Wednesday, April 17, 2024

आप करिये रिपोर्टरों, एंकरों और संपादकों से सवाल! कहां है आपकी खबर जनाब?

आवश्यकता है किसी ऐसे बयान की जिसके कारण धर्म से जुड़े हों। बोलने वाले के ललाट पर टीका हो या ठुड्डी पर बकर दाढ़ी हो। कोई वीडियो मिल जाए तो वह और अच्छा।
यह रोज़ की डिमांड है। सप्लायर चाहिए।

मंगलवार को न्यूज़ चैनलों का समय मुंबई की बारिश से कट जाएगा फिर भी इससे डिबेट की महफ़िल नहीं जमेगी। मैं मुंबई की बारिश में टीवी की संभावना देखता हूं। कुल चार दिनों के लिए। यही वो एक मात्र घटना है जिससे पता चलता है कि मुंबई ब्यूरो में हर मोहल्ले के लिए रिपोर्टर हैं। यहां तक कि ख़ास चौक के लिए भी। बारिश के बाद ये सब अगली बारिश का इंतज़ार करने चले जाते हैं। घटना होने पर वीडियो लाने या रिएक्ट करने की वेटिंग लिस्ट में डाल देते हैं। सूखा के कवरेज के लिए इतने रिपोर्टर नहीं नज़र आते। ये आज से नहीं ज़माने से है।

डिबेट के लिए ज़रूरी है एक्शन और रिएक्शन। संसद में चलने जाने वाले संवाददाता बाहर आते सांसद का बयान ले लेंगे। सवाल नहीं होंगे मगर सवाल बनाते रहेंगे। सांसद के पास जवाब नहीं होगा मगर वह जवाब देता रहेगा। अगर उसने कुछ फ़ालतू बोल दिया तो यह अतिउत्तम कहलाएगा। उसी से डिबेट का सवाल निकल आएगा। शाम को एंकर प्रासंगिक हो जाएगा। खलिहर एक्सपर्ट आ जाएंगे। कुछ नेहरू कुछ लोहिया या इमरजेंसी पर बोल देंगे। एकाध घटना बता देंगे कि कैसे वीपी सिंह ने राजीव गांधी को जवाब दिया था टाइप। ये वरिष्ठ पत्रकार कहलाते हैं। ख़ैर जिन्होंने पांच साल से कोई खबर तक नहीं की है वो भी वरिष्ठ हो चुके हैं।

कुछ तो ऐसा हो जिससे सारे पक्षों के लोग दूसरे पक्षों का पक्ष उधेड़ने में व्यस्त हो जाएं। न्यूज़ चैनल के एंकर अपने शो, कार्यक्रम में हुए हल्ला हंगामा पोस्ट करते रहें। कोई न कोई बयान आएगा जो मुद्दा बन जाएगा। कोई न कोई मुद्दा आएगा जिससे बयान निकल आएगा। इस तरह टीवी का एक और हफ़्ता निकल जाएगा। यह टीवी का कई साल से सप्ताह का रोस्टर है। यह रोस्टर आपके दर्शक होने के पतन का भी है।

क्या यह बदलेगा? नहीं। क्या आप कुछ कर सकते हैं ? उपाय क्या है?

आप स्वामी/संपादक/रिपोर्टर/एंकर की टाइम लाइन पर जाएं। उसकी टाइम लाइन का महीनावार या वर्षवार अध्ययन करें । देखिए कि उसने अपनी किसी रिपोर्ट के बारे में क्या शेयर किया है।

टीवी के रिपोर्टर आम तौर पर कुछ न कुछ रिपोर्ट फ़ाइल करते रहते हैं। उसे रिपोर्ट या पत्रकारिता न मानें। पैमाना ज़रा सख़्त करें। टीवी में सामान ढोने को मेहनत समझ लिया जाता है। ऐसा न करें।

देखें कि उस रिपोर्ट को बनाने में कितना श्रम लगा है? ख़बर खोजने में कितनी पत्रकारीय नज़र लगी है? क्या ऐसी कोई ख़बर है जिसे पत्रकारीय कौशल और नज़र से बनाई गई है? 
घटना या बयान पर एंगल निकालना तो आसान है। मौक़े की रिपोर्ट को इसमें न गिनें। ये सब आसान काम होता है।

अपवाद को मत गिनिए। पैटर्न को देखिए। फिर उनसे ही उसी टाइम लाइन पर पूछिए कि अपनी स्टोरी बताइये। जिसमें आपकी स्टोरी हो। पत्रकारिता हो। बाकी जो वो बयान से मुद्दा और मुद्दा से बयान पैदा करने के लिए लिखते हैं उसे बिल्कुल छोड़ दें । अपने सवाल को कई लोगों को टैग करें। जन दबाव बनाएं।

लेकिन उसके पहले अपना भी मूल्यांकन करें। क्या आप भी डिबेट टीवी की तरह नहीं बन गए हैं? बयान या मुद्दे के अलावा आपके कान कब खड़े होते हैं? आपकी आँखें कब खुलती हैं? 
आपका दोहरापन ही चैनलों का दोहरापन है। चैनल जैसा चाहते हैं आप क्यों ढल जाते हैं? क्या एक दर्शक की अपनी कोई स्वायत्तता नहीं होती है?

आप रोज़ ट्विटर या फ़ेसबुक पर उनसे सवाल करें जो हर दिन ख़ुद को relevant यानी प्रासंगिक बनाने के लिए पोस्ट करते रहते हैं। आज आपके चैनल की अपनी रिपोर्ट कौन सी है? आपकी अपनी रिपोर्ट कौन सी है? ऐसा कीजिए सारे हीरो हवा हो जाएंगे।

टीवी में घटना स्थल की रिपोर्टिंग ही बच गई है। रिपोर्टिंग बचाने का एक आख़िरी तरीक़ा है। एंकरों से भी पूछिए। अगर आप बतौर दर्शक किसी चैनल, रिपोर्टर/एंकर, उसकी ख़बर पर रिएक्ट करना चाहते हैं तो इस तरह से कीजिए। पूछिए कि पदनाम तो एसोसिएट/ पोलिटिकल/नेशनल/ मैनेजिंग एडिटर का है, आपकी स्टोरी कहां है? सारे हीरो हवा हो जाएंगे।

न्यूज़ चैनल पर डिबेट देखना अपने विवेक का अपमान करना है। फिर लोग तीन चार अपवादों के आधार पर स्वाभिमान बनाना चाहते हैं तो उनकी मर्ज़ी। मगर सबको पता है कि क्या हो रहा है।

कई एंकरों और रिपोर्टरों की टाइम लाइन पर देखता हूं। महीनों से उनकी कोई खबर नहीं है। वही ख़बर है जो बीजेपी अपने हैंडल से ट्वीट कर देती है। वो सिर्फ इसलिए प्रासंगिक हैं कि वे मोदी-मोदी करते हैं। इससे उनकी पूछ बनी रहती है और जान बची रहती है। मोदी खुद कितना मेहनत करते हैं। जीतने के लिए जी जान लगा देते हैं। मगर मोदी के नाम पर आलसी पत्रकारों का समूह मौज कर रहा है। जो मोदी-मोदी नहीं करते हैं उनके यहां भी यही हाल है।

इसका नुक़सान चैनलों के बाकी कर्मचारियों को उठाना पड़ता है। उनकी छंटनी हो जाती है। सैलरी कम बढ़ती है। उनका कैरियर थम जाता है। दरअसल ये फ़ौज भी मोदी-मोदी से ख़ुश रहती है। लेकिन देख नहीं पाती कि मलाई सिर्फ दो चार को ही मिलती है। डिबेट के कारण चैनलों में इनोवेशन बंद हो गया है। इनोवेशन नहीं होगा तो पेशे की संभावना का विस्तार नहीं होगा।

टीवी टिक टॉक हो गया है। आप फिर भी उसे देखते रहने के लिए अपवाद ढूँढ रहे हैं। आप आज से यह काम शुरू कर दें। मुझे पता है कि जवाब नहीं आएगा। फिर भी रोज़ पूछिए। जवाब नहीं आना ही जवाब है। शुरूआत नामदार, नंबरदार चैनलों से करें।

चैनलों में संपादक मर गया है। मार दिया गया है। उसके हाथ पांव बंधे हैं। टीवी पर आर्थिक दबाव होता है लेकिन जो लुटियन दिल्ली के ख़ास पत्रकार हैं उनकी ख़बर कहां हैं? पूछिए। हर एडिटर और एंकर से। इसे आंदोलन में बदल दें। आज संपादक का काम न्यूज़ रूम में पत्रकारों को धमकाना और उसका मनोबल तोड़ना रह गया है ताकि अहसासे कमतरी से वह भरा रहे। वह कचरे का गुणगान करता रहे। क्या मैं बदल सकता हूं ? नहीं। तभी तो आपसे कह रहा हूं।

(ये लेख वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक से साभार लिया गया है।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles