Friday, March 29, 2024

थम गयीं अंगुलियां, खत्म हो रहा है हाथों का जादू

लखनऊ। देश के किसी भी हिस्से में चिकन के कपड़ों का मतलब लखनऊ होता है। बाजार में घूमते हुए कढ़ाईदार कपड़ों को देखकर किसी को भी बरबस अवध की पुरानी राजधानी याद आ जाती है। चिकनकारी कभी लखनऊ के घर-घर का पेशा हुआ करती थी। लेकिन समय के साथ यह दम तोड़ रही है। बदहाली का आलम यह है कि इसके कारीगर पेशा छोड़ कर रिक्शा चलाने से लेकर पान की दुकान खोलने तक के धंधे में चले गए हैं। लेकिन इसकी न तो सरकार को फिक्र है न ही कोई ऐसा शख्स है जो इस मरते पेशे में नई जिंदगी फूंकने के लिए आगे आए।

लखनऊ के चौपटिया स्थित दर्जी बगिया मोहल्ले की भूल भुलैया गलियों से होते हुए, पूछते-पूछते आख़िर मोहम्मद तंज़ील के अड्डे पर पहुंचना हुआ। इन संकरी गलियों के अंदर बसने वाले न जाने कितने दरवाजों पर ताले पड़ चुके थे। तालों पर लगे जंग साफ बयां कर रहे थे कि ये तालाबंदी हुए एक लंबा समय हो चुका है। जिन दरवाजों में ताले लगे थे उनके पीछे किसी समय जरदोजी और चिकनकारी का संसार बसता था, जिन्हें अड्डे कहा जाता था। महंगाई की मार, सरकार की नज़रअन्दाजी और मुनाफ़े का घटना आदि कारणों के चलते कारीगरों का अपने पुश्तैनी काम से दूसरे रोज़गार की ओर पलायन हो गया और धीरे-धीरे अड्डे बंद होते चले गए।

तंजील जी कहते हैं, “अब भूखे पेट कारीगरी कैसे होगी, रही सही कसर कारोना ने पूरी कर दी। कारोबार ठप्प हुआ तो भयनाक आर्थिक तंगी से जूझते कारीगर आखिर क्या करते या तो भूख से मरते या दूसरे रोजगार की ओर बढ़ जाते तो उन्होंने दूसरे रोजगार की ओर बढ़ना ही बेहतर समझा”। उन्होंने बताया कि बहुतेरे कारीगर आज की तारीख में ई रिक्शा, रिक्शा, ऑटो चला रहे हैं तो कुछ फेरी लगाकर कपड़े बेचने का काम कर रहे हैं। तो कोई फल सब्जी का ठेला लगा रहा है।

तंजील भाई पिछले 25 वर्षों से ज़रदोजी के कारोबार से जुड़े हैं। वे बताते हैं कि उनके अब्बा जान भी इसी पेशे से जुड़े थे और यही काम करते-करते उनका इन्तकाल भी हो गया। वे कहते हैं दूसरे कारोबार में लोगों का प्रमोशन होता है लेकिन इस काम में केवल डिमोशन है, कढ़ाई का महीन काम करते-करते करीगर की आँख खराब हो जाती है, सेहत बिगड़ जाती है और जब उसकी जादुई अंगुलियाँ सुस्त पड़ने लगती हैं तो धीरे-धीरे उसे कारखाने से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।

तंजीम के अड्डे पर मेरी मुलाक़ात मोहम्मद जीशान से हुई जो ज़रदोजी के कारीगर हैं और एक लंबे अरसे से इस पेशे से जुड़े हैं। जिस समय अड्डे पर पहुंचना हुआ तो जीशान अपने काम में व्यस्त थे इसलिए सोचा थोड़ा इनसे रुक कर ही बात की जाये। जीशान की अंगलियों की जादूगरी कमाल की थी। काम करते हुए क्या आपकी एक फोटो खींच लूँ, मेरे इतना पूछने पर वे थोड़ा सकुचाये फिर सिर हिलाकर इज़ाज़त दे दी और बेहद विनम्रता के साथ बोले आप को जो कुछ पूछना है पूछ लीजिए, हलाँकि आप यही पूछना चाहेंगी कि कितने घंटे हमें काम करना पड़ता है, दिन भर का कितना मिलता है, इस पेशे से खुश हैं कि नहीं, और इतना कहते ही वे हँस पड़े।

जरदोजी के कारीगर मोहम्मद जीशान

सच कहें तो उनकी यह हँसी उनके सुकून को नहीं बल्कि उनकी मुफ़लिसी को बयाँ कर रही थी। जीशान ने बताया कि आठ घंटे अपनी आँखों और अंगुलियों को तकलीफ़ देने के बाद अंत में मिलता क्या है मात्र डेढ़ सौ रुपये दिहाड़ी। अगर किसी कपड़े में बहुत बारीकी और ज्यादा कढ़ाई वर्क हो तो दो सौ तक मिल जाते हैं बस उससे अधिक नहीं, जो एक मजदूर के मेहनताने के बराबर भी नहीं और एक कारीगर के द्वारा चार चाँद लगाए यही कपड़े जब शोरूम तक पहुँचते हैं तो उनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं और यही कारण है एक कारीगर का इस पेशे को छोड़ने का। वे कहते हैं यदि कभी मजबूरी वश एक या दो दिन काम से छुट्टी ले लेनी पड़े तो खाने के मांदे तक पड़ जाते हैं।

अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए वे कहते हैं जो कलायें हमारे देश की पहचान और शान हुआ करती थीं, वे मर रही हैं और उन्हें जिंदा रखने की ईमानदार कोशिश तक नहीं हो रही। तो क्या कभी आपका मन दूसरों की तरह इस पेशे को छोड़ दूसरे रोजगार की ओर जाने का नहीं हुआ, मेरे इस सवाल पर वे कहते हैं,सच कहिये तो कुछ साल पहले तक नहीं सोचते थे लगता था हालात बेहतर हो जायेंगे लेकिन अब लगता है इस हस्तशिल्प कारीगरी के पेशे में कुछ बचा नहीं रह गया। लेकिन जैसे ही पेशा बदलने की बात आती है तो बस यही सोचते हैं आख़िर अपने हाथ की हुनरमंदी से कैसे समझौता कर लें जब आधा जीवन इस कला को जिन्दा रखने में खपा दिया तो बाकी भी सही। वे कहते हैं वैसे भी अब हमारे बच्चे तो इस काम को करने से रहे। जो कला एक कलाकार की जीवन की मूलभूत जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रही उसे आख़िर आने वाली पीढ़ी क्यों ढोये।

हस्तशिल्प कारीगरी और उनके कारीगरों के उत्थान और विकास के लिए प्रदेश की योगी सरकार द्वारा वर्ष  2018 में लाई गई  “One district one product ” यानी ओडीओपी (एक जनपद एक उत्पाद) योजना का उन तक कितना लाभ पहुँचा, क्योंकि इस योजना का सरकार ने व्यापक स्तर पर प्रचार किया था, इस पर जीशान जी और तंजीम दोनों ने बेहद हैरान करने वाला जवाब दिया। उनका कहना था कि इस योजना के बारे में तो वे पहली बार सुन रहे हैं न उन्होंने न उनके आस पास चलने वाले अन्य अड्डों में काम करने वाले कारीगरों ने इस योजना के बारे में सुना है तो योजना का लाभ मिलना तो दूर की बात है। सचमुच यह बेहद आशचर्य की बात थी सरकार द्वारा जो योजना जिनके हित में लाई गई उन तक ही जानकारी नहीं पहुँच पाई।

कोरोना की तीसरी लहर को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हस्त शिल्प कारीगरों को अतिरिक्त सहायता के तौर पर हर माह पाँच सौ देने की बात कही थी जबकि यह सेक्टर भारी आर्थिक संकट से जूझ रहा है तो पाँच सौ रुपये किसी मजाक से कम नहीं लेकिन फिर भी जैसा मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी क्या वह वादा पूरा हुआ, इस पर जीशान कहते हैं पैसा तो नहीं आया खाते में। वे बताते हैं कोरोना की पहली लहर के समय केवल दो बार पाँच सौ आया था बस उसके बाद फिर कभी नहीं आया।

लखनऊ शहर के बाद अन्य कारीगरों से मिलने मैं लखनऊ से सटे गाँव बरगदी मंगठ पहुँची। सबसे पहले ज़रदोजी के कारीगर आज़ाद हुसैन के घर जाना हुआ। इत्तफ़ाक़ से आज़ाद घर पर ही मिल गए जो बड़ी शिद्दत से अपने काम में लगे हुए थे। पचास साल के आज़ाद हुसैन 40 सालों से इस काम से जुड़े हैं। वे कहते हैं जब मात्र दस साल के थे तो काम सीखने के लिए अड्डे पर बैठ जाया करते थे बस तब से शुरू हुआ यह सिलसिला आज तक जारी है। आज़ाद के दो बेटे भी ज़रदोजी का काम करते हैं। जीशान की तरह वह भी इस पेशे की दिक्कतें बयाँ करते हैं। ज़रदोजी के कारोबार में घाटे, मुनाफ़े के सवाल के जवाब में वे कहते हैं यकीन मानिए पहले ऐसा वक्त था कि कभी यह सोचा ही नहीं जाता था कि इस कारोबार में हमें ऐसा घाटा झेलना पड़ेगा कि एक दिन अड्डे बंद करने तक की नौबत आ जायेगी।

आजाद हुसैन कपड़ों पर कढ़ाई करते हुए

ठंडी साँस भरते हुए वे कहते हैं अब आप समझ सकते हैं मैं क्या कहना चाहता हूँ यानी पहले लागत से अधिक मुनाफ़ा मिल जाया करता था इसलिए अड्डे मालिक से लेकर कारीगर तक सब खुशहाल थे। लेकिन जैसे-जैसे मशीनीकरण के दौर ने जोर पकड़ा हाथों की कारीगरी की माँग कम होती चली गई और आज हालात यह हो चले हैं कि इन हस्तशिल्प कलाओं को बचाने के लिए सरकार चिन्ता भले ही जताती हो लेकिन कोई ठोस प्रयास करती नज़र नहीं आती। वे कहते हैं दिनभर का मेहनताना कुल जमा डेढ़ सौ से दो सौ रुपये बस, हम कारीगरों की हालत तो यह है रोज कुआं खोदो रोज पानी पीओ, आँख खराब-सेहत खराब सो अलग और अपना ही पैसा लगाकर तैयार कपड़े को पहुंचाने जाओ। वे हिसाब जोड़कर कहते हैं दो सौ रुपये तो किराया ही खा जाता है।

आज़ाद ने बताया कुछ महीने पहले उन्होंने तंग आकर इस पेशे को छोड़कर साइकिल में फेरी लगाकर कपड़े बेचने का काम पकड़ लिया था लेकिन अब इस उम्र में इतनी दौड़ भाग नहीं हो पाती सो दोबारा कपड़े पर अंगुलियाँ चलाने लगे। उन्होंने भी राज्य सरकार की ओडीओपी योजना की जानकारी न होने की बात कही और बताया कि कोरोना की तीसरी लहर के दरम्यान जो हर महीने पाँच सौ रुपये खाते में आने थे उसकी एक भी किस्त नहीं आई, ई श्रम कार्ड पर भी कोई पैसा नहीं आया। वे कहते हैं बस नाम के कारीगर रह गए। आर्थिक तंगी इतनी कि बच्चों को ज्यादा तालीम तक नहीं दिलवा पाये।

 आज़ाद हुसैन से अलविदा लेकर अब बारी थी चिकनकारी के कारीगरों से मिलने की। चिकनकारी का काम अधिकांशतः महिलाएँ करती हैं। इस गाँव में भी ऐसी ही तीन चिकनकारी की महिला कारीगरों से मुलाक़ात हुई। तो सबसे पहले बात करते हैं रुखसार की। रुखसार के घर पहुंचने पर देखा कि वह भी एक फ्रॉकनुमा टॉप पर चिकनकारी करने में व्यस्त थीं। रुखसार कहती हैं बस अब जल्दी ही इसे पूरा करके दे देना है ताकि दूसरा पीस उठा सकें। पूरा कपड़ा कढ़ाई से भरा हुआ था। रुखसार ने बताया कि इस पीस को पूरा करने में आठ से दस दिन लग जायेंगे तब जाकर 120 से 150 रुपये हाथ आएंगे उस पर भी कभी-कभी कोई कमी निकाल कर पीस वापस कर दिया जाता है उसे दोबारा सुधारने के लिए, बमुश्किल महीने में पांच सौ की कमाई ही हो पाती है। रुखसार के पति मजदूरी करते हैं और रुखसार चिकनकारी। दो बच्चे हैं। वे कहती हैं इतने छोटे परिवार का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो जाता है लेकिन अगर वे काम नहीं करेंगी तो घर कैसे चलेगा। सरकार की योजना के बारे में वह कहती हैं, आज तक हमारा राशन कार्ड, आधार कार्ड, ई श्रम कार्ड तक तो बन नहीं पाया तो योजना के लाभ की तो बात दूर की रही।

कढ़ाई का काम करतीं रुखसार।

रुखसार के बगल वाले घर में रूबी से मुलाक़ात हुई। आर्थिक तंगी और पिता के इन्तकाल के बाद रूबी को आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी और बेहद कम उम्र में ही काम पर लग जाना पड़ा। घर खर्च चलाने के लिए रूबी के साथ उसकी अम्मी, और तीन छोटी बहनें भी चिकनकारी का काम करती हैं। अपना पीस दिखाती हुई वो कहती है देखिए दीदी कम से कम इस एक पीस में पंद्रह दिन लग जायेंगे और हमारे हाथ में आएगा कभी 120,150 और कभी कभी तो मात्र 100 ही लेकिन यही पीस बाज़ार में जाकर हजार, डेढ़ हजार का बिकेगा, बेचने वाले और खरीदने वाले कभी ये सोच पायेंगे कि इस एक पीस में कारीगर का कितना खून पसीना लगा है और तब भी वह बदहाल है।

रूबी अपनी कढ़ाई का कपड़ा दिखाती हुई

रूबी कहती है न तो हमारे तक कभी कोई ऐसी सरकारी योजना का लाभ पहुँच पाया जो हमारे लिए ही चलाई गई हो और न कभी हमें इसकी जानकारी ही मिल पाई। रूबी के घर से लौटते रास्ते में चाय नाश्ते का एक छोटा सा ढाबा मिला जो मिनाज़ चलाती हैं। ढाबा चलाने से पहले मिनाज चिकनकारी का काम करती थीं लेकिन उसमें अच्छी आमदनी न होने के चलते अब मिनाज ने लगभग चिकनकारी का काम छोड़ दिया। वे कहती हैं रात दिन आँख खराब करके कढ़ाई का काम करो और मिलता क्या है न के बराबर, इसलिए अब उन्होंने चिकन कारी का काम छोड़ कर ढाबा चलना ही बेहतर समझा। हालांकि मिनाज़ कहती हैं हाथ का हुनर भी बचा रहे इसलिए कभी कभी चिकनकारी का काम कर लेती हूँ लेकिन अब ज्यादा वक्त ढाबे को ही देती हूँ। मिनाज़ के पति भी मजदूर हैं। दो बच्चे हैं जो सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं।

मिनाज को कढ़ाई छोड़कर खोलनी पड़ी चाय की दुकान

क्या है यह ओडीओपी योजना

उत्तर प्रदेश सरकार की महत्त्वाकांक्षी “एक जनपद – एक उत्पाद” कार्यक्रम का उद्देश्य था कि उत्तर प्रदेश की उन विशिष्ट शिल्प कलाओं एवं उत्पादों को प्रोत्साहित किया जाए जो देश में कहीं और उपलब्ध नहीं हैं, जैसे प्राचीन एवं पौष्टिक कालानमक चावल, दुर्लभ एवं अकल्पनीय गेहूँ डंठल शिल्प, विश्व प्रसिद्ध लखनऊ की चिकनकारी, कपड़ों पर ज़री-जरदोज़ी का काम, मृत पशु से प्राप्त सींगों व हड्डियों से अति जटिल शिल्प कार्य जो हाथी दांत का प्रकृति–अनुकूल विकल्प है इत्यादि। इनमें से बहुत से उत्पाद जी.आई. टैग अर्थात भौगोलिक पहचान पट्टिका धारक हैं। ये वे उत्पाद हैं जिनसे स्थान विशिष्ट की पहचान होती है।

इस योजना का आरम्भ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्य नाथ द्वारा 24 जनवरी 2018 को किया गया। इस योजना को लाकर कहा गया था कि इसके अंतर्गत राज्य के प्रत्येक जिले का अपना एक प्रोडक्ट होगा, और यह प्रोडक्ट उस जिले की पहचान बनेगा। न केवल प्रोडक्ट जिले की पहचान बनेगा बल्कि इसके कारीगरों की भी आर्थिक हालात सुधरेंगे और उन्हें अपना कारोबार खड़ा करने में आर्थिक सहायता भी मिलेगी। तब इस ओर सरकार ने चिन्ता जताते हुए कि कारीगर अपने पुश्तैनी काम को न छोड़ें और ये हस्तशिल्प कलायें भी जीवित रहें, योगी सरकार ने इस दिशा में बहुत कुछ करने की बात कही थी लेकिन इस योजना के आने के बाद भी हालात बेहतर होते नज़र नहीं आते।

कोरोना की मार ने रहा सहा काम भी खत्म कर दिया। ये तमाम करीगर कहते हैं अब तो इस कोरोना काल में जितने का भी काम मिल जाये ले लेते हैं पेट भी पालना है। बिचौलियों के भी जेब में पैसा जाता है तो कारीगर के पास आते आते वो पैसा आधा ही रह जाता है। इन कारीगरों के हालात जानने के बाद यह रुख सामने आया कि इनके लिए कभी सरकारों की ओर से कोई रेट तय नहीं किया गया इसलिए मेहनताने के नाम पर इनका शोषण होता रहा। चूँकि यह असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं इसलिए कभी इनके बारे में नहीं सोचा गया।

तंजीम और आज़ाद ने बाताया कि पहले कारीगरों के हक़ में बात करने के लिए यूनियन्स हुआ करती थीं तो इतना शोषण नहीं था लेकिन जब इन यूनियनों की भी सुनवाई बंद हो गई तो धीरे धीरे यूनियन्स भी खत्म होती चली गईं। वे कहते हैं सच कहिये तो आज तक किसी सरकार ने चिकन या ज़रदोजी कारीगरों के हित में सोचकर ऐसी कोई योजना नहीं बनाई जिसके तहत कारीगरों का हेल्थ कार्ड बन जाए या उनका  जीवन बीमा हो जाये और इस समय तो हालात और खराब होते चले गए।

इन कारीगरों से मिलकर और इनके हालात जानकर मन पीड़ा से भर उठा। इन्हीं के द्वारा सँवारे गए कपड़े जब हस्तशिल्प प्रदर्शनियों की शान बनते हैं तो प्रदेश का नाम चमक उठता है लेकिन उस प्रदेश को शिखर की तालिका तक पहुंचाने वाले इन कारीगरों का जीवन किन मुश्किलों से गुजर रहा है यह ख्याल किसी के जेहन में शायद ही आये। पर यह सोचना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि कलाकारों के जीवन को बचा कर ही वह किसी कला को जीवित रख पाऐगी तो जब इसके हित में योजनायें लाई जायें तो उन्हें ईमानदारी से लागू भी किया जाये।

(लखनऊ से स्वतंत्र पत्रकार सरोजिनी बिष्ट की रिपोर्ट।)

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