इंसान होने की खूबी यह है कि वह ज़ुल्म के हद से ज्यादा बढ़ने के बाद भी समर्पण नहीं करता, बल्कि प्रतिरोध को और तेज करता है और इसके नए-नए तरीके ढूंढता, तलाशता रहता है। कई बार, किसी निजी पहल के साथ सुझाए गए तरीके और किए गए आह्वान भी बिजली की रफ्तार से दुनिया भर में फैल जाते हैं। गाज़ा के एक डॉक्टर एजिदीन द्वारा किया गया फिलिस्तीन, और खास तौर से गाज़ा के नागरिकों पर थोपे गए नरसंहार की असहनीय पीड़ा के विरुद्ध एक सप्ताह तक आधा घंटा मोबाइल और इंटरनेट बंद करने का पैगाम इसी तरह का आह्वान था।
दुनिया के अनेक देशों की जनता ने इसे जिस प्रभावी तरीके से व्यवहार में उतारा, वह न केवल गाज़ा के प्रति वैश्विक चिंता और एकजुटता का प्रतीक है, बल्कि इस भयानक नरसंहार के शरीक-ए-जुर्म की शिनाख्त कराने की एक असरदार मुहिम का भी उदाहरण है। विश्व के अनेक संगठनों, दलों, आंदोलनों ने इस आह्वान को अपना आह्वान बनाया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने भी इसे न केवल समर्थन दिया, बल्कि लाखों-करोड़ों हिंदुस्तानियों ने 6 जुलाई से 12 जुलाई तक हर रोज़ शाम 9 बजे से 9:30 बजे तक अपने मोबाइल और इंटरनेट बंद रखकर इसे असाधारण रूप से सफल भी बनाया।
यह किस तरह महज़ एक प्रतीकात्मक कार्यवाही नहीं थी, बल्कि एक बहुआयामी प्रभाव डालने वाला प्रतिरोध था, इस पर आने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि गाज़ा पर बोलना और उसके साथ खड़ा होना क्यों ज़रूरी है। गाज़ा पर बोलने के लिए डिजिटल रूप से आधा घंटा मौन रहना क्यों आवश्यक है।
निस्संदेह, एक अत्यंत छोटे, केवल 365 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले नन्हे से गाज़ा में पिछले 20 महीनों से जो नरसंहार हो रहा है, वह मानवीय प्रश्न है। 7 अक्टूबर 2023 से हमास के कथित हमले के बाद गाज़ा पर इजरायली हमलों में मारे गए निर्दोष नागरिकों की संख्या के अनुमान 57 हजार से लेकर 61 हजार के बीच हैं। महज़ 24 लाख से भी कम आबादी वाले इस छोटे से इलाके में इतनी सारी मौतें आधुनिक समाज का सबसे वीभत्स नरसंहार है। इन मारे गए लोगों में दो-तिहाई से अधिक या तो बच्चे हैं या महिलाएँ। अब तक के इतिहास के सबसे दुष्ट राज्य इजरायल ने बर्बर बेंजामिन नेतन्याहू की अगुआई में इस नरसंहार के लिए जो तरीके अपनाए हैं, वे सभ्य समाज ही नहीं, समूची मानवता को स्तब्ध करने वाले हैं।
सारे अंतरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए बच्चों के स्कूलों पर उस समय बम गिराए गए, जब वे पढ़ रहे थे। अस्पतालों पर बमबारी करके उन्हें मरीजों और डॉक्टरों की कब्रगाह बना दिया गया। रेड क्रॉस, विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी तटस्थ संस्थाओं द्वारा भेजी जाने वाली दवाओं की खेप रोक दी गई। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा ले जाई जा रही दवाओं और राहत सामग्री को रास्ते में ही रोककर उन्हें ले जाने वालों को गिरफ्तार कर लिया गया-इनमें पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग भी शामिल थीं।
बर्बरता की हद यह थी कि भोजन और राहत सामग्री बाँटे जाने का ऐलान करके पहले लोगों को इकट्ठा किया गया और फिर उन्हें निशाना बनाकर मिसाइल दागकर मार डाला गया। जाहिर है कि इनमें 90 प्रतिशत से अधिक भूखे बच्चे और महिलाएँ थीं। इसलिए बिलाशक गाज़ा एक मानवीय प्रश्न है; मगर यह सिर्फ़ मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला मसला ही ResizedImage. png ही नहीं है। यह इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और खतरनाक कांड है।
गाज़ा के साथ जो हो रहा है, वह कई हजार वर्षों में हासिल उन सारे कानूनों और मर्यादाओं को ध्वस्त करने वाला है, जिन्हें बीसियों करोड़ इंसानों की मौत के बाद मानव समाज ने हासिल किया है। इसने प्रथम विश्व युद्ध के बाद बनी लीग ऑफ नेशन्स, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने संयुक्त राष्ट्र संघ की दुनिया को कुछ नियमों से चलाने की समझदारी को ही उलट दिया है।
पौराणिक काल से सिकंदर से होते हुए युद्ध की उन सारी सीमाओं को मिटा दिया है, जिनमें स्त्रियों, बच्चों, नागरिकों को हमलों से अलग रखने की धारणा विकसित होकर आई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने पूरे इतिहास में जितने प्रस्ताव इजरायल की करतूतों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ पारित किए हैं, उतने किसी और मामले में नहीं किए।
संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में अब तक करीब 700 बार और सुरक्षा परिषद में कोई 60 बार फिलिस्तीन की समस्या को लेकर, इजरायल के जबरिया कब्जे को हटाने के लिए, उसके नरसंहार की निंदा करने के लिए प्रस्ताव पारित हुए हैं। इन प्रस्तावों पर जब-जब वोटिंग हुई है, तब-तब ज्यादातर मामलों में इजरायल के पक्ष में सिर्फ़ एक वोट पड़ा है और यह वोट अमेरिका का रहा है।
इस बार के हमलों में भी मुट्ठी भर छोटे-मोटे देशों को छोड़कर किसी ने-यहाँ तक कि नाटो के सदस्य और अमेरिका के पिछलग्गू देशों ने भी-इजरायल का साथ नहीं दिया। तत्काल युद्धविराम की मांग की। यदि दुनिया को चलाने वाले सारे कानून ही अप्रासंगिक बना दिए जाएँगे, तो जो भेड़िए छुट्टा छोड़ेंगे, वे सिर्फ़ गाज़ा को चींथने तक नहीं रुकेंगे। कोई भी सुरक्षित नहीं बचेगा। इसलिए गाज़ा का सवाल सिर्फ़ गाज़ा का सवाल नहीं है, पृथ्वी पर रहने वाले हर मनुष्य और ख़ुद पृथ्वी के भविष्य की सलामती का सवाल है।
जिस आधार पर पिछले 75 वर्षों से इजरायल का यहूदीवादी निज़ाम फिलिस्तीन को लहूलुहान किए हुए है, उसकी बोटी-बोटी नोंचकर इस ऐतिहासिक राष्ट्र फिलिस्तीन को घटाकर उसके पास अपनी ही ज़मीन का दसवाँ हिस्सा भी नहीं छोड़ा है-वह आधार अगर दुनिया के बाकी दुष्ट राज्यों के लिए भी आधार बन गया, तो फिर भारत सहित कोई भी साबुत-सलामत बचेगा क्या? बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के महज़ यह दावा करके कि कोई चार हजार साल पहले यहूदी धर्म के पैगंबर हज़रत अब्राहम ने यहीं इल्हाम हासिल किया था और इस तरह हजारों साल पहले यह देश हमारा था, फिलिस्तीन पर धावा बोल दिया गया।
इस इलाके को सैकड़ों वर्षों तक गुलाम बनाए रखने वाले ब्रिटेन ने फ्रांस और अमेरिका के साथ मिलकर दबाव बनाया। 1947 में “नए देश” के लिए ज़मीन का एक हिस्सा देने की बात हुई। उस समय यानी 1947 में फिलिस्तीन में फिलिस्तीनी अरब 13 लाख 50 हजार थे और फिलिस्तीनी यहूदी करीब साढ़े छह लाख थे और इनका कब्ज़ा सिर्फ़ 6% ज़मीन पर था। आज यह आँकड़ा उलट चुका है। बित्ता भर ज़मीन बची है और फिलिस्तीनी अपने ही देश में शरणार्थी हैं।
यह कल्पना ही भयावह है कि यदि यह बेतुका आधार दुनिया भर में कब्जे का आधार बन गया तो बचेगा कौन? यदि बौद्ध धर्म को मानने वाले यही तर्क बुद्ध की जन्म और सिद्धि स्थली पर लागू करें तो क्या होगा? यदि बात उससे भी पहले आदिवासी युग तक चली गई तो कहाँ-कहाँ क्या-क्या शेष रहेगा? इसलिए गाजा का सवाल केवल उस छोटे से इलाके तक सीमित नहीं है; यह आने वाली दुनिया का एक ट्रेलर है। यदि इसे पूरी तरह साकार होने दिया गया तो ऐसी फिल्म बनेगी जिसका कोई मध्यांतर नहीं होगा!
यह पहलू इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि युद्ध इजरायल नहीं लड़ रहा; इजरायल कभी नहीं लड़ा। इस छोटे से इजरायल की औकात क्या है, यह हाल ही में ईरान ने मात्र तीन दिन में दुनिया को दिखा दिया। इजरायल अमेरिका और उसके नेतृत्व में चलने वाले साम्राज्यवाद का मोहरा है, जिसे आगे बढ़ाकर ये लुटेरे पहले मध्यपूर्व और फिर समूची दुनिया को अपने खूँटे पर बाँधने का मंसूबा रखते हैं। ट्रूमैन, आइजनहावर, केनेडी, जॉनसन, निक्सन से लेकर फोर्ड, कार्टर, रीगन, दोनों बुश, क्लिंटन, ओबामा और बाइडेन से होते हुए डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका तक, इस मामले में नीति कभी नहीं बदली।
अमेरिका का एजेंडा स्पष्ट रहा है और हालिया संकट बढ़ने के बाद ट्रम्प की दूसरी टर्म में यह कितना खूंखार हो रहा है, यह टैरिफ के बहाने मरोड़ी जाने वाली बाँहों से समझा जा सकता है। भारत के नजरिए से देखें तो ट्रम्प का पाकिस्तान को गले लगाने का रवैया कश्मीर और अन्य सवालों पर कहाँ तक जा सकता है, यह समझने के लिए विदेश नीति का विशेषज्ञ होना जरूरी नहीं है। इसलिए गाजा न केवल हमारा, बल्कि पूरी दुनिया का सवाल है।
यही कारण है कि भारत की जनता हमेशा से इजरायल की बर्बरता के खिलाफ फिलिस्तीनी जनता और उसके मुक्ति आंदोलन के साथ रही है। भारत ने साम्राज्यवाद को भुगता है, इसलिए वह फिलिस्तीनी जनता का दर्द समझता है। गांधी से लेकर कम्युनिस्टों तक, नेहरू से लेकर पटेल, जयप्रकाश नारायण से लेकर चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, वी. पी. सिंह, देवेगौड़ा तक, साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वाली सारी धाराएँ, आपसी तमाम मतभेदों के बावजूद, फिलिस्तीनी जनता के मुक्ति आंदोलन के साथ खड़ी रहीं। यहाँ तक कि वाजपेयी ने भी यही बात कही थी और आधिकारिक रूप से यही नजरिया आज भी है।
भारत वह पहला देश था जिसने फिलिस्तीन को मान्यता दी, उसे संयुक्त राष्ट्र में सदस्य का दर्जा दिलाने का प्रस्ताव रखा और मंजूर करवाया। यासर अराफात की अगुआई वाले फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन से लेकर आज का फिलिस्तीन हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा। केवल वही लोग इजरायल के साथ रहे/हैं, जो तब ब्रिटिश साम्राज्य का चरणवंदन करते टेढ़े हो रहे थे और अब ‘नमस्ते ट्रम्प’ करते-करते औंधे पड़े हैं।
इन्हें इजरायल बहुत भाता है-इतना कि ये दुनिया की कुख्यात हत्यारी एजेंसी मोसाद के साथ भारतीय सुरक्षा में साझेदारी तक करने को तत्पर हो जाते हैं। इजरायल के हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार भारत को बना दिया गया। मोदी के आने के बाद 70 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के खिलाफ आए प्रस्तावों पर भारत तटस्थ रहा। सैकड़ों देश इजरायल की निंदा करते रहे, लेकिन 140 करोड़ की आबादी वाला दुनिया का सबसे बड़ा राष्ट्र कभी ओबामा तो कभी ट्रम्प का मुँह ताकता रहा।
इस बार तो हद ही हो गई जब 12 जून को संयुक्त राष्ट्र में आए युद्धविराम के प्रस्ताव पर भारत ने अल्बानिया, कैमरून, डोमिनिका, किरिबाती, मलावी, तिमोर-लेस्ते, पनामा, मार्शल द्वीप, टोंगा, चेकिया, जॉर्जिया, स्लोवाकिया जैसे नक्शे पर मुश्किल से दिखने वाले देशों के साथ तटस्थ रहने के लिए मतदान किया। इस कुकर्म के बाद झेंप मिटाने के लहजे में संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत बार-बार कहते रहे कि हमारे देश की आधिकारिक नीति फिलिस्तीन को राष्ट्र मानने और उसकी जमीन वापस दिलाने की है। फिर भी यह तटस्थ रुख क्यों? जाहिर है, ट्रम्प के दरबारी बनने की चाहत के सिवा और कोई कारण नहीं हो सकता।
इसी गिरोह ने अपनी जहरीली मुहिम चलाकर आज फिलिस्तीन के मामले में भारत की जनता के बड़े हिस्से को भ्रमित कर दिया है। कुछ धूर्तों ने मिलकर गाजा और फिलिस्तीन को इस्लामोफोबिक चश्मे से दिखाना शुरू कर दिया है, और उनकी भक्तमंडली ने इसे सच मान लिया है। इन्हें नहीं पता कि फिलिस्तीन पर हमलों का किसी धार्मिक विवाद से कोई संबंध नहीं है-यह सीधे-सीधे फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा कर उसे उपनिवेश बनाने की साजिश है।
जिस पूर्वी यरुशलम पर कब्जे के लिए मई 2021 का हमला शुरू हुआ, वह तीन धर्मों से जुड़ा ऐतिहासिक शहर है। उस एक किलोमीटर से भी छोटे दायरे में तीनों धर्मों के जन्म और उनके पैगंबरों से जुड़े महत्वपूर्ण तीर्थ हैं। यहूदी मान्यताओं के अनुसार, अब्राहम यहीं के थे। ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था और ईसाई मान्यताओं के अनुसार, यहीं वे पुनर्जीवित हुए थे।
मक्का और मदीना के बाद इस्लाम का यह तीसरा सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है। इस्लाम की घोषणा यहीं हुई थी और इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, पैगंबर हजरत मोहम्मद यहीं से खुदा के पास गए थे। लेकिन जो लोग अपने देश की साझी और समावेशी विरासत को नहीं जानते, वे दुनिया के बारे में कितना जानेंगे? और पूरी तरह अपराधी हो चुका मुख्यधारा का मीडिया उन्हें कैसे जानने देगा? यही एक मुख्य वजह है कि गाजा के मुद्दे को जनता के बीच ले जाना चाहिए। वामपंथी और सीपीएम यह जानते हैं-उनकी अगुआई में पूरे देश में इस मुद्दे पर हुई लामबंदियाँ इसी दिशा में प्रयास हैं। सप्ताह भर के आधे घंटे के डिजिटल मौन का आह्वान भी इसी दिशा में एक कदम है।
यह डिजिटल मौन, जिसमें आधे घंटे तक सोशल मीडिया और किसी भी ऐप का उपयोग न किया जाए, केवल सांकेतिक प्रभाव ही नहीं डालेगा, बल्कि इसके सामाजिक और आर्थिक असर भी होंगे। सोशल मीडिया और इंटरनेट पर हमारी सक्रियता हमारे डिजिटल पदचिह्न छोड़ती है। यही पदचिह्न बाजार को हमारे घर तक पहुँचने का रास्ता दिखाते हैं। हमारी रुचियों को जानकर वह हमें अपना उपभोक्ता बनाता है। यह डिजिटल मौन उन महाकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को झटका देगा। सवाल सिर्फ आधे घंटे का नहीं है; जो लोग एल्गोरिदम समझते हैं, वे जानते हैं कि लाखों-करोड़ों लोगों का एक साथ आधे घंटे के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया से दूर रहना इनके ताने-बाने में व्यवधान डालकर उसे खंडित करता है। यह इनका सारा साजो-सामान बिगाड़ देता है।
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यही बड़े कॉरपोरेट्स हैं जिन्होंने इजरायल की मदद की और बेदखली व नरसंहार को अपने मुनाफे का जरिया बनाया। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन दल ने “कब्जे की अर्थव्यवस्था से नरसंहार की अर्थव्यवस्था तक” नामक अपनी रिपोर्ट में इसका पर्दाफाश किया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह कॉरपोरेट्स ने इजरायल की फिलिस्तीनियों के विस्थापन और नरसंहार की उपनिवेशवादी परियोजना में पैसा लगाया, अपने धन के दम पर देशों के नेताओं को उनके दायित्वों से दूर रखा और भारी मुनाफा कमाया।
यह रिपोर्ट 48 बड़े कॉरपोरेट खलनायकों को नामजद करती है, जिनमें अमेरिका की दानवाकार कंपनियाँ जैसे माइक्रोसॉफ्ट, अल्फाबेट इंक. (गूगल की मूल कंपनी), और अमेजन शामिल हैं। लगभग 1000 कॉरपोरेट्स के डेटा पर आधारित यह अध्ययन वैश्विक वित्तीय पूँजी के घिनौने और पाशविक चेहरे को उजागर करता है। रिपोर्ट का कहना है कि ये कंपनियाँ न केवल कब्जे से जुड़ी हैं, बल्कि नरसंहार की अर्थव्यवस्था से भी नत्थी हैं।
इस तरह, डिजिटल मौन का यह छोटा और सांकेतिक दिखने वाला प्रतिरोध गाजा के साथ आम इंसान को जोड़ता है और अपराधियों के असली चेहरे को देखने तथा पूँजीवाद के नए रूप की वास्तविकता समझने में मदद करता है।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)