Saturday, April 20, 2024

घना होता अंधेरा, मध्यवर्ग का चरित्र और मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ 

                                       (पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।)
पूँजी ने आज पूरे विश्व को अपने चंगुल में ले लिया है। लोभ-लालच की संस्कृति को विश्वव्यापी संस्कृति बनाने की कोशिश जोर-शोर से हो रही है और काफी हद तक यह विश्वव्यापी संस्कृति बन चुकी है। बौद्धिक वर्ग का अधिकांश हिस्सा पूँजी का क्रीतदास बनता जा रहा है। वह अपने दानवी स्वार्थों को बेलगाम पूरा करने की होड़ में फंसता जा रहा है। मार्क्स ने 1844 की पाण्डुलिपियों एवं अन्य रचनाओं में यह स्पष्ट तौर पर कहा था कि निर्जीव वस्तु अर्थात् पूँजी यदि सजीवों अर्थात् मनुष्य को संचालित करेगी, तो उन्हें हृदयहीन बना देगी। हृदयहीनता का तेजी से विस्तार हो रहा है। हृदयहीनता या आत्महीनता का अँधेरा फैलता जा रहा है।

अब तो हमारे देश में इस हृदयहीन पूँजी का गठजोड़ पतनशील हिन्दू संस्कृति से भी हो गया है। इन दोनों पतनशील अमानवीय संस्कृतियों के प्रतिनिधि सत्ता में आ चुके हैं वे देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन के रन्ध्र-रन्ध्र में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिल चुकी है। स्वतन्त्रता आन्दोलन से पैदा हुई सारी ऊष्मा एवं मूल्य इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जा चुके हैं या फेकने की तैयारी हो रही है। अँधेरा घना होता जा रहा है। मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ इस अँधेरे के कारणों तथा इस अँधेरे से मुक्ति पाने के रास्तों को अपना कथ्य बनाती है।

‘गोदान’ एवं ‘अँधेरे में’ आधुनिक हिन्दी साहित्य की दो सबसे महान रचनात्मक उपलब्धियाँ हैं। ये दोनों रचनायें विश्व साहित्य की उस विरासत की चमकती मणियाँ हैं जिनका जन्म 1917 की रूसी क्रान्ति तथा उसके बाद की क्रान्तियों, क्रान्तिकारी संघर्षों के सिलसिलों, देशों एवं राष्ट्रीयताओं के मुक्ति-संघर्षों तथा उनकी विजयों के दौर में यह हुआ था। इस परिघटना ने यह उम्मीद पैदा कर दी थी कि बीसवीं सदी एक ऐसी सदी साबित होने जा रही है, जिसमें पूरी मनुष्य जाति हर प्रकार के शोषण-उत्पीड़न से मुक्त हो जायेगी। ‘गोदान’ एवं ‘अँधेरे में’ जैसी रचनायें इसी उम्मीद व सपनों से पैदा होती हैं, इसी उम्मीद के टूटने की कहानी कहती हैं तथा उन शक्तियों की पहचान कराती हैं, जो भविष्य में इन उम्मीदों-सपनों को उनकी चरितार्थता अर्थात् उनकी परिणति तक पहुंचा सकती हैं।

कोई कृति किस हद तक महान एवं अमर कृति होगी, यह चीज इस पर निर्भर होती है कि उस रचना ने अपने समय के नाभिकीय प्रश्न को किस हद तक छुआ है तथा इस प्रश्न एवं चुनौती के प्रति बौद्धिक एवं भावात्मक स्तर पर या व्यवहारिक स्तर पर कैसी प्रतिक्रिया प्रकट की है। हाँ, यह सच है कि महान प्रश्न उठाने मात्र से कोई कृति महान नहीं हो जाती, क्योंकि महान प्रश्न को पकड़ने की क्षमता साहित्यिक महानता का एक पहलू है। दूसरा पहलू है उस प्रश्न को एक कलात्मक रूप प्रदान करने की सृजन शक्ति। ‘गोदान’ एवं ‘अंधेरे में’ इन दोनों पहलुओं को अपने में समावेशित करती हैं, इसी के चलते ये दोनों कृतियां विश्व की महान कृतियों में शामिल हैं।

अब सवाल यह उठता है कि भारतीय जीवन का कौन-सा नाभिकीय प्रश्न है जिसे ‘अँधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध ने उठाया है जो प्रश्न आज भी भारतीय जीवन का सबसे केन्द्रीय प्रश्न है तथा उस प्रश्न के समाधान के सामने कौन-सी चुनौतियाँ तथा बाधायें हैं और कौन-सी शक्तियां हैं जो इन चुनौतियों का सामना कर सकती हैं, बाधाओं को दूर कर सकती हैं, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि चुनौतियां स्वीकार करने वालों के सामने खतरे क्या हैं और इसके परिणाम क्या होंगे? 1936 में जब कमोबेश यह निश्चित हो गया था कि देर-सबेर देश को आजादी मिलने वाली है, तो उस समय ‘गोदान’ में प्रेमचन्द ने यह प्रश्न उठाया था कि आजादी के बाद होरी, सिलिया, धनिया, गोबर जैसे लोगों का भविष्य क्या होगा और उत्तर देते हुए यह कहा था कि देश की स्वतन्त्रता का जो संघर्ष चल रहा है उसमें होरी जैसों की नियति नहीं

बदलने वाली है। ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि वे कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसान से कमरतोड़ मेहनत करने वाले मजदूर हो जायेंगे क्योंकि गांवों में उनका शोषण-उत्पीड़न करने वाले पं. दातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी लाल तथा सहुआईन के गठजोड़ का नाभिनाल सम्बन्ध नये शासक बनने वाले मिल मालिक खन्ना, भूस्वामी-जमींदार राय साहब, पत्रकार पंडित ओंकारनाथ शुक्ल तथा मेहता, मालती जैसे बुद्धिजीवियों से है।

नाभिनालबद्ध यह गठजोड़ देश का नया शासक बनने वाला  है, मालिक बनने वाला है। यह गठजोड़ आम मेहनतकश जनता (होरी-गोबर) का खून ही चूसेगा। ‘गोदान’ में प्रेमचन्द जिस गठजोड़ को देश के सम्भावित मालिक-शासक के रूप में देख रहे हैं। आजादी के बाद यही सम्भावना वास्तविकता का रूप ले लेती है।
आजादी के बाद जिस गठजोड़ के हाथ में सत्ता आयी, जो देश की सम्पदा का मालिक बना, उसे ‘अँधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध ‘रक्तपायी वर्ग’ के रूप में संबोधित करते हैं।

मुक्तिबोध अच्छी तरह जानते हैं कि इस ‘रक्तपायी  वर्ग’ को समाप्त करने की शक्ति केवल जनता में है-‘‘मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण/गुण हैं,/जनता के गुणों से ही सम्भव/भावी का उद्भव’’ ‘अँधेरे में’ कविता का चौथा खण्ड इसी जनक्रान्ति पर केन्द्रित है। मुक्तिबोध को स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि समाज में दो शक्तियाँ हैं। एक है- उत्थानशील शक्तियां, जो क्रान्तियों को अंजाम देंगी, मुक्तिबोध के सपनों के समाज का निर्माण करेंगी, जिसमें सभी मानव ‘सुखी, सुन्दर व शोषण मुक्त होंगे। इन उत्थानशील अर्थात् इतिहास को आगे ले जाने वाली शक्तियों के बरक्स इतिहास को पीछे ले जाने वाली या यथास्थिति कायम रखने वाली शक्तियां या वर्ग हैं, जिन्हें मुक्तिबोध ने ‘रक्तपायी वर्ग’ का नाम दिया है।

इन दोनों शक्तियों में कौन विजयी होगा और कौन पराजित, कौन-सी शक्तियां पीछे हटेंगी, कौन-सी शक्तियां आगे बढ़ेंगी, अँधेरे का राज होगा या अँधेरा हटेगा और उजाला चारों तरफ फैलेगा। यह काफी हद तक मध्यवर्ग पर निर्भर करता है, तीसरी दुनिया के भारत जैसे देशों में खासतौर पर। ‘अँधेरे में’ कविता इसी मध्यवर्ग की शक्ति एवं कमजोरियों को अपना केन्द्रीय कथ्य बनाती है। इसकी शक्ति एवं कमजोरियां जन क्रान्ति के सन्दर्भ में निर्णायक महत्व रखती हैं। मानवता का भविष्य कैसा होगा, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि यह वर्ग शोषक-उत्पीड़क आततायी ‘रक्तपायी वर्ग’ से रिश्ता बनाता है या ‘भावी के उद्गम स्रोतों’ जनता से अपना रिश्ता कायम करता है।

मध्यवर्ग की इस ऐतिहासिक निर्णायक भूमिका का कारण यह है कि जनता अपनी भौतिक स्थितियों एवं अपनी वर्गीय स्थितियों के चलते क्रान्ति की सभी सम्भावनाओं को अपने में समाहित किये होती है, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि अर्थात् मार्क्सवादी विचारधारा एवं वर्गीय चेतना से लैस हुए बिना वह अपनी सम्भावनाओं को परिणति तक अर्थात् जनक्रान्ति सम्पन्न करने तक नहीं पहुंचा सकती है। जनता को वर्गीय एवं विचारधारात्मक चेतना से लैस करने का काम मध्यवर्ग ही कर सकता है, क्योंकि मध्यवर्ग ही इस स्थिति में होता है कि वह ऐतिहासिक प्रक्रिया में विकसित वैज्ञानिक विचारधारा को आत्मसात कर सके तथा उसे व्यापक जनता के अगुवा तत्वों तक पहुंचा सके।

लेकिन त्रासदी या विडम्बना यह है कि मध्यवर्ग की अपनी कोई ठोस वर्गीय स्थिति नहीं होती है क्योंकि इसके भौतिक आधार तथा उसके वर्गीय हित, दोनों उसकी ठोस वर्गीय स्थिति नहीं बनने देते। इसके परिणामस्वरूप उसके भीतर ‘रक्तपायी’ शोषक-उत्पीड़क वर्ग तथा व्यापक मेहनतकश वर्ग, दोनों की भावनाएं, संवेदनाएं, संस्कार एवं विचार मौजूद होते हैं, एक तरफ वह रक्तपायी वर्ग में शामिल होने को आतुर रहता है दूसरी तरफ उसके भीतर व्यापक जन के प्रति भी लगाव एवं प्यार भी होता है। उसकी भौतिक स्थिति भी उसे निम्न वर्ग की ओर ठेलती है। उसका व्यक्तित्व दो हिस्सों में विभाजित होता है- ‘‘व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ।’’ उसकी आत्मा दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है, उसके भीतर आत्मसंघर्ष शुरू हो जाता है। समाज में चल रहा वर्ग-संघर्ष ही उसके भीतर आत्मसंघर्ष के रूप में सामने आता है।

इस आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया में मध्यवर्ग का एक हिस्सा जन के प्रति समर्पित अपने मन, संवेदना, चेतना, हृदय की धड़कन को पूर्णतया त्याग देता है और रक्तपायी वर्ग का क्रीतदास बन जाता है- ‘‘बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास /किराये के विचारों का उद्भास। ’’इसी वर्ग को मुक्तिबोध ने शोषकों-उत्पीड़कों  से नाभिनाल-बद्ध कहा है- ‘रक्तपायी  वर्ग से नाभिनाल बद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा जालों में उलझे/प्रश्न की उथली सी पहचान/राह से अनजान/वाक् रूदन्ती।’’ यही वे लोग हैं, जो जनता तथा जनक्रान्ति के खिलाफ षड्यन्त्र में शामिल होते हैं, जनक्रान्ति को कुचलने के लिए मार्शल लॉ का समर्थन करते हैं।

क्रान्तिकारी संघर्षों में तटस्थता का ढोंग करते हैं, अन्याय के खिलाफ चुप्पी साध लेते हैं। इन्हें ही मुक्तिबोध ने मृतात्मा कहा है। इन मृतात्माओं में शामिल हैं- ‘‘कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल//भई वाह!/उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक/जगमगाते कविगण/मन्त्री जी, उद्योगपति और विद्वान/यहां तक कि शहर का हत्यारा/कुख्यात/डोमाजी उस्ताद। इन सभी की आत्माएं मर चुकी हैं। (मुक्तिबोध के लिए आत्मा मनुष्यता की विरासत के मानवी तत्वों का सान्द्र रूप है।) इनकी इंसानियत मर चुकी है। इसी वजह से कवि ने कहा- ‘‘यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की ’’ ये वे लोग हैं जो इंसानियत, सच्चाई, ईमानदारी, संवेदना तथा सौन्दर्य की बातें करते हैं। लेख लिखते हैं, जनहितैषी होने का दावा करते हैं, लेकिन वास्तव में ये मरे हुए लोग हैं जो सत्ता की चाटुकारी करते हैं, उसके क्रीतदास हैं।

मध्यवर्ग के इन बुद्धिजीवियों के जिस घृणास्पद चरित्र को मुक्तिबोध साठ के दशक में देख रहे थे, वह अब अपने पतन की पराकाष्ठा पर पहुंच गया है, 1990-91 के बाद ही यह वर्ग विदेशी रक्तपायी वर्ग के भी चरणों में लोटने लगा, पूरी तरह देशी-विदेशी मुनाफाखोरों का क्रीतदास बन गया है रात-दिन अखबारों-चैनलों पर उनका गुणगान करता है। अपने पैशाचिक क्षुद्र स्वार्थों के लिए देश एवं जन से इसने मुंह मोड़ लिया है। 2020 में यह मध्य वर्ग यह हिस्सा अपनी पतन की पराकाष्ठा पर पहुंच गया है।

ये वे लोग हैं जिन्होंने- ‘‘लोकहित-पिता को घर से निकाल दिया/जन-मन करूणा-सी मां को हकाल किया/स्वार्थों के टोरियर कुत्तों को पाल लिया/भावना के कर्तव्य-त्याग दिये/हृदय के मन्तव्य-मार डाले!/बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया/तर्कों के हाथ उखाड़ दिये/जम गये, जाम हुए, फंस गये/अपने ही कीचड़ में धंस गये!!/विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में /आदर्श खा गये।/ये सब करके ये लोग मृतात्मा बन गये। ’’मध्यवर्ग का एक हिस्सा मृतात्मा बनकर रक्तापायी वर्ग से जा मिला है। लेकिन मध्यवर्ग का एक अन्य हिस्सा है, जिसकी अन्तरात्मा अभी जिन्दा है उसके भीतर आत्मसंघर्ष चल रहा है।

इस आत्मसंघर्ष में उसकी आत्मा दो हिस्सों में बंटी हुई है। उसकी आत्मा के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व ‘अंधेरे में’ कविता का काव्य नायक ‘मैं’ करता है और दूसरा हिस्सा ‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’ है। जिस दिन, जिस समय ‘मैं’ पूरी तरह ‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’ को प्राप्त कर लेता है, उस समय मध्यवर्गीय व्यक्ति निर्णायक एवं क्रियात्मक रूप में जन के साथ खड़ा हो जाता है। वह जन में शामिल होकर जनक्रान्तियों का हिस्सा बन जाता है। इस पूरी प्रक्रिया को मुक्तिबोध ने व्यक्त्विान्तर कहा है।

किनका व्यक्तित्वान्तर होता है, इस सन्दर्भ में मुक्तिबोध कहते हैं-‘‘वेदना-नदियाँ/जिनमें कि डूबे हैं, युगानुयुग से/पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी /विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन;/डूबा है जिसमें श्रमिक का सन्ताप।/मांओं के आंसू।/वह जल पीकर,/मेरे युवकों में व्यक्तित्वान्तर।’’ यही व्यक्तित्वान्तरित लोग आपस में सहचर बनते हैं तथा जनसमूह का नेतृत्व करते हैं, उसमें शामिल हो जाते हैं। दोनों के बीच का वर्ग विरोध मिट जाता है। हम देखते हैं कि ‘अँधेरे में’ कविता में मध्यवर्ग के आत्मसंघर्ष की दो परिणतियां हैं।

पहली तो यह कि वह अपने सारे मानवीय मन्तव्यों को मार कर रक्तपायी वर्ग का क्रीतदास बन जाता है, दूसरी यह कि उसका आत्मसंघर्ष तेज होता है और अन्ततोगत्वा मध्यवर्ग के कुछ लोग-विशेषकर निम्न मध्यवर्ग के लोग अपने अमानवीय मन्तव्यों पर विजय पाते हैं। पैशाचिक स्वार्थों पर विजय पाते हैं। उनकी संवेदना, ज्ञान एवं विवेक की जीत होती है और वे व्यक्तित्वान्तरित होकर जनता के हो जाते हैं। रक्तपायी वर्ग के खिलाफ खडे़ हो जाते हैं। पहली

परिणति वास्तविकता में बदली और आज चरमोत्कर्ष पर है, परन्तु दूसरी परिणति सीमित पैमाने पर चरितार्थ हो रही है। जो व्यक्तित्व अपना ही अपने से खोया हुआ है, उसे पाने अर्थात् रक्तालोक स्नात-पुरुष को प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है। यह प्रक्रिया केवल व्यक्ति के निजी प्रयासों पर ही निर्भर नहीं करती है। यह दोहरी प्रक्रिया है, जिसका एक पहलू यह है कि व्यक्ति को आत्मचेतस्  होना होता है अर्थात् अपने भीतर छिपे मानवीय तत्वों की पहचान करनी होती है, उन्हें जाग्रत करना होता है, उन्हें क्रियाशील बनाना होता है। ‘अँधेरे में’ कविता के पहले भाग में काव्य नायक ‘मैं’ को अपने भीतर का मनुष्य ‘मनु’ के रूप में दिखाई देता है, लेकिन वह उसे पहचान नहीं पाता, फिर आत्म-संघर्ष तेज होता है। वह रक्तालोक-स्नात पुरुष सामने आता है।

यह काव्य नायक ‘मैं’ का खोया हुआ व्यक्तित्व है, उसका आदर्श है। उसके  भीतर  मानवीय तत्वों की ‘‘पूर्ण अभिव्यक्ति’’ है वह उसके ‘‘आत्मा की वास्तविक प्रतिमा है।’’ – ‘‘वह रहस्यमय व्यक्ति/अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है/ पूर्ण अवस्था वह/निज सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की/मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव/हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह/आत्मा की प्रतिमा।’’ काव्य नायक ‘‘मैं’’ अपने खोये हुए व्यक्तित्व को पहचान तो जाता है लेकिन उसे पाने की प्रक्रिया बहुत कठिन, चुनौतीपूर्ण एवं संकटों में डालने वाली है। वह उससे बचना चाहता है, छिपना चाहता है लेकिन वह है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता- ‘‘अवसर-अनवसर/प्रकट जो होता ही रहता/मेरी सुविधाओं का तनिक न खयाल कर। ’’ आत्मचेतस् मध्यवर्गीय व्यक्ति (काव्य नायक ‘मैं’) अपने खोये हुए व्यक्तित्व को पाना चाहता है।

पाने की शर्त है कि अपनी कमजोरियों से पीछा छुड़ाये तथा चुनौतियों को स्वीकार करे, लेकिन मध्यवर्ग के चरित्र में तो ढुलमुलपना होता है- (यह भी तो सही है कि/कमजोरियों से ही मोह है मुझको)/इसीलिए टालता हूं, उस मेरे प्रिय को/कतराता रहता/डरता हूं उससे।’ कतराने-डरने का कारण यह है कि वह चुनौती देता है, कहता है कि- ‘‘पार करो पर्वत-सन्धि के गह्वर/रस्सी के पुल चलकर/दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही/पहुंचो।’’ जबकि काव्य नायक कहता है कि ‘‘मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से।’’ जिन चुनौतियों, संघर्षों के रास्ते पर आगे बढ़ना है। दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए, मध्यवर्ग के आत्मचेतस् व्यक्ति भी उससे डरते हैं। वे यह तो चाहते हैं कि दुनिया शोषण-उत्पीड़न मुक्त हो जाये, सभी-सुखी तथा सुन्दर हो जायें, लेकिन वे चुनौतियां स्वीकार करने से डरते हैं और छोटे-छोटे स्वार्थों को त्यागना नहीं चाहते- ‘‘जगत समीक्षा/की हुई उसकी/(सह नहीं सकता)/विवेक-विक्षोभ महान् उसका/तम अन्तराल में (सह नहीं सकता)/अंधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा/सह नहीं सकता!’’ लेकिन इस सब के बावजूद वह उसे छोड़ भी नहीं पाता है- ‘‘नहीं, नहीं, उसको मैं छोड़ नहीं सकूंगा।/सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही।’’

आत्मचेतस् मध्यवर्गीय व्यक्ति का यह संकल्प कि – ‘रक्तालोक स्नात्-पुरुष’ जो उसकी खोयी हुई अभिव्यक्ति है उसे वह छोड़ नहीं सकता है। यह सोचते ही उसके अन्दर नयी ऊर्जा, नयी ताकत आ जाती है और उसके अन्दर की सत्-चित् वेदना जल उठती है-‘‘आत्मा, में भीषण/सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी। ’’सत्-चित-वेदना लेकर वह रक्तालोक स्नात्-पुरुष की खोज करने, शोध करने को निकल पड़ता है।

आगे मुक्तिबोध इस बात को रेखांकित करते हैं कि अपने मानवीय व्यक्तित्व (खोये हुए व्यक्तित्व) को पाने के लिए आम जन में जाना होगा, क्योंकि मानवीय व्यक्तित्व उन्हीं के बीच चला गया है। ‘‘वह चला गया है/वह नहीं आयेगा, आयेगा ही नहीं/अब तेरे द्वार पर।/वह निकल गया है गांव में शहर में।’’ यहाँ मुक्तिबोध इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि इतिहास का सारा मानवीय तत्व युग की उत्थानशील या प्रगतिशील शक्तियों में निहित होता है। अगर उसे पाना है तो उनके बीच ही जाना पड़ेगा। ‘‘रक्तपायी वर्ग’’ मानवीय सारतत्व रहित होता है।

मुक्तिबोध को यह स्पष्ट है कि मानवता की थाती आज मेहनतकश वर्गों के पास है, जन के पास है, उनके पास ही अपनी मानवीयता के पूर्ण विकास के लिए जाना पड़ेगा। जन के साथ होते ही आततायी सत्ता वर्ग उसके खिलाफ हो जायेगा। इसलिए उसे दोहरे स्तर पर संघर्ष करना पड़ेगा, एक तो अपने भीतर का आत्मसंघर्ष तथा दूसरी तरफ सत्ता के साथ संघर्ष। इसी प्रक्रिया में व्यक्तित्वान्तरण होता है। बाहरी-भीतरी संघर्षों का आपस में गहरा रिश्ता है-‘‘चक्र से चक्र लगा हुआ है……/जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं, घटनाओं का/ बाहरी दुनिया में/उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में/ चलता है द्वन्द्व कि/ फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है।’’ बाहरी घटनाओं में तेजी से परिवर्तन होता है। सत्ता का बदनुमा चेहरा आततायी के रूप में सामने आता है, भीतर का संघर्ष और तेज होता है। वह सत्ता के खिलाफ खड़े होने का फैसला ले चुका है वह अपने खोये व्यक्तित्व को पाने के काफी करीब पहुंच जाता है, जिसको उसने गुहावास दे दिया था।

वह स्वयं कहता है कि मैंने इसे खतरनाक समझ कर गुहावास (अवचेतन या उपचेतन में डाल दिया) दे दिया था- ‘‘हाय- हाय! मैंने उन्हें गुहा-वास/दे दिया/ वे खतरनाक थे, (बच्चे भीख मांगते ) खैर…….।’’ वह जानता है कि निर्णायक तौर पर जनता का पक्ष लेने पर ही, अपने खोये व्यक्तित्व को पाया जा सकता है, लेकिन इसके परिणाम भयानक होंगे। उसके आत्मीय जनों को भूख, गरीबी, अभाव का सामना भी करना पड़ सकता हैं- ‘‘बच्चे भीख मांगते’’। यह स्वयं मारा भी जा सकता है। इस खतरे के बावजूद उसका संकल्प दृढ़ है वह कहता है-‘‘यह न समय है/जूझना ही तय है।’’

जूझने के लिए आवश्यक है कि वह अपने जैसे सहचरों-साथियों को खोजे। मध्यवर्ग में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिनके बीच आत्मसंघर्ष चल रहा है, जो साथियों की खोज कर रहे हैं। काव्य नायक कहता है- ‘‘एकदम जरूरी है-/दोस्तों को खोजूं/पाऊं मैं नये-नये सहचर/सकर्मक सत् चित् वेदना भास्वर!!’’सहचरों-साथियों को खोजने के संकल्प के साथ ही काव्य नायक जन के बीच पहुंचता है, वहां अपने साथी खोजता है-‘‘मुझे अब खोजने होंगे साथी…../ सुझाव-सन्देश भेजते रहते थे।’’ यहां मुक्तिबोध क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रतिनिधियों की तरफ इशारा कर रहे हैं जो पहले से ही जनता के बीच मौजूद हैं।

अब काव्य नायक निर्णायक स्वर में कहता है- ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे /उठाने ही होंगे।’’काव्य नायक जनक्रान्ति में शामिल हो जाता है और यह पाता है कि जिन चीजों को मैं खोज रहा था, जिसके लिए मैं बेचैन था, जिस चीज की मुझे तलाश थी, वह सब कुछ तो यहां मौजूद है। उसे आश्चर्य होता है, वह कह उठता है- ‘‘आश्चर्य!! अद्भुत!!/लोगों की मुट्ठियां बंधी है।/उंगली-सन्धि से फूट रहीं किरनें/लाल-लाल/यह क्या!! मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे, मेरे ही विवेक रत्नों को लेकर/बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।/ किन्तु मैं अकेला/बौद्धिक जुगाली में अपने से ढुकेला।’’

आत्म संघर्ष की प्रक्रिया पूरी कविता में निरन्तर चलती रहती है, लेकिन उसका स्तर लगातार उन्नत होता जाता है। कविता के अन्त में काव्य-नायक को इसका गहरा एहसास हो जाता है कि उसकी खोई अभिव्यक्ति अर्थात् अपने ही खोये मानवीय व्यक्तित्व को वह तभी प्राप्त कर सकता है, तभी तक प्राप्त किये रह सकता है, जब तक वह जन के साथ है-‘‘वह दिखा- वह दिखा/वह फिर खो गया किसी जन-यूथ में।’’ कविता के अन्त में भी काव्य नायक ‘मैं’ अपनी खोयी हुई अभिव्यक्ति को पाना चाहता है, क्योंकि मध्यमवर्गीय व्यक्ति के बीच आत्मसंघर्ष अनवरत चलता रहता है। वह पूर्णता को, अर्थात् खोई हुई परम अभिव्यक्ति को तभी प्राप्त कर सकता है, जब समाज अपनी परम अभिव्यक्ति प्राप्त कर ले। आशय यह कि समाज क्रान्तिकारी परिवर्तनों द्वारा वहां पहुंच जाए। जहाँ हर प्रकार के शोषण-उत्पीड़न का अन्त हो जाये, सभी सुखी एवं सुन्दर हो जाएं। आज जिस समय में हम जी रहे हैं, बाहर एवं भीतर दोनों का अँधेरा घना होता जा रहा है। जनता देशी-विदेशी रक्तपायी वर्गों की गिरफ्त में जकड़ी हुई तड़प रही है।

मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा शासकों का क्रीतदास बन चुका है। जो बचे हैं उनका अधिकांश हिस्सा ललचायी नजरों से उनकी ओर देख रहा है। मध्यवर्ग का पैशाचिक स्वार्थ उसे अन्धा बना रहा है। वह निरन्तर जन संघर्षों-जनक्रान्तियों से मुंह मोड़ रहा है, लेकिन आज भी मध्यवर्ग विशेषकर निम्न मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा ऐसा है, जिसकी अन्तरात्मा अभी जिन्दा है, उनके भीतर आत्मसंघर्ष चल रहा है। मुक्तिबोध की तरह ही इतिहास बोध हमें सिखाता है कि नये सिरे से यह वर्ग उठ खड़ा होगा, जन संघर्षों के साथ ही इसका भी आत्मसंघर्ष तेज होगा, वह अपने सहचरों को खोजेगा, पहचानेगा, वह जन-समूह का हिस्सा बनेगा तथा जनक्रान्तियों के अगुवा तत्वों में शामिल होगा। इस दौरान आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करेगा, हर प्रकार के खतरे उठायेगा और अपने से यह प्रश्न भी पूछेगा- ‘‘……ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन/अब तक क्या किया?/जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि अनात्म बन गये/भूतों की शादी में कनात से तन गये/ किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर/दुःखों के दागों को तमगों-सा पहना/अपने ही ख्यालों में दिन-रात रहना/असंग बुद्धि व अकेले में सहना/जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तल घर/ अब तक क्या किया/जीवन क्या जिया!!

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)
                                                               

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

पुस्तक समीक्षा: निष्‍ठुर समय से टकराती औरतों की संघर्षगाथा दर्शाता कहानी संग्रह

शोभा सिंह का कहानी संग्रह, 'चाकू समय में हथेलियां', विविध समाजिक मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री संघर्ष। भारतीय समाज के विभिन्न तबकों से उठाए गए पात्र महिला अस्तित्व और स्वाभिमान की कहानियां बयान करते हैं। इस संग्रह में अन्याय और संघर्ष को दर्शाने वाली चौदह कहानियां सम्मिलित हैं।

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

पुस्तक समीक्षा: निष्‍ठुर समय से टकराती औरतों की संघर्षगाथा दर्शाता कहानी संग्रह

शोभा सिंह का कहानी संग्रह, 'चाकू समय में हथेलियां', विविध समाजिक मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री संघर्ष। भारतीय समाज के विभिन्न तबकों से उठाए गए पात्र महिला अस्तित्व और स्वाभिमान की कहानियां बयान करते हैं। इस संग्रह में अन्याय और संघर्ष को दर्शाने वाली चौदह कहानियां सम्मिलित हैं।

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...