Saturday, April 20, 2024

एक दिन झाड़ियों में गुम हो जायेगी विश्व विख्यात फूलों की घाटी

पारिस्थितिकी तंत्र की जानकारी के नितांत अभाव, वन एवं वन्यजीव संरक्षण के अव्यवहारिक सरकारी उपाय और विवेकहीन पर्यटन तथा विकास की नीतियों के चलते धरती पर स्वर्ग का जैसा नजारा देने वाली ”विश्व विख्यात फूलों की घाटी’’ का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि कुदरत के इस हसीन तोहफे पर पर्यावरण कानूनों के ताले डाले जाने से इसके अंदर की विलक्षण जैव विविधता का दम घुटने लगा है। वनस्पति विज्ञानियों को डर है कि अगर पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम जैसी झाड़-पतवार प्रजातियां इसी तरह फैलती गयीं तो वह दिन दूर नहीं जबकि मनुष्य को सौंदर्य का बोध कराने वाली दुर्लभ फूलों की यह घाटी झाड़ियों की घाटी में तब्दील हो जायेगी। हैरानी का विषय तो यह है कि जो पॉलीगोनम इस घाटी की जैव विविधता और सुन्दरता के लिये संकट बना हुआ है उसे राज्य के पर्यटन और वन विभाग द्वारा घाटी की शान के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है।

विलक्षण पादप विविधता और अद्भुत नैसर्गिक छटा को परखने के बाद यूनेस्को द्वारा 2005 में विश्व धरोहर घोषित फूलों की घाटी और नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व पर जब से कानूनों का शिकंजा कसता गया तब से वहां जैव विविधता बढ़ने के बजाय फूलों की कई प्रजातियां दुर्लभ या संकटापन्न हो गयीं। यही नहीं वहां कस्तूरी मृग, भूरा भालू और हिम तेंदुआ जैसी प्रजातियां दुर्लभ हो गयी हैं। सन् 1982 में इसे राष्ट्रीय पार्क घोषित किये जाने के बाद इसके पादप वैविध्य का भारत सरकार के तीन विभागों ने अलग-अलग सर्वे किया है। इनमें से भारतीय सर्वेक्षण विभाग (बीएसआई) द्वारा गोविन्द घाट से लेकर फूलों की घाटी के सिरे तक 19 किमी लम्बी भ्यूंडार घाटी के सर्वे में 613 पादप प्रजातियां दर्ज हुयी हैं।

जबकि वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) के पादप विज्ञानियों ने लगभग 87.50 वर्ग किमी में फैली इस घाटी के केवल 5 किमी लम्बे हिस्से का सर्वे किया जिसमें 521 प्रजातियां दर्ज हुयी हैं। दूसरी ओर भारतीय वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) के वनस्पति शास्त्रियों ने वनस्पति सर्वेक्षण विभाग की सूची में 50 अतिरिक्त प्रजातियों को जोड़ा है। इन प्रजातियों में लगभग 400 प्रजातियां फूलों की हैं जिनमें ब्लू पॉपी, सीरिंगा इमोडी, एबीज पिन्ड्रो, एसर कैसियम, बेटुला यूटिलिस, इम्पैटीन्स सुल्काटा, पौलीमोनियम कैरुलियम, पेडिकुलैरिस पेक्टिनाटा, प्रिमुला डेन्टीकुलेट, कैम्पानुला लैटिफोलिया, जेरेनियम, मोरिना, डेलफिनियम, रेनन्कुलस, कोरिडालिस, इन्डुला, सौसुरिया, कम्पानुला, पेडिक्युलरिस, मोरिना, इम्पेटिनस, बिस्टोरटा, लिगुलारिया, अनाफलिस, सैक्सिफागा, लोबिलिया, थर्मोपसिस, साइप्रिपेडियम आदि हैं। इन नाजुक प्रजातियों के अस्तित्व पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है।

दुनिया की नजर में कुदरत के इस बेहद हसीन तोहफे को सबसे पहले ब्रिटिश पर्वतोराही फ्रेंक स्माइथ लाया था। वह अपने साथी होल्ड्सवर्थ के साथ सन् 1931 में सीमान्त जिला चमोली में स्थित कामेट शिखर पर चढ़ाई के बाद लौटते समय भटक कर जब यहां पहुंचा तो वह जंगली फूलों के सागर में डूबी इस घाटी का दिव्य नजारा देख कर आवाक रह गया। दुनिया की कई घाटियों से गुजर कर गगनचुम्बी शिखरों पर चढ़ाई करने वाले स्माइथ ने प्रकृति का ऐसा नैसर्गिक रूप कहीं नहीं देखा था।

फ्रेंक स्माइथ जब वापस इंग्लैंड लौटा तो वह स्वयं को नहीं रोक पाया और 6 साल बाद फिर इस घाटी में लौट आया जहां उसने अपने साथी बॉटनिस्ट आरएल होल्ड्सवर्थ के साथ मिल कर घाटी की पादप विविधता का विस्तृत अध्ययन किया और अपने अनुभवों तथा घाटी की विलक्षण विविधता पर सन् 1938 में अपनी विश्व विख्यात पुस्तक ‘‘द वैली ऑफ फ्लावर्स’’ प्रकाशित कर दी। इस पुस्तक में उसने इस घाटी का वर्णन दुनिया की सबसे हसीन फूलों की घाटी के रूप में किया। पुस्तक को पढ़ने के बाद 1939 में ईडनवर्ग बॉटेनिकल गार्डन की वनस्पति विज्ञानी जौन मार्गरेट लेगी यहां पहुंची।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक ऋषिकेश से ऊपर मोटर मार्ग नहीं था, इसलिये मार्गरेट लेगी 289 किमी की कठिनतम् पैदल यात्रा कर हिमालय की उस कल्पनालोक जैसी सुन्दर घाटी में जा पहुंची। वह एक माह तक वहां विलक्षण पादप प्रजातियों के संकलन के दौरान 4 जुलाई, 1939 के दिन पांव फिसलने से चट्टान से गिर गयीं और अपनी जान गंवा बैठीं। मार्गरेट जब समय से वापस नहीं लौटी तो लंदन से उसकी बहन भी घाटी में पहुंची जहां उसे मार्गरेट का शव मिल गया जिसे वहीं कब्र बना कर प्रकृति की गोद में सुला दिया गया। वहां आज भी मार्गरेट लेगी की कब्र उसकी याद दिलाती है। लेकिन आज जब प्रकृति की विलक्षण कारीगरी का नमूना देखने के लिये देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं तो फ्रेंक स्माइथ, मार्गरेट लेग्गी और अस्सी के दशक से पूर्व वहां पहुंचे पुष्प प्रेमियों की तरह यह हसीन घाटी उनके मन को नहीं हर पाती है। कारण यह कि सनकी दिमागों से उपजे निर्णयों, आसपास की अत्यधिक अनियंत्रित भीड़ और पहाड़ों की अत्यंत जटिल और सहज भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ प्रबंधकों और नीति निर्माताओं के कारण वहां इको सिस्टम में काफी बदलाव आ गया है।

वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) के पारिस्थितिकी विशेषज्ञों के अनुसार गलत नीतियों के कारण वहां नेचुरल सक्सेशन (प्राकृतिक उत्तराधिकार) की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। इस प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत जब एक प्रजाति विलुप्त होती है तो उसकी जगह दूसरी प्रजाति ले लेती है। इस घाटी में नाजुक फूलों की प्रजातियों की जगह पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम जैसी झाड़ीनुमा प्रजातियां लेने लगी हैं। वन अनुसंधान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुके डॉ. जे.डी.एस नेगी एवं डॉ. एच. बी. नैथाणी के अनुसार अगर घाटी में तेजी से फल रही पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम को समूल नष्ट नहीं किया गया तो सौ सालों से पहले ही फूलों की घाटी केवल झाड़ियों की घाटी बन कर रह जायेगी और प्रकृति की यह अनूठी सुरम्यता वियावान बन जायेगी।

डा0 जे.डी.एस. नेगी के अनुसार घाटी में पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम और ओसमुण्डा जैसी विस्तारवादी प्रजातियों का विस्तार तेजी से हो रहा है और लगभग ढाई मीटर तक ऊंची इन प्रजातियों के नीचे प्रिमुला और हिमालयी ब्लू पॉपी जैसी नाजुक प्रातियां पनप नहीं पा रही हैं। वैसे भी वनस्पति विज्ञानियों का मानना है कि हिमालय पर वनस्पति प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के कारण ऊपर की ओर चढ़ रही हैं। वृक्ष रेखा के साथ ही झाड़ियां भी ऊंचाई की ओर बढ़ रही हैं। फूलों की घाटी में भी इस झाड़ीनुमा प्रजाति पोलीगोनम के अलावा बीच में बुरांस (रोडोन्डेण्ड्रन) और बेटुला यूटिलिस जैसी बड़े आकार की प्रजातियां पनपने लगी हैं, जबकि यह एल्पाइन या बुग्याल क्षेत्र है और वृक्ष रेखा इससे काफी नीचे होती है। अगर यहां की जैव विधिता पर पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम का हमला नहीं रोका गया तो 100 सालों के अन्दर ही यह घाटी घनघोर जंगल या झाड़ियों में गुम हो जायेगी।

शोधकर्ताओं के अनुसार प्रचीन काल से लेकर 1962 में भारत-चीन युद्ध तक इस सीमान्त क्षेत्र के निवासियों का तिब्बत के साथ वस्तु विनिमय के आधार पर व्यापार चलता रहा है। उस समय इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में आवागमन और सामान को ढोने का साधन बकरियां, याक और घोड़े जैसे जानवर ही होते थे। ये जीव जब तिब्बत के एल्पाइन चारागाहों से चरते हुये लौटते थे तो इनके बालों पर वहां के फूलों के बीज (स्थानीय बोली में कूरे-कुंबर) चिपक जाते थे। उस जमाने में आज की फूलों की घाटी जैसे बुग्याल बकरियों के कैंपिंग ग्राउण्ड होते थे। उन कैंपिंग ग्राउण्ड में व्यापारी तथा उनकी भेड़ें कई दिनों तक विश्राम करती थीं। वह इसलिये कि वहां बकरियों के चरने के लिये पर्याप्त घास मिल जाती थी।

इसी दौरान तिब्बत से चिपक कर आये फूलों या वनस्पतियों के बीज वहां गिर जाते थे। इसीलिये एक छोटी सी घाटी में इतनी तरह की पादप प्रातियां उग जाती थीं और फिर वे प्रजातियां उन चारागाहों की स्थाई वास बन जाती थीं। वनस्पति विज्ञानियों के अनुसार तिब्बत से बकरियों और याकों पर चिपक कर आये बीजों से जन्मीं ये पुष्प प्रजातियां इसीलिये चीनी या तिब्बती मूल की हैं। उत्तराखण्ड की सरकार और उसका पर्यटन विभाग फूलों की घाटी के अस्तित्व पर मंडराते खतरे के प्रति कितनी सजग है उसका नमूना पर्यटन विभाग के उन पोस्टरों को देख कर लगाया जा सकता है जिनमें इस अद्भुत प्राकृतिक पुष्प वाटिका की दुश्मन पोलीगोनम को फूलों की घाटी की शान के तौर पर प्रचारित किया जाता है।

(वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत का लेख।)

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