Friday, March 29, 2024

रफी की पुण्यतिथिः ‘बापू की ये अमर कहानी’ गीत सुनकर रो दिए थे प्रधानमंत्री नेहरू

‘‘लता मंगेश्कर भारत रत्न तो मोहम्मद रफी क्यों नहीं?’’ अक्सर यह सवाल शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफी के चाहने वाले पूछते हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं हैं। क्यों हमने अपने इस शानदार गायक की उपेक्षा की है? ‘भारत रत्न’, तो छोड़िए सरकार ने उन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ के लायक भी नहीं समझा। जबकि उनसे कई जूनियरों को यह पुरस्कार अब तक मिल चुका है।

गायकी के क्षेत्र में मन्ना डे, पंकज मलिक, लता मंगेशकर और आशा भोंसले उनसे पहले यह पुरस्कार हासिल कर चुके हैं। जबकि मो. रफी का गायन और उनकी शख्सियत किसी भी तरह अपने समकालीन गायकों से कमतर नहीं, बल्कि कई मामलों में तो यह बेमिसाल गुलूकार उनसे इक्कीस ही साबित होगा।

चाहे मो. रफी के गाये वतनपरस्ती के गीत ‘‘कर चले हम फिदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’ (बैजू बावरा), ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’ (फिल्म चित्रलेखा, 1964), ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’ (फिल्म अमर, 1954), ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’ (फिल्म घराना, 1961), ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ (फिल्म उस्ताद, 1957) इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फूंक दी है। दिल की अतल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है।

जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी। बाद में उन्होंने मो. रफी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत की फरमाइश की।

पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने मोहम्मद रफी को एक रजत पदक देकर सम्मानित किया। मो. रफी को अपनी जिंदगी में कई सम्मान-पुरस्कार मिले। दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया। लेकिन पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस सम्मान को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे।  

फिल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के करियर में मो. रफी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हजारों गीत गाए और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के कदम वहीं ठिठक जाते हैं। उनकी मीठी आवाज जैसे कानों में रस घोलती है। दिल में एक अजब सी कैफियत पैदा हो जाती है। मो. रफी को इस दुनिया से गुजरे चार दशक हो गए, लेकिन फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया।

इतने लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं। हिंदी गीतों की दुनिया में कई मौसम आए और चले गए, लेकिन मो. रफी का मौसम अभी भी जवां है। वे सदाबहार थे, सदाबहार हैं और आगे भी रहेंगे। हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत की जब भी बात होगी, मो. रफी उसमें हमेशा अव्वल नंबर पर रहेंगे। 31 जुलाई, 1980 आज ही के दिन यह सदाबहार फनकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया था। जब उनका इंतिकाल हुआ, उस दिन बंबई में मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस बारिश के बावजूद, अपने महबूब गुलूकार के जनाजे में शिरकत करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे और उन्हें रोते-सिसकते अपनी आखिरी विदाई दी।

भारत सरकार ने उनके एहतिराम में दो दिन का राष्ट्रीय शोक का एलान किया। यह सारी बातें मो. रफी की अज्मत बतलाने के लिए काफी हैं। वरना उनके गायन और गीतों के बारे में इतने किस्से हैं कि किताबों के हजारों सफहे कम पड़ जाएं।

हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. रफी की पैदाइश 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी। उनके परिवार का संगीत से कोई खास सरोकार नहीं था। मो. रफी ने खुद इस बात का जिक्र अपने एक लेख में किया था।

उर्दू के मकबूल रिसाले ‘शमा’ में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने लिखा है, ‘‘मेरा घराना मजहबपरस्त था। गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था। मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे। उनका ज्यादातर वक्त यादे-इलाही में गुजरता था। मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था। जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप-छिप कर किया करता था। दरअसल मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तर्बियत (सीख) एक फकीर से मिली थी।  

‘‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’’ यह गीत गाकर, वह लोगों को दावते-हक दिया करता था। जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था।’’ बहरहाल, उस फकीर ने रफी साहब की गीतों की जानिब इस दीवानगी और जुनून को देखते हुए दुआ दी कि ‘‘यह लड़का आगे चलकर खूब नाम कमाएगा।’’

साल 1935 में मो. रफी के अब्बा गम-ए-रोजगार की तलाश में लाहौर आ गए। मो. रफी की गीत-संगीत की चाहत यहां भी बनी रही। मो. रफी की गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना। इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए, उन्होंने रफी को बकायदा संगीत की तालीम दिलाई।

उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और उस्ताद गुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से उन्होंने गीत-संगीत का ककहरा सीखा। राग-रागनियों पर अपनी कमान बढ़ाई। जो आगे चलकर फिल्मी दुनिया में उनके बहुत काम आया। आलम यह था कि मुश्किल से मुश्किल गाना, वे सहजता से गा लेते थे।

मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला नगमा साल 1941 में महज सत्रह साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई। इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. रफी को हिंदी फिल्म के लिए सबसे पहले गवाया। फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई। उस वक्त भी हिंदी फिल्मों का मुख्य केंद्र बंबई ही था। लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफी बंबई पहुंच गए।

उस वक्त संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। उनके वालिद साहब की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे। नौशाद साहब ने रफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए। फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया। नौशाद के संगीत से सजी ’अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ‘तेरा खिलौना टूटा’ से रफी को काफी शोहरत मिली। इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ‘मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’, जो सुपर हिट साबित हुआ।

इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफी की जोड़ी बन गई। इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए। ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीजा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आजम’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फिल्मों ने नौशाद और मो. रफी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया।

इसमें भी साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो नेशनल एंथम बन गए। खास तौर पर इस फिल्म के ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मोहम्मद रफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है।

नौशाद के लिए मो. रफी ने तकरीबन 150 से ज्यादा गीत गाए। उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुक़ाबला नहीं। मसलन ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ (फिल्म कोहिनूर)।

1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेंमत कुमार, ओपी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खैयाम, आरडी बर्मन, उषा खन्ना आदि के साथ सैंकड़ो गाने गाए। एक दौर यह था कि मो. रफी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे। उनके गीतों के बिना कई अदाकार फिल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे।

फिल्मी दुनिया में मो. रफी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो। उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए। जिंदगी का ऐसा कोई भी वाकिया नहीं है, जो उनके गीतों में न हो। मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं। ‘मेरा यार बना है दूल्हा’, ‘आज मेरे यार की शादी है’, ‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’, ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ और ‘चलो रे डोली उठाओ कहार’। हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग की। हर गायन की अदायगी अलग-अलग।

मो. रफी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फिल्मों में लंबे समय तक टिके रहे। सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फिल्में सुपर हिट हुईं। रफी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है।

यकीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फर्क दिख जाएगा। किस बारीक तरीके से मो. रफी ने इन अदाकारों की एक्टिंग और उनकी पर्सनेलिटी को देखते हुए गीत गाए हैं।

मोहम्मद रफी के लिए यह किस तरह से मुमकिन होता था? इस बारे में उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘किसी भी फनकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है। वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है। फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है। कुछ गानों में फनकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है। फिर उस गीत का एक-एक लफ्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है।’’ रफी साहब ने बड़े ही सरलता और सहजता से भले ही यह बात कह दी हो, लेकिन गायक-गायिका यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि यह काम इतना आसान भी नहीं।

मोहम्मद रफी फिल्मी दुनिया में अपने करियर की शुरुआत में कुंदन लाल सहगल, जीएम दुर्रानी और तलत महमूद की गायकी के प्रशंसक रहे। शुरू की फिल्मों में उन्होंने उनकी गायन शैली को अपनाया, लेकिन बाद में अपना खुद का एक स्टाइल बना लिया। वे खुद ही दूसरे गायकों के लिए आईकॉन बन गए। मोहम्मद रफी ने कई अदाकारों के लिए तो प्लेबैक सिंगिंग की ही, पार्श्व गायक किशोर कुमार के लिए भी आठ गाने गाए। यही नहीं साल 1945 में, वे पहली बार फिल्म ‘लैला मजनू’ के एक गीत ‘‘तेरा जलवा जिसने देखा’’ के लिए फिल्म स्क्रीन पर भी आए।

मोहम्मद रफी की जिंदगी में एक दौर ऐसा भी आया था, जब वे कुछ अरसे के लिए फिल्मों से दूर हो गए थे। वजह, साल 1971 में रफ़ी साहब हज पर गए थे। जब वह वहां से लौटने लगे, तो कुछ मौलवियों और उलेमाओं ने उनसे कहा, ‘‘अब आप हाजी हो गए हैं। लिहाजा आपको फ़िल्मों में नहीं गाना चाहिए।’’ मो. रफी यह बात मान भी गए और वाकई देश में लौटकर उन्होंने गाने गाना बंद कर दिया। उनके इस फैसले से उनके चाहने वालों को बड़ी निराशा हुई।

सभी ने उनसे मिन्नतें कीं, वे गाने गाना दोबारा शुरू कर दें। आखिरकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाया, ‘‘गाना छोड़ कर ग़लत कर रहे हो मियां। ईमानदारी का पेशा कर रहे हो, किसी का दिल नहीं दुखा रहे। यह भी एक इबादत है। अब बहुत हो गया, अब गाना शुरू कर दो।’’ तब रफ़ी साहब ने फिर से गाना शुरू किया। अपनी इस वापसी के बाद रफ़ी ने ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘यादों की बारात’, ‘अभिमान’, ‘बैराग’, ‘लोफ़र’, ‘लैला मजनू’, ‘सरगम’, ‘दोस्ताना’, ‘अदालत’, ‘अमर, अकबर, एंथनी’, ‘कुर्बानी’ और ‘क़र्ज़’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए बहुत से यादगार गीत गाए।

मोहम्मद रफ़ी अपने पेशे के लिए बहुत ही समर्पित इंसान थे। शोहरत की बुलंदियों को छूने के बाद भी कभी कोई बुरा शौक उन्हें कभी छू नहीं पाया। फिल्मों में तरह-तरह के गीत गाने वाले रफी अपनी आम जिंदगी में कम ही बोलते थे। इंटरव्यू और फिल्मी पार्टियों से दूर रहते। हंसमुख और दरियादिल ऐसे कि हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहते थे। कई फिल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिए या बेहद कम पैसे  लेकर गाए थे।

मो. रफी ने सैंकड़ों फिल्मों के लिए गाने गाए लेकिन खुद उन्हें फिल्में देखने का बिल्कुल शौक नहीं था। परिवार के साथ कभी उनकी जिद पर कोई फिल्म देखने जाते, तो फिल्म के दौरान सो जाते। अपने परिवार और खास दोस्तों के साथ बैडमिंटन, कैरम खेलना और पतंग उड़ाना उनके मुख्य शौक थे। मो. रफी ने हजारों नगमे गाए, लेकिन उन्हें फिल्म ‘दुलारी‘ में गाया गीत ‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे।’ बहुत पसंद था। यह उनका पसंदीदा गीत था।

1970 के दशक में मो. रफी ने कई लाइव संगीत कार्यक्रमों में अपने गीतों का प्रदर्शन किया। इसके लिए वे पूरी दुनिया घूमे। मोहम्मद रफी के यह सभी लाइव शो कामयाब साबित हुए। दुनिया भर में फैले मो. रफी के प्रशंसक उनके गीतों के जैसे दीवाने थे। आज भी उनके प्रशंसक, पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। ऐसी शोहरत बहुत कम लोगों को नसीब होती है।

मोहम्मद रफी अपने गायन की वजह से अनेक पुरस्कार और सम्मानों से नवाजे गए। हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘फिल्म फेयर’ अवार्ड के लिए उन्हें 16 बार नॉमिनेट किया गया और छह बार उन्हें यह पुरस्कार मिला। जिसमें भी साल 1961, 1968, 1977, 1979 और 1980 में उनके एक से ज्यादा गाने इस पुरस्कार के लिए नॉमिनी थे।

‘चौदहवीं का चाँद हो तुम’ (फिल्म ’चौदहवीं का चाँद’, साल 1960), ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को’ (फिल्म ‘ससुराल’, साल 1961), ‘चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ (फिल्म ‘दोस्ती’, साल 1964), ‘बहारों फूल बरसाओ’ (फिल्म ‘सूरज’, साल 1966), ‘दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’ (फ़िल्म ब्रह्मचारी, साल 1968) और ‘क्या हुआ तेरा वादा’ (फिल्म ‘हम किसी से कम नहीं’, साल 1977) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। वहीं ‘क्या हुआ तेरा वादा’ के लिए ही रफ़ी को पहली बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा। साल 1980 में अपनी मौत से ठीक दो दिन पहले फिल्म मो. रफी ने फिल्म ‘आस-पास’ के लिए आखिरी गाना रिकॉर्ड किया था। महज पचपन साल की उम्र में मो. रफी इस दुनिया से रुखसत हो गए। इस अजीम फनकार, की मौत पर उन्हें अपनी खिराजे अकीदत पेश करते हुए, संगीत के सिरमौर नौशाद ने क्या खूब कहा था, ‘‘कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया/साहिल पुकारता है, समंदर चला गया/लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई/दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया।’’

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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