Thursday, March 28, 2024

स्मृति दिवस पर विशेष: यंग मार्वल कॉमरेड पीसी जोशी

वे असाधारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनीतिक चिंतक और करिश्माई संगठनकर्ता थे। देश में साम्यवादी आंदोलन उन्हीं की अगुआई में शुरू हुआ। आधुनिक भारत के वे एक अहम सियासी हस्ती रहे। जिन्होंने पूरी ज़िंदगी अपने देशवासियों की बेहतरी और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कु़र्बान कर दी। भारतीय इतिहास में बीसवीं सदी के चौथे और पांचवें दशक में जब सबसे ज़्यादा उथल-पुथल का दौर था, तब उन्होंने न सिर्फ़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कमान संभाली, बल्कि उसे शानदार नेतृत्व प्रदान किया। उनकी अथक कोशिशों का ही नतीज़ा था कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सीपीआई एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी। जिस शख़्सियत का यहां ज़िक्र हो रहा है, हीरेन मुखर्जी ने उनकी असाधारण योग्यताओं को देखते हुए, उन्हें यंग मार्वल कहा था। यह युवा करिश्मा और कोई नहीं पूरन चंद्र जोशी थे, जिन्हें उनके साथी पूरे एहतिराम के साथ कॉमरेड पीसी जोशी कह कर पुकारते थे।

साल 1935 में जब कॉमरेड पीसी जोशी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कमान संभाली, तब उनकी उम्र महज़ 28 साल थी। पार्टी के कुनबे की बात करें, तो उस वक़्त पार्टी में महज़ 50 मेंबर थे। यानी पार्टी शैशवास्था में थी। पीसी जोशी ने थोड़े से ही अरसे में पार्टी को खड़ा किया और उसे एक नई राह दिखलाई। तमाम मोर्चों पर उनकी तूफ़ानी सरगर्मियों का ही नतीज़ा था कि देश की आज़ादी तक पार्टी के 90 हज़ार से ज़्यादा मेंबर हो गए थे। ख़ास तौर से किसानों और कामगारों में पार्टी की एक विश्वसनीय पहचान बनी। यही नहीं देश भर के साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक और संस्कृतिकर्मी भी बड़ी तादाद में कम्युनिस्ट पार्टी के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। कॉमरेड पीसी जोशी अलग-अलग फ्रंट पर इनकी रहनुमाई करते थे। प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय जन नाट्य संघ, अखिल भारतीय स्टूडेंट फेडरेशन (एआईएसएफ) और छात्र संघ जैसे संगठन उन्हीं की दृष्टिसंपन्न परिकल्पना का नतीज़ा हैं।

रजनी पाल्म दत्त (आरपीडी) की किताब ‘मॉडर्न इंडिया’ और एमएन राय की ‘फ्यूचर ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स’ ने पीसी जोशी की ज़िंदगी को एक नई राह दिखाई। खु़द उन्हीं के अल्फ़ाज़ में ‘‘आरपीडी हमारे शिक्षक एवं मार्गदर्शक बन गए। उनकी मॉडर्न इंडिया हमारे लिए आधार ग्रंथ एवं उनके ‘लेबर मंथली: नोट्स ऑफ दी मंथ’ वे टिप्पणियां जो हमें गति देती रहीं।’’ (‘रजनी पाल्मे दत्त एंड इंडियन कम्युनिस्ट’, न्यू थिंकिंग कम्युनिस्ट) उन दिनों पीसी जोशी ने अपने ज़िम्मे जो काम लिया, वह साम्यवाद समर्थक क्रांतिकारी गुटों को अखिल भारतीय किसान-मज़दूर दल से जोड़ने का था।

किसान-मज़दूर दल में ही पीसी जोशी की सियासी तालीम हुई। सितंबर, 1928 में मेरठ सत्र में वे यूपी इकाई के संयुक्त सचिव बने। जोशी को उस वक़्त पूरा यक़ीन था कि अखिल भारतीय किसान-मज़दूर दल क्रांति की दम पर ब्रिटिश साम्यवाद से आज़ादी ले सकेगा। यही वह दौर था, जब रेलवे, कपड़ा और जूट सेक्टर में मज़दूरों के अंदर व्यापक राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। अपने हक़ के लिए हड़तालें हुईं। यहां तक कि अखिल भारतीय किसान-मज़दूर दल के नेतृत्व में हज़ारों कर्मियों ने कांग्रेस के सत्र में दो घंटों के लिए पंडाल पर कब्जा कर ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग का प्रस्ताव पारित किया।

अंग्रेज हुक़ूमत इन सब हरकतों पर बारीक नज़र रखे हुए थी। बंगाल और बंबई के मज़दूरों को संगठित कर रहे ब्रिटिश कम्युनिस्टों पर अंकुश लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ लाई। यही नहीं साल 1929 में ट्रिब्यूनलों में हड़तालों पर पाबंदी लगाने की मंशा से ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स एक्ट’ आया। सरकार ने इन कानूनों की आड़ में मज़दूर नेताओं का दमन शुरू कर दिया। 20 मार्च, 1929 को 31 मज़दूर लीडर गिरफ़्तार किए गए। इनमें ज़्यादातर कम्युनिस्ट थे। मुल्ज़िमों में सबसे कम उम्र के पीसी जोशी थे। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 22 साल थी और वे उसी साल कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर बने थे। मज़दूर लीडरों पर तीन साल तक मेरठ में मुक़दमा चला।

भारतीय इतिहास में यह मुक़दमा, ‘मेरठ षड्यंत्र मामले’ के नाम से जाना जाता है। इन तीन सालों में पीसी जोशी ने काफ़ी कुछ सीखा। नये-नये तज़रबात हासिल किए। बहरहाल साल 1933 में इन सभी कॉमरेडों की रिहाई हुई। रिहाई के बाद पीसी जोशी उत्तर प्रदेश में अखिल भारतीय किसान-मज़दूर दल संगठनकर्ता के तौर पर काम करने लगे। कानपुर में म्योर मिल हड़ताल का नेतृत्व करने के इल्जाम में फिर उनकी गिरफ़्तारी हुई। उन्हें दो साल का कारावास दिया गया। ज़ेल से छूटे, तो उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई। प्रोविजनल सेंट्रल कमेटी के जून 1936 सेशन में पीसी जोशी पार्टी के महासचिव चुने गए। इसके बाद उन्होंने यह ज़िम्मेदारी 1948 तक संभाली।

साल 1936, वामपंथी जन आंदोलन के इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण साल माना जाता है। सीपीआई के महासचिव बनने के बाद पीसी जोशी ने प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय छात्र फेडरेशन (एआईएसएफ) और छात्री संघ जैसे संगठन बनाये। इन संगठनों के मार्फ़त उन्होंने पार्टी की विचारधारा और कामों को देशवासियों तक पहुंचाया। मज़दूर एवं किसान संगठन एआईटीयूसी और अखिल भारतीय किसान सभा की मान्यता के लिए संघर्ष किया। ट्रेड यूनियन आंदोलन को गति दी। दीगर पार्टियों के संग साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चा बनाने के लिए जी जान से काम किया। इस दरमियान उन्होंने एक वीकली ‘नेशनल फ्रंट’ का संपादन भी किया और पार्टी के विचारों को लोगों तक पहुंचाया।

कॉमरेड पीसी जोशी का मानना था कि राष्ट्रीय आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी के असरदार ताक़त बनने पर ही उसकी देशवासियों में स्वीकार्यता बढ़ेगी। इस दरमियान पीसी जोशी की लीडरशिप में कम्युनिस्टों ने आज़ादी की जंग में सहभागिता के पथ पर तेजी से क़दम बढ़ाए। कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष चुने जाने के लिए न सिर्फ़ जनमत बनाया, बल्कि अपने सारे संसाधन भी लगा दिए। पीसी जोशी की नीतियों और दीर्घकालीन सोच का ही नतीजा था कि साल 1937 से 1939 तक के सिर्फ़ तीन सालों में कम्युनिस्ट पार्टी ने देश में एक छोटी मगर महत्वपूर्ण वामपंथी ताक़त का रूप ले लिया।

सोवियत संघ पर नाजी हमले की दलील पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। क्योंकि पार्टी इसे जनयुद्ध मानती थी। दुनिया भर में बढ़ते फ़ासीवाद को रोकना, उसकी प्राथमिकता में था। लेकिन इस क़दम से पार्टी को काफ़ी ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। राष्ट्रीय मुख्यधारा में सियासी तौर पर पार्टी हाशिये पर चली गई। कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ अनेक इल्जाम लगे। यहां तक कि उन्हें गद्दार कहा गया। ऐसे माहौल में पीसी जोशी के सामने एक बड़ी चुनौती थी कि कैसे पार्टी का सही पक्ष लोगों तक पहुंचाया जाए। ताकि पार्टी के ख़िलाफ़ जो विषाक्त माहौल बना है, वह दूर हो। इन सब बातों की परवाह न करते हुए पीसी जोशी ने पार्टी को बंगाल अकाल के राहत कार्यों में तन-मन से जुट जाने का निर्देश दिया।

एक सांस्कृतिक दल के साथ बंगाल भ्रमण कर उन्होंने लोगों को जापान के फ़ासीवाद, जमाखोरी एवं काला बाज़ारी करने वालों के ख़िलाफ़ तथा देश की आज़ादी और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्ष में जगाया। बंगाल के गांव-गांव में घूमकर उन्होंने अकाल की मानव निर्मित प्रकृति के बारे में लोगों को जानकारी दी। राहत देने और जमाखोरी दूर भगाने के लिए आंदोलन किया। बंगाल के हालात को जोशी पार्टी के एजंडे में ही नहीं, राष्ट्रीय एजंडे में ले आए। इप्टा के सांस्कृतिक दलों के माध्यम से पूरे देश में बंगाल के लिए फंड उगाही की। ज़ाहिर है कि पार्टी के इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन का सारे देश पर गहरा प्रभाव पड़ा। पार्टी की छवि सुधरी और लोग बड़े पैमाने पर उससे जुड़े। यह सब पीसी जोशी के करिश्माई नेतृत्व और सही दिशा में सही सोच का ही नतीज़ा था। उनके नेतृत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में हो गई।

महाराष्ट्र में जमींदारों के ख़िलाफ़ आंदोलन, पूर्वी बंगाल में तेभागा आंदोलन और हैदराबाद में तेलंगाना संघर्ष में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। यही नहीं पार्टी ने मज़दूरों के हित में भी कई लड़ाईयां लड़ीं। फरवरी 1946 में बंबई में अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ जो नौसेना महाविद्रोह हुआ, उसमें भी कम्युनिस्ट कॉमरेड आगे-आगे थे। कॉमरेड पीसी जोशी एक कुशल संगठनकर्ता थे। संगठन की ताक़त को वे अच्छी तरह से समझते थे। यही वजह है कि उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में संगठन बनाए और लोगों को उनसे जोड़ा।

बंगाल के अकाल के बाद उन्होंने किसानों की मुश्किलों को समझा और उग्रपंथी किसान आंदोलन गढ़ने के लिए पार्टी को तैयार किया। सारे देश में ट्रेड यूनियनों को इकट्ठा कर, उन्हें अपने अधिकारों के लिए जागृत किया। ज़ाहिर है इन सब कार्यकलापों से देश में राजनीतिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार हुई। देश आज़ादी की ओर बढ़ा। मुल्क की आज़ादी के बाद कॉमरेड पीसी जोशी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पॉलिसियों से मुतअल्लिक जो भी फै़सले लिए, पार्टी के अंदर उन पर दो राय रहीं। लेकिन उन्होंने जो फै़सला किया, उस पर हमेशा क़ायम रहे।

एक तरफ़ पार्टी का बड़ा तबक़ा ‘यह आज़ादी झूठी है’ कहकर सशस्त्र क्रांति की वकालत कर रहा था, तो दूजी ओर पीसी जोशी ने देश की नब्ज को पहचानते हुए आज़ाद भारत की पहली सरकार को कुछ वक़्त देने का फ़ैसला किया। उनके इस फ़ैसले का पार्टी में उस समय काफ़ी विरोध हुआ। उनके बारे में कई झूठी बातें फैलाई गई। लेकिन बाद में पार्टी ने इस भूल को स्वीकार किया। साल 1962 में भारत-चीन जंग के दरमियान उन्होंने नेहरू सरकार की नीतियों की सराहना करते हुए, चीनी आक्रमण की कड़ी मुख़ालिफ़त की। वहीं पार्टी लीडरों की गिरफ़्तारी का भी कड़ा प्रतिवाद किया। पीसी जोशी एक आला दर्जे के पत्रकार भी थे। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी गहरी समझ थी। इन सब मुद्दों पर उन्होंने ख़ूब लिखा। आज़ादी के आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को गै़रकानूनी करार दिया और उस पर पाबंदी लगी हुई थी, तब भी उन्होंने कई पत्रिकाएं निकालीं और अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया।

अपनी ज़िंदगी का आख़िरी समय कॉमरेड पीसी जोशी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अभिलेखागार के निर्माण में लगाया। सामग्री संग्रह के लिए उन्होंने बर्लिन और मास्को की यात्राएं कीं। देश के अंदर पुराने कॉमरेडों से मिलकर पुरानी फाइलें, पम्फलेट और पत्रिकाएं जुटाते रहे। पीसी जोशी में गहरा इतिहासबोध था। यदि सियासत में नहीं होते, तो वे बेशक एक बेहतरीन इतिहासकार साबित होते।

उनका एक और महत्वपूर्ण कार्य 1857 क्रांति का विश्लेषण और उस क्रांति पर केन्द्रित लोक साहित्य का संकलन था। पीसी जोशी बेहद संवेदनशील व्यक्ति थे। देश में कहीं साम्प्रदायिक दंगा हो या कोई बड़ी राजनीतिक घटना वे बेचैन हो जाते थे। चीनी आक्रमण, चेकोस्लोवाकिया संकट और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान वे ख़ामोश तमाशाई नहीं रहे। पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर वे अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर देते थे। 9 नवंबर, 1980 को 73 साल की उम्र में कॉमरेड पीसी जोशी ने इस दुनिया को अलविदा कहा। उनके जाने से वामपंथी आंदोलन का इतिहास लिखने समेत कई काम अधूरे रह गए। कॉमरेड पीसी जोशी अपने क्रांतिकारी कामों से हमेशा याद किए जाएंगे।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक हैं आप आजकल शिवपुरी में रहते हैं।)

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