई बार अपने बच्चों की जान देकर चुकानी पड़ती है।

अब हम बिंदु वार यह देखते हैं कि पॉलिसी के प्रावधान कैसे शिक्षकों की पेशेवर पहचान को महत्वहीन बनाने से रोकने की दिशा में न केवल असफल दिख रही है बल्कि इसे और बढ़ावा दे रही है।

वर्कर्स/टीचर्स
पूरे दस्तावेज में यह शब्द पांच बार इस्तेमाल किया गया है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा से संबंधित शिक्षकों को वर्कर भी बुलाया जा सकता हैं और वर्करों को शिक्षक भी बुलाया जा सकता है। वैसे इस शब्द का इस्तेमाल आंगनबाड़ी वर्कर के संदर्भ में हुआ है, लेकिन मेरा सवाल है कि क्या इसी तरह आशा वर्कर/डॉक्टर लिखा जा सकता है? सिक्योरिटी गार्ड/पुलिस ऑफिसर लिखा जा सकता है?

पीयर ट्यूटरिंग
पॉलिसी इस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करती है कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं, जो पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाए हैं। इसको दूर करने के लिए पॉलिसी यह सुझाव देती है कि बड़ी संख्या में वालंटियर या वे कोई भी लोग जो पढ़-लिख सकते हैं, स्कूल उनको साथ लेकर पियर-ट्यूटरिंग के जरिए इन सभी बच्चों को तय समय सीमा के अंदर पढ़ना-लिखना सिखा दे।

कितना आदर्श और नेक मकसद है यह! आपत्ति यहां दो बातों को लेकर है। पहला, क्या आपको नहीं लगता है कि भारत में शिक्षकों के प्रति एक मानसिकता जो पहले से ही काम करती आ रही है- क्या करते हो तुम, अ, आ, इ, ई ही तो सिखाते हो- को और बढ़ावा मिलेगा।

इस संबंध में मेरा एक निजी अनुभव भी है। 2008 में जब मैंने शिक्षक की नौकरी शुरू की थी, मेरी मां से किसी ने पूछा कि आजकल आपका बेटा क्या कर रहा है?
मम्मी ने जवाब दिया कि मास्टर बन गया है।
सज्जन बहुत दुखी होते हुए बोले,
“अरे वह तो कोई भी बन जाता है, मैंने तो सुना था कि बहुत अच्छी पढ़ाई-लिखाई करता है दिल्ली में रहकर।”

क्या आपको नहीं लगता है कि इस मानसिकता को शिक्षा के नीतिगत दस्तावेज में जगह दे दी गई है?
क्या शिक्षकों की पेशेवर पहचान पर यह एक प्रश्न चिन्ह नहीं है?
दूसरा, पॉलिसी जो बात-बात पर रिसर्च का हवाला देती है यहां एक बड़ी चूक कर रही है। प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग जानते हैं कि शुरुआती वर्षों में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाना एक महत्वपूर्ण कौशल का काम है जो सबके बस की बात नहीं है। इसके लिए खास तरह के प्रशिक्षण की जरूरत होती है।

प्रारंभिक कक्षाओं में भारत में NER 100% है। यानी स्कूल जाने वाले उम्र के सभी बच्चे इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं। फिर अगर ये पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाते हैं तो इसका मतलब है कि पढ़ना-लिखना सीखने से जुड़ा हुए बच्चों का अनुभव बहुत खराब रहा है, और इस काम में जुड़े हुए व्यक्तियों में प्रशिक्षण की कमी रही है। ऐसे में अप्रशिक्षित लोग जब इन बच्चों के साथ जुड़ेंगे तो क्या आपको नहीं लगता है कि इस बात की बड़ी संभावना है कि इन बच्चों का पढ़ने-लिखने का अनुभव और खराब होगा जो शायद इन्हें शिक्षा से और दूर धकेलेगा।

पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के लिए अपर्याप्त प्रशिक्षण की व्यवस्था
“वे कोमल, अविकसित मस्तिष्क अपनी कोमलता के कारण ही अधिक भयंकर होते हैं, जब लोग पक्की सड़क पर चलते हैं तब हमारे पांव की छाप नहीं पड़ती, लेकिन जब गीली मिट्टी पर, धूल पर, रेत पर चलते हैं तब पैर बहुत गहरा धंस जाता है। पक्की सड़क पर पानी बह जाती है, कच्ची सड़क पर जहां जहां धंसे हुए पैरों से गड्ढे होते हैं, वहां कीच बनती है…”
ऊपर लिखी हुई ये पंक्तियां अज्ञेय से उधार ले ली हैं। सिर्फ यह बताने के लिए कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा कितना महत्वपूर्ण है और उसमें शामिल होने वाले शिक्षक जिनको पॉलिसी में वर्कर भी कहा गया है कि कितनी बड़ी भूमिका है।

आगे देखते हैं कि पॉलिसी इनके लिए किस प्रकार की योग्यता और प्रशिक्षण का सुझाव दे रही है। जिन्होंने 12वीं पास कर रखी है वे छह महीने का सर्टिफिकेट कोर्स करके पढ़ा सकते हैं और जिन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई नहीं की है, पांचवी तक की होगी, आठवीं तक की या 10वीं तक की, वे एक वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स करके इन बच्चों को पढ़ाने के लिए योग्य हो जाएंगे।

क्या आप इसे शिक्षक की पेशेवर पहचान पर एक प्रश्न चिह्न नहीं मानते कि पांचवीं या आठवीं पास कोई भी व्यक्ति एक वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स करके शिक्षक/वर्कर बन जाएगा और खासकर उन बच्चों को पढ़ाने के लिए जहां सबसे ज्यादा प्रशिक्षण की जरूरत है?

सेकेंडरी कक्षाओं में अनेक विषय चुनने की आजादी
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से निकलकर थोड़ा ऊपर पहुंचते हैं और जिक्र करते हैं पॉलिसी के उन प्रावधानों का जिसे लेकर जश्न का माहौल है और हो भी क्यों नहीं लोकतांत्रिक देश में चुनने का अवसर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

9वीं से 12वीं कक्षा के बीच में पढ़ने वाले बच्चों को ढेर सारे विषयों को चुनने का मौका मिलेगा। यहां जानबूझकर ढेर सारे विषयों को ‘पढ़ने का मौका मिलेगा’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसके ज्ञान मीमांसीय यानी कि एपिस्टेमिक पहलू पर किसी और लेख में चर्चा करेंगे, फिलहाल यहां यह प्रावधान शिक्षक के पेशे को और अधिक डिप्रोफेशनलाइज कैसे करता है इस पर केंद्रित करते हैं।

स्कूल चलाने वाले सरकारी और गैर सरकारी समूह दोनों में ही शिक्षकों के वेतन पर आने वाला खर्च हमेशा से एक बड़ी चिंता की वजह रहा है। समय-समय पर कई संस्थाओं ने सरकारों को सुझाव भी दिया है कि इसे कैसे कम किया जा सकता है। सुझाव देने वाली संस्थाओं में विश्व बैंक भी शामिल है। उन्हीं सुझावों का नतीजा है कि आज देश के करीब-करीब हर राज्य में बड़ी संख्या में शिक्षकों को ठेके पर नियुक्त किया जाता है। अब इसकी भी जरूरत नहीं रहेगी और भी बेहतर उपाय सोच लिए गए हैं। नए प्रावधान के साथ पॉलिसी ने उस चिंता को दूर करने का पुख्ता इंतजाम कर दिया है।

बच्चा श्यामपट पर लिखता हुआ।

स्कूली शिक्षा में इसे ‘अर्बन क्लेप’ मोमेंट कहा जा सकता है। छात्र अगर नहीं भी तो स्कूल प्रशासन जरूर इस स्थिति में होगा कि हर दिन वह तय कर सके कि आज किन-किन विषयों की डिमांड है और उस हिसाब से ऐप के जरिए वह सर्विस रिक्वेस्ट डाल सके।

वैसे इस मामले में स्कूल प्रशासन खुद बहुत होशियार होता है, लेकिन पॉलिसी एक कदम आगे बढ़ कर उन्हें सुझाव देती है कि शिक्षकों को आप स्कूलों के लिए नहीं ‘स्कूल काम्प्लेक्स’ के लिए नियुक्त कर सकते हैं। एक स्कूल कांपलेक्स में कितने स्कूल होंगे यह संख्या निर्धारित नहीं की गई है। स्कूल कांपलेक्स में एक स्कूल से दूसरे स्कूल में भटकते हुए शिक्षक की तस्वीर को क्या आप ट्यूशन पढ़ाने वाले उन शिक्षकों से अलग कर सकते हैं जो अपना गुजारा चलाने के लिए एक घर से दूसरे घर भटकते हुए बच्चों को पढ़ाते हैं?

कम जटिलता या लेस स्ट्रेनियस वाले गैर शैक्षणिक कार्य
शिक्षकों के द्वारा गैर शैक्षणिक कार्य के संबंध में पॉलिसी से जुड़े हुए करीब-करीब सभी दस्तावेजों में चिंता जताई गई है। 21वीं सदी के पॉलिसी दस्तावेज में उन्हीं चिंताओं को दोहराया गया है। आप ऐसे किसी भी काम के बारे में सोचिए, जो आप नहीं कर सकते हैं। शिक्षकों से ऐसे सभी काम करवाए जाते हैं। सिर्फ कोविड के दौरान ही नहीं कोविड जब नहीं थी तब भी। यहां तक कि पार्टियों में पूरी बांटना, स्वछता आंदोलन के तहत यह सुनिश्चित करना कि खुले में कोई शौच तो नहीं कर रहा है। जनगणना और चुनाव कार्यों को तो देशभक्ति का कार्य ही मान लिया गया है।

शिक्षकों की पेशेवर पहचान को ये सभी काम न सिर्फ नकारात्मक रूप में प्रभावित करते हैं, बल्कि अपमानजनक भी है। पॉलिसी दस्तावेज में इसको लेकर चिंता व्यक्त की गई है और सुझाव दिया गया है कि शिक्षकों से ऐसे काम लिए तो जा सकते हैं, लेकिन वह ‘less strenuous’ कम जटिलता वाले हों। पॉलिसी दस्तावेजों को पढ़ते हुए शब्दों का खेल बहुत निराला होता है। शब्दों पर गौर करना बहुत महत्वपूर्ण होता है। ‘कम जटिलता’ वह हर व्यक्ति तय करेगा जो शिक्षकों के ऊपर काम थोपने कि स्थिति में होगा।

हाल ही में लेबर लॉ में हुए बदलावों के संबंध में एक हेडलाइन आई थी, ‘अब लोग सप्ताह में 80 घंटे से अधिक काम कर सकेंगे’
इसे पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि न जाने कब से लोग इसकी मांग कर रहे थे और उनकी मांगों को मान लिया गया है। ‘कम जटिलता या लेस स्ट्रेनियस’ भी शायद ऐसा ही है। कोई प्रशासनिक अधिकारी काम देते वक्त सिर्फ यह कह सकता है कि आज हमने आपको 100 घरों का सर्वे करने के लिए कहा था, ऐसा करिए आप 90 घरों में ही कर लीजिए, थोड़ा लेस स्ट्रेनियस होगा। सामान्यतः किसी स्कूल में एक दिन में आठ पीरियड की पढ़ाई होती है। सप्ताह में कुल मिलाकर 48 पीरियड मैक्सिमम कोई शिक्षक पढ़ा सकता है। 47 लेस स्ट्रेनियस होगा।

शिक्षकों की पेशेवर पहचान पर एक सवाल
क्या इन प्रावधानों के साथ हम शिक्षा में ‘बेस्ट माइंड’ को आकर्षित कर पाएंगे?
क्या स्कूली शिक्षा का निजीकरण भी शिक्षकों को गैर पेशेवर बनाने की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है?

पॉलिसी दस्तावेज में शिक्षा के निजीकरण की पुख्ता वकालत की गई है। बड़े शहरों के कुछ चुनिंदा स्कूलों को अगर आप छोड़ दें तो बिना पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक बड़ी संख्या में निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। खासकर कम बजट पर चलने वाले निजी स्कूल, शिक्षकों की योग्यता के लिए निर्धारित जरूरी मापदंडों की धज्जियां उड़ा देते हैं। यह प्रक्रिया आसपास के समाज में यह स्थापित करता है कि कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति भले ही उसने पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त किया हो या नहीं स्कूल में नौकरी कर सकता है।

पर्याप्त प्रशिक्षण कौशल नहीं होने की वजह से स्कूल प्रशासन उन शिक्षकों का शोषण करने में सफल रहता है। ऐसे शिक्षकों को बहुत कम तनख्वाह दी जाती है। विरोध का कोई सवाल ही नहीं रह जाता है। बात-बात पर यह धमकी दी जाती है की बीएड या अन्य जरूरी शैक्षणिक योग्यता नहीं होने की वजह से उनको निकाल दिया जाएगा। यह बहुत क्लासिक उदाहरण है यह समझने के लिए कि कैसे डिप्रोफेशनलाइज स्टेट में जब कोई व्यक्ति काम करता है तो उसका नेगोशिएशन पावर बिल्कुल खत्म हो जाता है।

स्कूली शिक्षा में निजीकरण अपरिहार्य रूप से इस वातावरण को बढ़ावा देता है, और अब एक नए माहौल में जहां पॉलिसी कहती है कि ‘इनपुट लेस रेगुलेटेड’ होगा। यानी आप कहां से शिक्षक को लाते हैं, कितना उनको वेतन देते हैं, उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है, इस पर रेगुलेशन कम रहेगा। क्या आप भी कुछ ऐसे शिक्षकों को जानते हैं जो शिक्षक बनने के लिए निर्धारित योग्यता के बिना स्कूलों में पढ़ा रहे हैं? क्या आपको नहीं लगता है कि इससे शिक्षकों की पेशेवर पहचान पर सवाल उठता है और यह धारणा और मजबूत होती है कि शिक्षक तो कोई भी बन जाता है?

साथ में दस्तावेज में एक प्रावधान है। अभी तक निजी स्कूल एक स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य करते थे। फिलैंथरोपिक शब्द का इस्तेमाल कर अब इसे सरकारी स्कूल व्यवस्था में भी घुसाने का पर्याप्त बंदोबस्त कर दिया गया है। सुंदर शब्द कहे गए हैं, सार्वजनिक-फिलैंथरोपिक साझेदारियां।

प्रतीकात्मक फोटो।

“3.6- दोनों, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के विद्यालय के निर्माण को सरल करने के लिए; संस्कृति, भूगोल और सामाजिक संरचना के आधार पर स्थानीय विविधताओं को प्रोत्साहित करने, और शिक्षा के वैकल्पिक मॉडल बनाने की अनुमति देने के लिए स्कूलों के निर्माण संबंधी नियमों को हल्का बनाया जाएगा। इसका फोकस इनपुट पर कम और वांछित सीखने के परिणामों से संबंधित आउटपुट क्षमता पर अधिक केंद्रित होगा। इनपुट्स संबंधित विनियम कुछ विशेष क्षेत्रों तक सीमित होंगे, जिनका अध्याय 8 में उल्लेख किया गया है। स्कूलों के अन्य मॉडलों को भी पायलट किया जाएगा, जिसमें सार्वजनिक- फिलैंथरोपिक साझेदारियां शामिल हैं।” (लेख का शेष भाग कल शुक्रवार को पढ़िए।)

  • मुरारी झा

(लेखक दिल्ली में शिक्षक हैं।)

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