ट्रंप-मस्क तकरार से अमेरिका में क्रोनी पूंजीवाद का चेहरा बेनक़ाब 

डोनाल्ड ट्रंप और एलन मस्क के बीच चल रही सार्वजनिक तकरार सिर्फ दो प्रभावशाली और अहंकारी व्यक्तित्वों की लड़ाई नहीं है। यह अमेरिका के भीतर गहराई तक जड़े क्रोनी कैपिटलिज़्म, यानी सत्ता और पूंजीपतियों की मिलीभगत की एक झलक है। यह एक ऐसी मकड़जाल है, जहां राजनीतिक ताक़त और आर्थिक प्रभाव आपस में सौदेबाज़ी करते हैं, और लोकतंत्र व आम जनता को हाशिये पर डाल दिया जाता है।

क्रोनी पूंजीवाद का मतलब मुक्त बाज़ार नहीं है। इसका मतलब है- सत्ता और लाभ का बंद दरवाज़ों के पीछे लेन-देन। अरब-खरब पति नेता को चंदा देते हैं और बदले में टैक्स में छूट, सरकारी अनुबंध या अनुकूल नीतियां पाते हैं। ट्रंप और मस्क दोनों इस खेल के सफल खिलाड़ी रहे हैं, और अब जब इनका टकराव सामने आया है, तो यह दिखाने लगा है कि इस खेल की नींव कितनी खोखली है।

ट्रंप: राजनीति का कारोबारी खिलाड़ी

डोनाल्ड ट्रंप “दलदल में सूखा डालने” का वादा करते हुए सत्ता में आए थे, लेकिन उनका कार्यकाल कॉरपोरेट लॉबिस्टों और अरबपतियों की नियुक्तियों से भरा रहा। उनकी टैक्स नीतियाँ ज़्यादातर बड़ी कंपनियों और अमीरों के हित में थीं। उन्होंने ‘अमेरिकन वर्कर’ की बात की, लेकिन असल में शेयर बाज़ार और कॉरपोरेट मुनाफे को प्राथमिकता दी।

ट्रंप की राजनीति हमेशा लेन-देन पर आधारित रही है। जो उनकी तारीफ करे, उसे ईनाम; जो विरोध करे, उसे अपमान या सज़ा। व्हाइट हाउस को उन्होंने एक ऐसी अदालत बना दिया है, जहां उद्योगपति दरबारियों की तरह आते-जाते रहते हैं।

मस्क: सब्सिडी के किंग

एलन मस्क ने ख़ुद को एक ‘स्वतंत्र सोच वाले इनोवेटर’ के रूप में पेश किया है, लेकिन हकीक़त यह है कि उनके लगभग सभी बड़े प्रोजेक्ट, चाहे Tesla हो, SpaceX हो या SolarCity, सबके सब भारी सरकारी सब्सिडी, टैक्स छूट और अनुबंधों पर टिके हैं। एक ओर वे सरकार से दूर रहने की बातें करते हैं, दूसरी ओर सरकारी सहायता के सबसे बड़े लाभार्थी हैं।

अब जब वे ट्विटर/X के ज़रिये राजनीतिक विमर्श को प्रभावित कर रहे हैं और दक्षिणपंथी विचारों के क़रीब दिखने लगे हैं, तब ट्रंप से उनका टकराव दिखाता है कि ये लड़ाई विचारधारा की नहीं, प्रभाव और नियंत्रण की है।

क्रोनी पूंजीवाद की झलक

इस टकराव ने कुछ कड़वे और ज़रूरी सचों को उजागर कर दिया है

योग्यता नहीं, पहुंच का महत्व

ट्रंप ने मस्क पर हमला करते हुए कहा कि वे सरकारी मदद के बिना “कुछ नहीं” होते — यह बात विडंबनापूर्ण ढंग से सही है, लेकिन ट्रंप खुद भी पैतृक धन और टैक्स चालाकियों के सहारे ऊपर आए हैं। दोनों का उदाहरण बताता है कि अमेरिका में “सफलता” अक्सर योग्यता नहीं, राजनीतिक और पारिवारिक पहुँच पर टिकी होती है।

मीडिया एक हथियार

ट्रंप और मस्क दोनों मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिये जनता का ध्यान भटकाने में माहिर हैं। उनकी लड़ाई एक नाटक है, जो ग़रीबी, असमानता, स्वास्थ्य, जलवायु संकट और एकाधिकार जैसे असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटा देती है।

लोकतंत्र की गिरावट

जब अरबपति नेता तय करने लगते हैं कि कौन चुनाव लड़ेगा, कौन मीडिया में छाया रहेगा, और कौन नियम बनाएगा, तब लोकतंत्र केवल नाम का रह जाता है।

जनता के लिए सबक

ट्रंप-मस्क की लड़ाई सिर्फ एक तमाशा नहीं है। यह एक गंभीर चेतावनी है कि अमेरिका में पूंजी और सत्ता के गठजोड़ ने लोकतंत्र की आत्मा को निगलना शुरू कर दिया है। जब अरबपति नेता बनते हैं और नेता अरबपतियों के इशारे पर चलते हैं, तब जनता सिर्फ दर्शक रह जाती है।

ऐसे में मौलिक प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका को लोग चला रहे हैं, या कुछ गिने-चुने शक्तिशाली लोग ? सचाई तो यही है कि यह लड़ाई ट्रंप और मस्क के बीच नहीं, जनता और सत्ता के गुप्त गठजोड़ के बीच है।

यह वक्त है कि अमेरिका और दुनिया के लोकतांत्रिक देश चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता, कॉरपोरेट नियंत्रण पर लगाम, और राजनीति एवं व्यापार के बीच स्पष्ट रेखा खींचने की मांग करें।

क्योंकि अंततः यह लड़ाई देश को बचाने की नहीं, देश पर नियंत्रण की लड़ाई है और दोनों खिलाड़ी अपने-अपने तरीक़े से जनसामान्य को प्रजा बनाकर लोकतन्त्र का “राजा” बनना चाहते हैं।

सवाल यह है कि क्या जनता अब भी यह तमाशा देखती रहेगी, या पर्दा गिरा देगी? यह सवाल केवल अमेरिका के लिए ही नहीं, भारत के संदर्भ में भी उतना ही अहम है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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