Tuesday, April 16, 2024

आस्ट्रेलिया का वह बैनर और हमारा अदृश्य नवजागरण-सोया आत्मबोध

इन दिनों हमारे एक मित्र आस्ट्रेलिया गये हुए हैं। उनका बेटा वहीं रहता है। हाल ही में उन्होंने मुझे वहां की एक तस्वीर भेजी। यह बिल्कुल साधारण सी है। इसमें हमारे मित्र या उनके परिवार के किसी सदस्य का चेहरा नहीं है। शहर की भव्यता और समंदर की विशालता भी नहीं है। इसमें सुंदर-साफ बाजार, अच्छे सुस्वादु भोज्य पदार्थों से भरे रेस्तरां, म्यूजियम और चिड़ियाघर भी नहीं हैं। इस तस्वीर में सड़क-किनारे एक खम्भे पर टंगा हुआ एक विशाल बैनर है। ठीक उसी तरह जैसे हमारे यहां नेताओं और दलों के प्रचार वाले बड़े-बड़े बैनर-होर्डिंग लगे होते हैं। लेकिन इस बैनर पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हैः

RACISM NOT WELCOME. सिडनी और आस्ट्रेलिया के अन्य इलाकों में भी नस्लभेद के खिलाफ ऐसे बड़े-बड़े बैनर, होर्डिंग्स और पोस्टर लगे हुए हैं। यूरोप के भी कुछ देशों में ऐसे बैनर यदा-कदा दिख जाते हैं।

एक दौर में अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोप के कुछ हिस्सों में नस्लभेद बहुत भयावह था। अमेरिका और आस्ट्रेलिया में तो नस्ली हिंसा भी खूब होती थी। आस्ट्रेलिया में यूरोपीय श्वेत लोगों का आना सत्रहवीं सदी में शुरू हुआ। पहले डच और फिर ब्रिटिश लोग यहां आये। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यहां ब्रिटेन आदि से लाकर अंग्रेजों को बसाने का सिलसिला चलता रहा। इनके आने से पहले आस्ट्रेलिया कई जाति-समूह के मूलवासियों का ठिकाना था। 40 से 60 हजार साल पहले से इन मूलनिवासियों के यहां रहने के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। आस्ट्रेलिया में बसाये जा रहे नये लोगों ने महाद्वीप के कई इलाकों में मूलवासियों को निर्दयतापूर्वक मारा और बचे हुए लोगों को सुदूर के जंगलों की तरफ धकेल दिया।

लगभग एक दशक पहले की बात है। एक पत्रकारीय-एसाइनमेंट पर मैं आस्ट्रेलिया गया। हमारा दौरा पश्चिम आस्ट्रेलिया तक केंद्रित था। अपने उस दौरे में मैने स्वयं भी ऐसे कुछ क्षेत्रों में जाकर नस्लभेद के इतिहास की जानकारी ली। पश्चिम आस्ट्रेलिया का रॉटनेस्ट द्वीप ऐसी हिंसा के लिए बेहद कुख्यात था। सन् 1822 से 1903 के बीच रॉटनेस्ट में भयानक हिंसा हुई और यहां के मूलवासियों के बड़े हिस्से को मौत के घाट उतार दिया गया। रॉटनेस्ट द्वीप में अवस्थित उन यातनागृहों के अवशेषों को भी मैंने देखा, जहां ब्रिटेन से लाये गये खुराफाती किस्म के श्वेत लोग पश्चिम आस्ट्रेलिया मूल के वासियों को मारते-पीटते थे। मारपीट कर उन्हें कालकोठरियों में तब तक बंद रखा जाता था, जब तक वे मर न जाएं!

पर वही आस्ट्रेलिया भारी हिंसा, संघर्ष-आत्मसंघर्ष और आत्मबोध के बाद अपेक्षाकृत सभ्य, समृद्ध और विकसित समाज व देश बना। मारे गये मूल निवासियों के बड़े हिस्से को वापस तो नहीं लाया जा सकता था पर हमलावरों के वंशजों ने सामूहिक रूप से महसूस किया कि उनके पूर्वजों ने यहां के मूल लोगों के साथ बहुत बुरा किया। उन्होंने निर्दोष और मासूम लोगों पर बहुत जुल्म ढाये थे। यह बात खासतौर पर उल्लेखनीय है कि आस्ट्रेलियाई शासन औेर समाज ने अतीत के उन गुनाहों को अपने देश के इतिहास से मिटाया नहीं, जैसा अपने देश में अक्सर होता रहता है।

उन्हें किताबों, स्मृतिलेखों और स्मारकों में दर्ज किया गया और वे आज भी दर्ज हैं ताकि आस्ट्रेलियाई समाज हमेशा अपने ‘श्वेत पूर्वजों’ के गुनाहों से सबक लेता रहे और कभी नस्लभेद और नस्ली हिंसा के बारे में न सोचे। बाहर से आस्ट्रेलिया आने वाले लोगों से भी वे आज यही अपेक्षा करते हैं। इसीलिए आस्ट्रेलिया के शहरों-कस्बों के इर्द-गिर्द ये बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर लगाये जाते हैं। शासन की बागडोर दक्षिणपंथियों के हाथ में रहे या अपेक्षाकृत लिबरल्स के हाथ में, शासन का यह नज़रिया बरकरार रहता है। 

अमेरिका हो या आस्ट्रेलिया या यूरोपीय देश, इनमें नस्लभेद की छिटपुट घटनाएं आज भी होती रहती हैं। मई, 2020 में अमेरिका के एक प्रमुख शहर में जॉर्ज फ्लायड नामक अफ्रीकी-मूल के एक अमेरिकी नागरिक की जिस तरह स्थानीय पुलिस के एक अधिकारी डेरेक ने दबोचकर हत्या की, वह खबर अमेरिका सहित पूरी दुनिया में लंबे समय तक छायी रही और इसने अमेरिकी राजनीति को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया। हत्यारे डेरेक को बेहद कड़ी और लंबी जेल-सजा सुनाई गयी। अमेरिका या यूरोप में ऐसी घटनाएं अपनी भयावहता के कारण पूरी दुनिया में चर्चा और चिंता का विषय बन जाती हैं। हत्यारों या हमलावरों की फौरन गिरफ्तारी होती है, उन्हें सजा सुनाई जाती है और समाज उन्हें कोसता है। पर हमारे यहां क्या होता है? दलितों-आदिवासियों या उत्पीड़ित समाज के अन्य लोगों के हत्यारों-उत्पीड़कों को बहुत आराम से छोड़ दिया जाता है या मामूली सजा सुना दी जाती है। समाज उन घटनाओं के प्रति जागरूक नहीं होता।

अनेक मामलों में समाज के उच्चवर्णीय लोगों का दबंग हिस्सा हत्यारों या उत्पीड़कों के साथ खड़ा दिखता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के एक नृशंस हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच के लिए जब कुछ मानवाधिकारवादियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई तो फैसला याचिका-कर्ताओं के ही खिलाफ आ गया और उनमें एक हिमांशु कुमार पर जुर्माना तक ठोक दिया गया। तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में भी ऐसा ही हुआ। अल्पसंख्यकों को न्याय दिलाने की उनकी कोशिश ने उन्हें जेल पहुंचा दिया। भीमा कोरेगांव अदालती मामले में गिरफ्तार ज्यादातर लोग उत्पीड़ित तबकों के हमदर्द हैं। वे न्याय के पक्षधर हैं। पर उन्हें षड्यंत्र के तहत फंसाकर जेल में डाल दिया गया।

सन् सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान बिहार में उत्पीड़ित समाज के लिए आवाज उठाने और संघर्ष करने वालों की नृशंस हत्याएं तक की गईं। मध्य बिहार में उत्पीड़तों के बड़े नेताओं को मार डाला गया। अपने यहां हाल के वर्षों में जिस तरह भीड़ द्वारा हत्याएं(Mob Lynching) की गई हैं, उन्हें लेकर सत्ता, समाज और नौकरशाही में क्या रवैया देखा गया? सच ये है कि सत्ता, समाज और तंत्र के संचालकों ने ऐसी घटनाओं को सिरे से खारिज नहीं किया। सत्ताधारी दल के नेताओं को हत्यारों का महिमामंडन तक करते देखा गया। जमानत या पैरोल पर रिहा होने वाले ऐसे हत्यारों का ऐसे कुछ नेताओं ने फूल-माला से स्वागत किया।

हाल ही में गुजरात की बिल्किस बानो के बलात्कारियों और उसके परिजनों के सजायाफ्ता-हत्यारों को शासन ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जेल से रिहा करने का आदेश जारी कराया। स्वयं केंद्र सरकार ने उसे मंजूरी दी। नफरती हमलों और हत्या की संस्कृति के पक्ष में उतरने की ऐसी स्थितियां सिर्फ कुछ अफ्रीकी देशों में देखी जा सकती हैं। यही कारण है कि हमारे यहां नफरती हमलों, हिंसा की घटनाओं और जाति-वर्ण आधारित दमन-उत्पीड़न की संस्कृति का खात्मा नहीं हो रहा है। वह नये सिरे से पनप रही है।  

लेकिन अमेरिका, यूरोप या आस्ट्रेलिया के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वहां सत्ता हो या समाज नस्लभेद या नस्ली-हिंसा के खिलाफ अभियान चलाने को लेकर सर्वसम्मति है। हमारे यहां जाति-वर्ण आधारित हिंसा और सांप्रदायिक नफरत के खिलाफ चौतऱफा अभियान चलाने की सत्ता और समाज में व्यापक सहमति भी नहीं बन सकी है। हमारे समाज का यह कड़वा किन्तु बड़ा सच है।

सिडनी के पास लगे ऐसे बड़े-बड़े बैनर/होर्डिंग इस बात की पुष्टि करते हैं कि वहां का प्रशासन और राजनीतिक तंत्र अपने मुल्क को नस्लभेद से मुक्त रखना/करना चाहता है।

क्या भारत के शासन, नौकरशाही और समूचे तंत्र के बारे में भी ऐसा सोचा जा सकता है? क्या भारत, खासकर उत्तर के हिंदी-भाषी क्षेत्रों में समाज, सत्ता और समूचे तंत्र को चलाने और नियंत्रित करने वाली शक्तियां जाति-विद्वेष, नफ़रती हिंसा, सांप्रदायिकता, मनुवादी व वर्णवादी विचार और आचरण के विरूद्ध जनता और समाज में ऐसा अभियान चलायेंगी? यहां तो वर्णों, धर्मों और यहां तक कि उपासना-स्थलों के नाम पर भी हिंसा और नफ़रत का खौफनाक सिलसिला जारी है। आश्चर्य होता है कि सदियों से जारी यह सिलसिला थमता क्यों नहीं? आखिर, भारतीय समाज, खासकर उत्तर का हिंदी भाषी क्षेत्र इस कदर जड़ता का शिकार क्यों है? ऐसा पागलपन क्यों है? उसे आत्मबोध क्यों नहीं होता? इसकी जड़ें कहां और किधर हैं? हमारा नवजागरण कब होगा, कब जागेगा आत्मबोध?

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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