तीन दिन पहले दिल्ली में विपक्ष के 11 दलों के 18 प्रतिनिधि चुनाव आयोग से मिले। लेकिन जो बातें उन्हें 2 जुलाई की रात मुलाक़ात के बाद बताई थी, आज भी उसी को दोहरा रहे हैं। विपक्षी नेताओं के तेवरों को देखकर एकबारगी लग रहा था कि शायद संयुक्त विपक्ष बिहार से एक बड़े जन-आंदोलन की शुरुआत करेगा, लेकिन लगभग सभी दलों के हाव-भाव बता रहे हैं कि उन्हें फ़िलहाल इस मुद्दे पर स्वंय स्पष्ट होने की जरूरत है।
कांग्रेस की ओर से उनके प्रवक्ता, पवन खेड़ा जहां साफ़-साफ़ चुनाव आयोग को बीजेपी के केंद्रीय कार्यालय में जाकर बैठने की सलाह दे रहे हैं, तो वहीं साथ ही विपक्ष चुनाव आयोग के इस कदम को क़ानूनी चुनौती देने के विकल्पों को भी तलाश रही है।
जबकि बिहार के जमीनी हालात को इंडियन एक्सप्रेस और द वायर की रिपोर्ट बयां कर रही है, जिससे साफ़ नजर आ रहा है कि बिहार के गाँवों में जहां देखो आम लोगों के पास अपने नागरिक होने के सबूत के नाम पर आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड, राशनकार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस है। लेकिन ये सब तो चुनाव आयोग की निगाह में चलेगा नहीं, इसलिए 8 करोड़ में से आधे से अधिक लोगों का भविष्य अधर में लटक गया है।
मजे की बात यह है कि ये सारे तथ्य किसी भी पत्रकार या शोधकर्ता से कहीं अधिक इन राजनीतिक दलों को पता है, और वे लगातार इन बातों को दुहरा भी रहे हैं। अगर चुनाव आयोग इस सघन पुनरीक्षण की प्रक्रिया के स्थान पर सामान्य सर्वेक्षण भी कराता, तो भी जुलाई के इस बरसात के सीजन में उसके भी शत-प्रतिशत सफल होने की गारंटी नहीं ली जा सकती। करीब 2 करोड़ से अधिक बिहारी देश के कोने-कोने में रोजी-रोजगार के लिए गये हुए हैं, विशेषकर पंजाब-हरियाणा में बुआई के समय।
ऐसे में, सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक यह बात है कि जब विपक्ष ही नहीं बल्कि एनडीए के घटक दलों में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी, हम और उपेन्द्र कुशवाहा के समर्थक आधार की भी सांसें अटकीं हों, विपक्ष खुद को चुनाव आयोग और क़ानूनी उपायों में क्यों समेटना चाहता है?
लेकिन विपक्ष इस मुद्दे पर अपने दलों को एकजुट कर गाँव-गाँव में जाकर चुनाव आयोग और भाजपा की इस मुहिम का पर्दाफाश करने की पहल अभी तक क्यों नहीं कर रहा है? इंडियन एक्सप्रेस ने नालंदा और वैशाली जिलों के गावों का दौरा कर जो तस्वीर बयां की है वह वास्तव में बेहद भयावह है, और विपक्ष के दावों को पुष्ट करती है।
चुनाव आयोग ने वैध मतदाता सूची को तैयार करने के लिए इन 11 दस्तावेजों को प्रमाणिक माना है:
1. नियमित कर्मचारी या पेंशनभोगी कार्मिक का पहचान पत्र
2. पासपोर्ट
3. 1 जुलाई 1987 से पहले का बैंक, डाकघर, एलआईसी आदि द्वारा जारी कोई भी प्रमाण पत्र
4. सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र
5. मान्यता प्राप्त बोर्ड या विश्वविद्यालय द्वारा जारी शैक्षिक प्रमाण पत्र
6. स्थायी निवास प्रमाण पत्र
7. वन अधिकार प्रमाण पत्र
8. जाति प्रमाण पत्र
9. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी)
10. सरकार द्वारा आवंटित किसी भी भूमि या घर का प्रमाण पत्र
11. राज्य सरकार या स्थानीय प्राधिकरण द्वारा तैयार किया गया परिवार रजिस्टर।
लेकिन लगभग 80% लोगों के पास ये दस्तावेज नहीं हैं। देश में अभी तक नागरिक होने के लिए सबसे प्रामाणिक दस्तावेज कोई था, तो वह है आधार कार्ड, जिसे किसी भी सरकारी काम, बैंक खाता खुलवाने से लेकर हवाई यात्रा या होटल में चेक-इन तक के लिए अनिवार्य बना दिया गया है।
देश में अभी तक किसी भी सरकार ने जन्म प्रमाण पत्र या पासपोर्ट जैसे जरुरी दस्तावेजों के लिए एक भी अभियान नहीं चलाया है। ये दस्तावेज भी अब बड़े शहरों और महानगरों में एक जरूरत बनते जा रहे हैं, लेकिन अभी भी दिल्ली या मुंबई जैसे महानगर में भी ये दस्तावेज आधे से ज्यादा लोगों के पास नहीं हैं, फिर बिहार जैसे पिछड़े राज्य से चुनाव आयोग ने उम्मीद कैसे कर ली?
यहां तक कि एनआरसी तक को प्रमाण पत्र में शामिल किया गया है, जिसका एक प्रयोग सिर्फ असम में किया गया और वह भी बीजेपी ने ही रद्द कर दिया। क्या चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के पास भी एनआरसी के दस्तावेज हैं, जो बिहार के लोगों से मांग रहे हैं?
विपक्ष के तीखे आरोपों कि इस प्रकिया में चुनाव आयोग दो करोड़ से अधिक मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित करने जा रहा है, पर आज मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की ओर से एक बयान जारी कर कहा गया है कि बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण का काम पूरी तरह से पारदर्शी और समावेशी होने जा रहा है।
ज्ञानेश कुमार का कहना है कि बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का क्रियान्वयन सभी चुनाव कर्मचारियों और सभी राजनीतिक दलों की सक्रिय भागीदारी के साथ सबसे पारदर्शी तरीके से तय कार्यक्रम के अनुसार चल रहा है। कुछ लोगों की आशंकाओं के बावजूद, एसआईआर यह सुनिश्चित करेगा कि सभी पात्र व्यक्ति इसमें शामिल हों।
लेकिन बिहार के गाँवों में अधिकांश लोगों के पास ये प्रमाण पत्र नहीं हैं। बीएलओ अधिकारी साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि 25 जुलाई से पहले तक यदि ग्रामवासी जाति या रेजिडेंट प्रमाण पत्र पेश कर देते हैं, तो उन्हें वोटर लिस्ट में शामिल किया जा सकता है।
गाँव क्या शहर में भी लोग जानते हैं कि एक-एक दस्तावेज के लिए संबंधित अधिकारी एक-दो दिन क्या महीनों लगा देते हैं, और हर काम के एवज में उन्हें घूस चाहिए होती है। फिर दो करोड़ प्रवासी बिहारियों के लिए तो यह किसी बड़ी आफत से कम नहीं है। खुद को देश का नागरिक साबित करने के लिए उसे नौकरी और काम-धंधा छोड़ अगले एक महीने तक बिहार में आकर सरकारी बाबुओं के चक्कर काटने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका परिणाम भी अनिश्चित है।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता, तेजस्वी यादव जरुर बेहद तल्ख लहजे में बातें रख रहे हैं, लेकिन लगता है उनके पास भी अभी आगे का खाका स्पष्ट नहीं है। हैरत की बात यह है कि कांग्रेस नेता, राहुल गांधी ने अभी तक इस बारे में अपना मुहं नहीं खोला है। वे अभी भी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हुई धांधली को मुद्दा बनाये हुए हैं। यह सही है कि कांग्रेस के प्रोफेशनल सेल के प्रमुख, प्रवीण चक्रवर्ती ने महाराष्ट्र चुनावों में 40 लाख फर्जी मतदाताओं के बारे में पता लगाकर बीजेपी और चुनाव आयोग की धांधली को उजागर करने में बड़ी भूमिका अदा की।
लेकिन फिलहाल लड़ाई का मोर्चा बिहार है। यदि इसी प्रकार राहुल गांधी ने महाराष्ट्र की धांधली को तरजीह दी, तो अभी से कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव के तीन-चार माह बाद जाकर यदि वे बिहार चुनाव के नतीजों को अन्यायपूर्ण बताते नजर आयेंगे तो किसी को हैरान नहीं होना चाहिए।
बिहार में एकमात्र पूर्णिया से सांसद पप्पू यादव ने ही चुनाव आयोग की इस पूरी कवायद को एक साजिश करार देते हुए, इस पूरे अभियान के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है। पप्पू यादव ने साफ़ शब्दों में विपक्ष की हीला-हवाली को आड़े हाथों लेते हुए बिहार की ग्रामीण जनता से अपील की है कि वे हर गाँव में बूथ स्तर के अधिकारी (बीएलओ) को घुसने न दें। यदि इस सबके बावजूद चुनाव आयोग और एनडीए गठबंधन विधानसभा चुनाव पर अड़े रहते हैं, तो विपक्ष को चुनाव बहिष्कार तक से पीछे नहीं हटना चाहिए।
बता दें कि बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियों के बीच ईडी ने लैंड फ़ॉर जॉब मामले में जो पूरक चार्जशीट अदालत में दाखिल की थी, उस पर 9 जुलाई को दिल्ली में सुनवाई होनी है। इसी प्रकार, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी के खिलाफ भी नेशनल हेराल्ड मामले को सुर्ख़ियों में लाया जा रहा है।
बड़ा सवाल यह है, कि क्या विपक्ष अभी भी ऐसे दबावों के आगे बिहार की आधी से अधिक आबादी को उसकी पहचान मिटा देने की मुहिम के आगे झुक जाने वाला है? इस एक स्ट्रोक से बिहार ही नहीं पूरे देश की तस्वीर पूरी तरह से बदल सकती है, जिसकी कल्पना देश की आजादी के समय कभी ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने की थी।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)