भारत के लोकतंत्र में इमरजेंसी एक ऐसा शब्द है, जो आज भी डर और चिंता पैदा करता है। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई घोषित इमरजेंसी को देश ने भोगा है और आज कई लोग कहते हैं कि मोदी सरकार में एक “अघोषित इमरजेंसी” चल रही है। यह सवाल उठता है कि क्या यह तुलना सही है? आइए सरल भाषा में इस तुलना को गहराई से समझने की कोशिश करते हैं।
घोषित और अघोषित इमरजेंसी में फर्क
सबसे पहले तो हम समझ लेते हैं कि घोषित और अघोषित इमर्जेंसी में क्या अन्तर होता है।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी (1975–77):
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत इमरजेंसी घोषित की। प्रेस की आज़ादी छीन ली गई, लोगों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया और चुनाव स्थगित कर दिए गए।
मोदी सरकार की “अघोषित इमरजेंसी”:
किसी तरह की कानूनी इमरजेंसी घोषित नहीं की गई है, लेकिन बहुत से बुद्धिजीवी कहते हैं कि डर और दबाव का माहौल बना हुआ है। पत्रकारों पर कार्रवाई, विरोधियों पर ईडी और सीबीआई की रेड, सोशल मीडिया पर निगरानी- ये सब लोकतंत्र को अंदर से कमजोर कर रहे हैं।
मीडिया की आज़ादी
इंदिरा के समय:
मीडिया को सेंसर किया गया। अखबारों को खबर छापने से पहले सरकारी मंजूरी लेनी पड़ती थी। कुछ अखबारों ने विरोध में अपने संपादकीय पन्ने खाली छोड़ दिए।
आज के समय :
सीधी सेंसरशिप तो नहीं है, लेकिन मीडिया पर अदृश्य दबाव है। सरकार के आलोचक पत्रकारों को नौकरी से निकाला जाता है या उनके खिलाफ केस दर्ज कर दिए जाते हैं।
उदाहरण के लिए बीबीसी ने मोदी पर डॉक्यूमेंट्री बनाई,तो भारत में उसके ऑफिस पर टैक्स रेड पड़ गई। इसी तरह,पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन को सिर्फ एक रिपोर्टिंग मिशन पर जाते समय जेल में डाल दिया गया।
न्यायपालिका और संस्थाओं की हालत
इंदिरा के दौर में:
न्यायपालिका पर दबाव साफ दिखा। कुछ जजों को पदोन्नति इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि वे सरकार के खिलाफ फैसले दे रहे थे।
आज:
कोर्ट तो खुले हैं, लेकिन संवेदनशील मामलों पर फैसला देने में देरी होती है। संविधान की रक्षा करने वाली संस्थाएं भी कमजोर पड़ी लगती हैं।
उदाहरण के लिए जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद कई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं (हैबियस कॉर्पस) महीनों तक नहीं सुनी गईं इसी तरह, चुनाव आयोग पर भी पक्षपात के आरोप लगते हैं।
विरोध को दबाने के तरीके
इंदिरा के समय:
हज़ारों लोगों को बिना मुकदमा जेल में डाल दिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता कैद में रहे।
आज के दौर में:
बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां तो नहीं होतीं, लेकिन आवाज उठाने वालों को UAPA जैसे कानूनों के तहत जेल में डाला जाता है।
उदाहरण के लिए बिना आरोप सिद्ध हुए 84 वर्षीय फादर स्टैन स्वामी जेल में ही मर गए। इसी तरह छात्र नेता उमर खालिद सालों से जेल में हैं और उन पर मुकदमा शुरू ही नहीं हुआ।
चुनाव और बहुसंख्यकवाद
इंदिरा गांधी ने चुनाव ही टाल दिए थे। मोदी सरकार चुनाव जीतती है, लेकिन विपक्षी नेताओं के खिलाफ एजेंसियों का इस्तेमाल और प्रचार में धार्मिक भावनाएं भड़काना चिंता का विषय है। जैसे कि चुनावी बॉन्ड योजना में बीजेपी को सबसे ज़्यादा चंदा मिला, और यह गोपनीय था।अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया है। इसी तरह,”बुलडोजर नीति” और खास धर्म के लोगों के खिलाफ कार्रवाई के आरोप लगते हैं।
जनता का विरोध और आंदोलनों की आज़ादी
इंदिरा के समय:
आंदोलनों को कुचल दिया गया। नसबंदी जैसे जबर्दस्ती के फैसले लागू हुए।
अब:
आंदोलन तो होते हैं, लेकिन उनके नेताओं पर केस कर दिए जाते हैं, सोशल मीडिया पर बदनाम किया जाता है, या पुलिस कार्रवाई होती है।
उदाहरण के लिए शाहीन बाग़ आंदोलन और CAA विरोधियों पर राजद्रोह और UAPA जैसे कानून लगाए गए। उसी तरह किसान आंदोलन को भी पहले बदनाम किया गया, फिर दबाव में आकर सरकार ने कानून वापस ले लिए।
विचारधारा और डर का माहौल
जहां इंदिरा का शासन निजी सत्ता की रक्षा के लिए था, वहीं मोदी का शासन एक विचारधारा- हिंदुत्व-के विस्तार पर आधारित है। इससे कुछ तबकों में डर और असुरक्षा का माहौल बनता है।
मिसाल के तौर पर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ीं, और कुछ नेताओं ने ऐसे मामलों पर चुप्पी साध ली।इसी तरह,स्कूल की किताबों से मुग़ल इतिहास और वैज्ञानिक विचारों को हटाया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय नजरिया
इंदिरा के समय अंतरराष्ट्रीय आलोचना तीखी थी। मोदी सरकार की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शुरू में बेहतर थी, लेकिन अब सवाल उठने लगे हैं। उदाहरण के लिए फ्रीडम हाउस ने भारत को “आंशिक रूप से स्वतंत्र” घोषित किया। इसी तरह V-Dem संस्था ने भारत को “चुनावी तानाशाही” कहा।
क्या यह तुलना सही है ?
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी खुली और घोषित थी — इसलिए उसकी आलोचना भी खुलकर हुई और चुनाव में हार के बाद लोकतंत्र फिर से बहाल हो गया।
मोदी सरकार की “अघोषित इमरजेंसी” छिपी हुई है — लोग चुप रहते हैं, संस्थाएं डरती हैं, और विरोध करने वालों को बदनाम किया जाता है।
यह इमरजेंसी गोली या ताले से नहीं, बल्कि डर, चुप्पी और प्रोपेगेंडा से चलाई जा रही है। यह लोकतंत्र को धीरे-धीरे खत्म करती है, बिना यह बताए कि अब आप लोकतांत्रिक नहीं रहे।
इमरजेंसी सिर्फ तब नहीं होती, जब संविधान निलंबित हो। लेकिन, कभी-कभी वह तब भी होती है, जब लोग सवाल पूछना छोड़ देते हैं, जब डर सोचने की आज़ादी छीन लेता है, और जब सत्ताधारी नेता की आलोचना ‘देशद्रोह’ मानी जाने लगती है।अगर समय रहते लोकतंत्र की इन विसंगतियों पर नहीं सोचा गया, तो कल शायद सोचने की आज़ादी भी नहीं बचे।
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)