कैसी विडम्बना है, हमारे लोकतंत्र का ‘तंत्र’ अब ‘लोक’ से डरने लगा है! अगर ऐसा न होता तो निर्वाचन आयोग जैसा संवैधानिक निकाय स्वयं अपनी तरफ से जारी ‘मतदाता पहचान पत्र’ या सरकार द्वारा जारी ‘आधार’ कार्ड को पहचान का आधार मानने से क्यों इंकार करता? बैंक से लेकर एयरपोर्ट तक ‘आधार कार्ड’ को आज भी पहचान का वैध आधार माना जा रहा है लेकिन वोट डालने के लिए यानी मतदाता बनने के लिए ‘आधार’ या ‘चुनाव आयोग के मतदाता पहचान पत्र’ को आधार मानने से हमारे चुनाव आयोग ने साफ इंकार कर दिया है!
एक तरह से निर्वाचन आयोग ने अपने को भी इंकार किया है। उसने गहन छानबीन के बाद देश के करोड़ों मतदाताओं को ‘मतदाता पहचान पत्र’ जारी किया लेकिन अब उसे वैध दस्तावेज मानने से इंकार कर दिया। आयोग के इस बेहद संदिग्ध कदम को सत्ता-पक्ष का समर्थन प्राप्त है! विपक्षी दल तो यहां तक कह रहे हैं कि सत्ता-पक्ष के इशारे पर ही बिहार में बिल्कुल नयी मतदाता सूची जारी कराने का फैसला हुआ है। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक छंटने वाले मतदाता गरीब, अशिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित या हाईस्कूल से भी कम पढ़े लोग होंगे।
निर्वाचन आयोग ने मतदाता बनने के लिए अब पासपोर्ट, बर्थ सर्टिफिकेट या जाति प्रमाणपत्र सहित कुल 11 दस्तावेजों को सबसे जरूरी और विश्वसनीय घोषित किया है। एक भरोसेमंद आकलन के मुताबिक बिहार में पासपोर्ट-धारी लोगों की संख्या तकरीबन 2.4% बताई गयी है। बर्थ सर्टिफिकेट रखने वालों की संख्या भी 3% से ज्यादा नहीं है।
बिहार सरकार द्बारा 2023 में जारी जातिवार जनसंख्या सर्वेक्षण में कक्षा 9 से 10 तक पढ़े लोगों की संख्या 14.71% बताई गयी है। इनमें कितनों के पास हाईस्कूल सर्टिफिकेट होगा, यह बताना मुश्किल है। क्या विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान शुरू करने से पहले निर्वाचन आयोग को बिहार की आबादी के बारे में इन तथ्यों की जानकारी नहीं थी?
दूसरी बात कि निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अभी पांच महीने पहले ही बिहार की मतदाता सूची की गहन छानबीन कराई थी। फिर ‘स्पेशल इंटेसिव रिवीजन ऑफ इलेक्टोरल राॅल’ नाम से इस नये अभियान की जरूरत क्यों पड़ गई? किस आधार पर ऐसे अभियान को शुरू करने का फैसला किया गया, जिसमें बिहार के करोड़ों जेनुइन मतदाता भी वोटर-लिस्ट से बाहर होने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे?
सबसे बड़ा आश्चर्य ये कि निर्वाचन आयोग ने अपनी तरफ से और केंद्र सरकार की तरफ से जारी दो-दो पहचान पत्रों-‘चुनाव आयोग पहचान पत्र’ और ‘आधार कार्ड’ को भी अविश्वसनीय करार दे दिया। अब तक यही तंत्र ‘आधार हमारी पहचान’ के जुमले को विज्ञापित करता रहा है। पर बिहार में चुनाव से पहले सब बदल गया!
बिहार चुनाव से महज चार महीने पहले चुनाव आयोग ने ‘विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण अभियान’ के नाम पर करोड़ों मतदाताओं को मतदाता मानने के लिए जिन नयी नयी शर्तों को जारी किया है, वैसी शर्ते सन् 1952 से 2024 तक कभी नहीं थीं! सवाल उठना स्वाभाविक है; 2025 में ऐसा क्या घटित हो गया?
2003 के बाद से ही जो हर चुनाव में वोट देते आ रहे वैध मतदाता हैं, वे अब चुनाव आयोग की नजर में मतदाता नहीं हैं! 25 जुलाई तक अगर ये अपना पासपोर्ट, बर्थ सर्टिफिकेट, हाई स्कूल का सर्टिफिकेट, गृह आवंटन के लाभार्थी का दस्तावेज या जाति प्रमाणपत्र और अपने मां-पिता का बर्थ सर्टिफिकेट नहीं जमा कराते तो उन्हें मतदाता नहीं माना जायेगा! उनके नाम मतदाता सूची से अपने आप बाहर हो जायेंगे।
चूंकि यह सारा अभियान जुलाई जैसे बरसात और बाढ़ के महीने में पूरा होना है, इसलिए गांव और कस्बों में रहने वाले करोड़ों गरीब लोग इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे। शुक्रवार को इस बारे में मैं बिहार के एक पूर्व उच्चाधिकारी से इस बाबत बातचीत कर रहा था। उन्होंने स्वीकार किया कि बरसात और बाढ़ से बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। उसमें भी सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं गरीब लोग। इस महीने में उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी, अपनी और अपने बाल-बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करना। ऐसे में वे मतदाता बनने या अपने पुराने मतदाता के स्टेटस को बरकरार रखने के लिए वे कागजात बनवाने के लिए भला कहां-कहां जायेंगे?
कैसी विडम्बना है, अपने ‘राजनीतिक आकाओं’ या नियोक्ताओं का आभार प्रकट करने के लिए निर्वाचन आयोग के बड़े अफसरानों ने ये अटपटे नियम तो बना दिये लेकिन बरसात-बाढ़ से बेहाल बिहार के करोड़ों गरीबों के बारे में तनिक सोचा तक नहीं कि वे अपने जेनुइन मताधिकार की रक्षा कैसे करेंगे! निस्संदेह, निर्वाचन आयोग अपने ऐसे अटपटे नियमों से बिहार के करोड़ों गरीबों के मताधिकार को छीनता नजर आ रहा है।
इस मामले में निर्वाचन आयोग का यह नया अभियान पहले के मतदाता सूची अभियानों से बिल्कुल भिन्न है। पहले सूचियों में गहन पुनरीक्षण के आधार पर संशोधन होता रहा है, यानी मतदाताओं की सूची में जोड़-घटाव! मतदाता बनने की उम्र प्राप्त कर लेने वाले युवाओं के नाम मतदाता सूची में जोड़े जाते रहे हैं और मृत व्यक्तियों या स्थान बदलकर अन्यत्र रहने वालों के नाम काटे जाते रहे हैं। यह हर पुनरीक्षण की नार्मल प्रैक्टिस रही है। लेकिन इस बार के बिहार मतदाता विशेष और गहन पुनरीक्षण में ऐसा नहीं हो रहा है। तकरीबन 8 करोड़ की बिहार की पूरी मतदाता सूची को एक तरह से निरस्त या रद्द कर दिया गया है और उसकी जगह बिल्कुल नयी सूची तैयार हो रही है।
महज एक महीने में प्रस्तावित सूची के लिए नाम लिये जायेंगे और फिर सितम्बर तक इन्हें नयी पुनरीक्षित मतदाता सूची के तौर पर जारी कर दिया जायेगा। पुनर्विचार के बाद चुनाव आयोग ने सिर्फ एक बदलाव किया है। 2003 तक जो मतदाता रहे हैं, उन्हें नये सिरे से प्रमाणपत्र आदि अब नहीं देना होगा। जो लोग 2003 के बाद मतदाता बने; उन्हें सारे जरूरी कागज़ात पेश करने होंगे, तभी वे मतदाता बन पायेंगे। अन्यथा, उनके नाम मतदाता सूची में नहीं दिखेंगे।
भारतीय गणतंत्र बनने के बाद से लेकर अब तक भारत का यह पहला चुनाव होगा, जिसमें निर्वाचन आयोग 18 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को वोटर बनाकर ज्यादा से ज्यादा संख्या में वोट देने की अपील जारी करने की जगह बड़े पैमाने पर वैध मतदाताओं की संख्या कम करने के अभियान में जुटा हुआ है।
इस नये अभियान के तहत बिहार में आयोग द्वारा तैनात बीएलओ यानी ब्लॉक लैवेल ऑफिसर गांव-देहात में जाने लगे हैं। मतदाता बनने के लिए वे लोगों को जो फॉर्म बांट रहे हैं; उसमें फॉर्म रिसीव करने के बाद मतदाता बनने के प्रार्थी को मिलने वाली रसीद या पावती का कोई प्रावधान ही नहीं है! फिर मतदाता बनने की कोशिश करने वाले को कैसे पता चलेगा कि उसका फॉर्म जमा हुआ या नहीं?
आखिर मतदाताओं से किसको डर है? निर्वाचन आयोग को भला किस बात का डर होगा! उसे तो चुनाव लड़ना नहीं! फिर डर किसको है? जिसे डर है, वह आयोग के पीछे छुपकर अपना काम कर और करा रहा है। अगर आयोग द्वारा जारी मतदाता बनने के लिए जरूरी दस्तावेजों-पासपोर्ट, बर्थ सर्टिफिकेट, हाई स्कूल के सर्टिफिकेट आदि की सूची पर नजर डालें तो पता चल जायेगा कि ‘डरने वाला’ किस तरह के मतदाताओं से डर रहा है! क्या हमारे तंत्र-संचालक मतदाता-सूची में अपनी पसंद के मतदाताओं की संख्या बढ़ाना और अपनी नापसंद के मतदाताओं की संख्या घटाना चाहते हैं?
बिहार जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े राज्य में गरीबों के पास ऐसे दस्तावेज आमतौर पर नहीं होते! यह विशेष अभियान ऐसे ही लोगों को मतदाता सूची से बाहर करने के लिए शुरू किया गया लगता है। दरअसल, यह संविधान से मिले मताधिकार को छीनने की घोर “असंवैधानिक योजना” है। अगर यह कामयाब हो गयी तो यही “योजना” बिहार के बाद समूचे देश में लागू होगी! इस तरह एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था की आड़ लेकर संविधान के एक महानतम प्रावधान: ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ के सिद्धांत को मटियामेट किया जायेगा!
सवाल है, क्या हमारी अन्य संवैधानिक संस्थाएं और देश के करोड़ों लोग इस अनर्थ को यूं ही घटित होता देखते रहेंगे? क्या ‘एक खास तंत्र’ करोड़ों गरीब मतदाताओं को लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया से बाहर करने के कुचक्र में सचमुच कामयाब हो जायेगा?
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)