Friday, March 29, 2024

भारत भी डूब रहा है कर्ज में, डरा रहा है श्रीलंका का महासंकट

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने 2014 में जब देश का शासन संभाला तब से लेकर अब तक कुछ ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल हुयीं तो नोटबंदी जैसी कुछ बड़ी भूलें भी हुयीं। विकास और शासन-प्रशासन के क्षेत्र में नये प्रयोग भी हुये जिनमें से कुछ सफल रहे तो कुछ के नतीजे आने बाकी हैं। कुछ फैसले विवादास्पद रहे जिन्हें देश की आबादी के एक बड़े वर्ग ने पसन्द नहीं किया। लेकिन आर्थिक क्षेत्र में नये अंदाज और नये उत्साह वाली सरकार से जितनी उम्मीदें थीं उतनी पूरी नहीं हुयीं।

खास कर देश कर्ज के बोझ से दबता चला गया। ऐसा अनुमान है कि भारत सरकार के कर्ज को देश के प्रत्येक नागरिक में बांटा जाय तो वह औसतन 32 हजार बैठता है। उत्तराखण्ड जैसे कुछ राज्यों ने तो हद ही कर दी। केंद्र के अलावा लगभग देश के सभी राज्यों पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रह है। उत्तराखण्ड सरकार पर 22 साल में ही 75 हजार करोड़ कर्ज का बोझ हो चुका है। हालाँकि हमारी अर्थ व्यवस्था से श्रीलंका की तुलना नहीं की जा सकती फिर भी उस देश का महासंकट हमको भी डराता तो है ही।  

भारत सरकार के 2014-15 और 2022-23 के सालाना बजटों में दिये गये कर्ज के ब्यौरों की तुलना की जाए तो देश पर पिछले 68 सालों की तुलना में 8 सालों में कर्ज का बोझ दोगुने से ज्यादा हो गया। हमारा रिजर्व बैंक भी हल्का हो गया। रुपये की तुलना में डालर बहुत भारी हो गया। जो डॉलर 2014  में 62.97 रूपये का था वह 79.85 रूपये का हो गया है। वर्ष 2014-15 के बजट में देश पर कुल जो बाहरी और आंतरिक कर्ज रुपये 62,22,357.55 बताया गया था, वह 2022-23 के बजट में 1,52,17,910.29 करोड़ तक पहुंच गया। इस तरह देखा जाए तो देश पर इन 8 सालों में रुपये 89,95,552.74 करोड़ का कर्ज चढ़ गया जो कि पिछले 68 सालों के कर्ज के बोझ से कहीं अधिक है। यह आन्तरिक और बाहरी दोनों तरह का कर्ज है।

इन सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत सरकार पर 31 मार्च 2014 को घरेलू बाजार का कुल 60,33,894.47 करोड़ रुपये का कर्ज था जो कि 31 मार्च 2022 तक 1,31,58,490.37 तक पहुंच गया। यह ऋण राशि अगले साल 31 मार्च 2023 तक 1,47,48,875.77 करोड़ तक पहुंचने की संभावना प्रकट की गयी है। इसी प्रकार 2014 में विदेशी कर्ज का जो बोझ रु0 1,82,729.30 करोड़ था वह 31 मार्च 2022 तक रु0 4,29,402.79 करोड़ तक पहुंच गया है। सरकार का ही अनुमान है कि 31 मार्च 2023 तक बाहरी ऋण की राशि रुपये 4,69,034.52 करोड़ तक पहुंच जायेगी।

आजादी के बाद 1950 में भारत पर विदेशी कर्ज करीब 380 करोड़ रुपए का था। इन 74 सालों में सरकारें बनती और गिरती रहीं, लेकिन हर सरकार के कार्यकाल में देश पर कर्ज बढ़ता ही रहा। हाल यह है कि 2021 में भारत पर 43.32 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज था। 2014 में भाजपा ने सरकार बनाने से पहले जनता से वादा किया था कि वह देश के विदेशी कर्ज को कम करेगी, लेकिन पिछले 8 सालों में देश का कर्ज कम होने की जगह बढ़ा ही है। 

2014 से अब तक मोदी सरकार ने 2021 तक विदेश से कुल 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया है, जबकि 2006 से 2013 तक 7 साल में यूपीए सरकार ने करीब 21 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज लिया था। 2006 में देश पर विदेशी कर्ज 10 लाख करोड़ था, जो 2013 में बढ़कर 31 लाख करोड़ हुआ। यानी, 7 साल में 21 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज बढ़ा। 2014 से 2021 तक 33 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 43 लाख करोड़, यानी इन 7 साल में 10 लाख करोड़ रुपए कर्ज बढ़ा। लेकिन अच्छी बात यह है कि यूपीए सरकार की तुलना में 7 साल में  मोदी सरकार ने कोरोना महामारी के बावजूद कम विदेशी कर्ज लिए हैं।

किसी भी देश के विकास के लिये ऋण भी जरूरी ही हैं। ऋण हमारे वित्त का प्रबंधन करने में हमारी मदद करके हमारे वित्तीय और सामाजिक कल्याण में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन इसके लिये कुशल ऋण प्रबंधन की जरूरत होती है। अगर देश उत्पादक या पूंजीगत मद के लिये कर्ज लेता है तो उसका लाभ मिलना स्वाभाविक ही है। जैसे बैंक से कर्ज लेकर उद्योग और व्यापार फलता फूलता है और देश की आर्थिकी मजबूत होती है। हमारा देश भी वाह्य या आन्तरिक ऋणों का उपयोग बड़ी परियोजनाओं या पूंजीगत मदों के लिये ही लेता है। लेकिन उस कर्ज का उपयोग अगर सस्ती लोकप्रियता के प्रयोजनों पर किया जाए तो उसे कर्ज का दुरुपयोग ही कहा जायेगा। राजनीतिक नेतृत्व (किसी भी दल का हो सकता है) द्वारा सामान्यतः अपना राजस्व तो लोकप्रियता हासिल करने वाली अनुत्पादक योजनाओं पर खर्च कर दिया जाता हैं और विकास के लक्ष्य प्राप्त करने के लिये अपने संसाधनों के बजाय ऋणों पर निर्भर रहना पड़ता है।  

किसी भी देश की सरकार राजस्व और व्यय के बीच की खाई को पाटने के लिए घरेलू और बाहरी ऋण लेती है। अधिकांश देश घरेलू ऋण को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि यह बाहरी ऋण की तुलना में कम बोझ वहन करता है। इसीलिये भारत सरकार ने बाहरी ऋण पर निर्भरता कम की है। ऋण के बाहरी स्रोतों का उपयोग तब किया जाता है जब उधार लेने के लिए घरेलू बाजार अच्छी तरह से विकसित नहीं होते हैं। राजकोषीय घाटे में निरंतर वृद्धि और उधार पर दर ने ऋण स्थिरता और समष्टि आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के लिए राज्य की शोधन क्षमता के बारे में प्रश्न उठाए जाते हैं। हाल ही में, उच्च सार्वजनिक ऋण, उच्च राजकोषीय घाटा और कम आर्थिक विकास के कारण ऋण स्थिरता के बारे में चिंता बढ़ी है।

वाह्य ऋण उभरते बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं (ईएमई) में बाहरी वित्तपोषण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है जो कि घरेलू पूंजी की कमी से उत्पन्न अंतराल को भरने तथा चालू खाता घाटे (सीएडी) के निधीयन की जरूरत को पूरा करने के साथ-साथ उपभोग को सुचारू रूप से बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वैश्विक स्तर पर संसाधनों की प्रचुरता से उपलब्धता होने के कारण कम पूंजी वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह संभव हो गया है कि वे कम लागत पर बाहरी उधार प्राप्त कर सकें। परंतु वाह्य ऋण जहां एक ओर घरेलू निवेश के पूरक के रूप में कार्य करते हुए घरेलू अर्थव्यवस्था की संवृद्धि में सहायक बनता है। वहीं दूसरी ओर बाहरी उधारियों पर अति निर्भरता किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अवहनीय बोझ बन सकती है और समष्टि प्रबंधन पर भी समग्र रूप से इसका असर पड़ सकता है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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