Thursday, April 25, 2024

ग़रीबों को लूटकर ग़रीबों का कल्याण

हमें एनडीए सरकार की इस चालाकी की प्रशंसा करनी चाहिए, जिस तरह से उसने टैक्स वसूलने, कल्याणकारी मदद और अपने लिए वोट जुटाने के काम को आपस में जोड़ने का एक तरीका खोजा है। यह तरीका भी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की तरह ही चालाकी भरा है, जिसमें सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपने फायदे के लिए सांठगांठ वाले पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म), भ्रष्टाचार और चुनावी फंडिंग को इस तरह से जोड़ा गया है कि जाहिरा तौर पर किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं होता है।

पहली तिकड़ी की बात करते हैं: टैक्स वसूलना, कल्याणकारी मदद और अपने लिए वोट जुटाना। 2019 में फिर से चुने जाने के तुरंत बाद, मोदी सरकार ने जीडीपी वृद्धि की मुख्य आवश्यकताओं—सुधारों, अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन और निजी निवेश को, तथा रोजगार सृजन और ग़रीबी कम करने के लक्ष्य को व्यावहारिक रूप से तिलांजलि दे दिया। यह एक श्रमसाध्य कार्य था जिसके लिए ठोस आर्थिक प्रबंधन की आवश्यकता थी। इसके बजाय, सरकार ने लोकप्रिय समर्थन हासिल करने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग खोजा: लोककल्याणवाद। इस नई नीति के लिए कोविड -19 के आगमन ने एक आर्थिक औचित्य प्रदान किया। (यह अलग बात है कि सरकार द्वारा किये गये कल्याणकारी उपाय अपनी नौकरी खो चुके लोगों, बंदी के लिए मजबूर कर दिये गये छोटे और मझोले उद्योगों, और बीमारों तथा बुजुर्गों की न्यूनतम जरूरतों के मामले में बिल्कुल नाकाफी साबित हुए और इन मामलों में सरकार बिल्कुल विफल साबित हुई।)

अन्यायपूर्ण टैक्स नीति

मोदी सरकार ने कल्याणकारी कार्यों के राजनीतिक और चुनावी फायदे हासिल करने के मामले में फुर्ती दिखायी। लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह था, कि ‘इन खर्चों का बोझ किसके सर पर आना चाहिए था’?

यह विचार इस सरकार की एक मौलिक सूझ था कि जिन गरीबों को इन लोक-कल्याणकारी उपायों से लाभ मिलना चाहिए था, खुद उन्हीं से उनका खर्च भी वसूला जाए! किसी समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज में, सरकार ने अमीरों और कॉरपोरेट घरानों से अधिक भुगतान करने को कहा होता ताकि सरकार नए कल्याणकारी उपायों को धन उपलब्ध करा सके। मोदी सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत काम किया: उसने कॉर्पोरेट टैक्स की दर को घटाकर 22-25 प्रतिशत कर दिया और नए निवेश के लिए यह दर उदारतापूर्वक कम करते हुए मात्र 15 प्रतिशत कर दिया। दूसरी तरफ इसने व्यक्तिगत आयकर की दर को उच्चतम 30 प्रतिशत पर बनाये रखा, साथ ही इस कर पर 4 प्रतिशत का शिक्षा और स्वास्थ्य अधिभार भी बनाए रखा। संपत्ति कर समाप्त कर दिया गया था और विरासत कर पर विचार भी नहीं किया गया था।

सरकार के राजस्व का मुख्य स्रोत जीएसटी और ईंधन पर टैक्स थे। ईंधन पर टैक्स के रूप में तो  सरकार को एक सोने की खान मिल गयी। सरकार को यह भी महसूस हुआ कि उसे इस सोने के खनन के लिए मेहनत भी बिल्कुल नहीं करनी पड़ती है: करदाता खुद ही इस सोने का खनन करेंगे और हर दिन हर मिनट सरकार को सौंपते रहेंगे!

जबरन वसूली वाली दरें

मोदी सरकार के सत्ता संभालने के समय पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क की दरों और आज की दरों और आवश्यक ईंधन की क़ीमतों की तुलना करें:

सबसे बड़ी बात कि उपभोक्ताओं से इतनी ऊंची क़ीमतें तब भी जबरन थोपी गयीं, जब कच्चे तेल की कीमतें मई 2014 की 108 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल तो क्या, उसके आसपास भी नहीं थीं। पिछले तीन वर्षों (2019-2021) में कच्चे तेल की औसत क़ीमत लगभग 60 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल ही रही है।

केंद्रीय राजस्व में पेट्रोलियम क्षेत्र के टैक्स का हिस्सा दिमाग चकरा देने वाला  है:

गरीब रोज टैक्स भर रहे हैं

इनमें से अधिकांश राशि का भुगतान उन किसानों द्वारा किया गया जिनके पास डीजल पंप सेट और ट्रैक्टर हैं,  और दोपहिया वाहन और कार चलाने वालों, ऑटो और टैक्सी चालकों, यात्रियों और गृहिणियों से भी यह वसूली की गयी है। 2020-21 के दौरान, जब लाखों उपभोक्ताओं ने केंद्र सरकार को ईंधन टैक्स के रूप में 4,55,069 करोड़ रुपये (और इसके अलावा राज्य सरकारों को 2,17,650 करोड़ रुपये) का भुगतान किया, तो उसी बीच सिर्फ 142 अरबपतियों की संपत्ति 23,14,000 करोड़ रुपये से बढ़ कर 53,16,000 करोड़ रुपये हो गयी।

सिर्फ एक साल में यह 30,00,000 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी है!

केंद्र सरकार ने गरीबों और मध्यम वर्ग पर कर लगाने और इस तरह भारी मात्रा में धन उगाही करने के बाद, उसी पैसे का इस्तेमाल उनकी ‘अतिरिक्त कल्याणकारी मदद’ करने के नाम पर किया! और 2020 से अतिरिक्त ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ (डाइरेक्ट बेनेफिट ट्रांस्फर) के रूप में उन्हें कितना दिया गया? हम इस शुद्ध नगद स्थानांतरण पर कुल खर्च को जोड़ सकते हैः मुफ्त खाद्यान्न (दो साल का मिला कर 2,68,349 करोड़ रुपये), महिलाओं को एकमुश्त नकद भत्ता (30,000 करोड़ रुपये), किसानों को सालाना 6,000 रुपये (वार्षिक बिल 50,000 करोड़ रुपये) और कुछ अन्य अलग-अलग तरह के खर्च। इन नगद हस्तांतरणों पर वार्षिक व्यय 2,25,000 करोड़ रुपये से अधिक नहीं था, जो कि अकेले केंद्र सरकार द्वारा उगाही किए गए वार्षिक ईंधन टैक्स से भी कम है।

इसीलिए मैं कहता हूं कि सरकार द्वारा गरीबों के लिए की जा रही कल्याणकारी मदद का मतलब है कि गरीब अपनी इस मदद का बोझ खुद उठाये! जबकि इसी बीच, अरबपतियों की संख्या और उनकी टैक्स-रहित संपत्ति छलांगें लगाते हुए कई गुना बढ़ती जा रही है।

(इंडियन एक्सप्रेस में पी. चिदंबरम का लेख, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद- शैलेश)

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