Thursday, April 25, 2024

कृषि कानूनों की वापसी से पंजाब में बदल सकती है राजनीतिक तस्वीर

तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दांव का पिछले एक साल से जारी किसान आंदोलन पर कोई असर नहीं हुआ है। किसानों ने कह दिया है कि वे एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य, बिजली कानून, आंदोलन के दौरान किसानों पर कायम किए गए फर्जी मुकदमों की वापसी जैसे मुद्दों पर भी एकमुश्त फैसला चाहते हैं। यानी इन मुद्दों पर भी सरकार कोई ठोस फैसला लेगी तभी किसान अपना आंदोलन खत्म करेंगे। हालांकि सरकार की तरफ से किसानों के इस रुख पर अभी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन तीन कानूनों की वापसी के फैसले के जरिए कुछ महीनों बाद पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी राजनीति साधने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। तीनों कानून वापस लेने का किसी और राज्य में भले ही असर हो या न हो भाजपा को उम्मीद है कि पंजाब की राजनीति में इसका असर जरूर होगा।

हालांकि पंजाब में भाजपा का कुछ भी दांव पर नहीं है, लेकिन उसका मुख्य लक्ष्य किसी भी तरह कांग्रेस की सत्ता में वापसी रोकना है। अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए वह अपने पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को फिर से अपने साथ ला सकती है और कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह का हाथ भी थाम सकती है। अगर ऐसा होता है तो लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब देख रही कांग्रेस और पंजाब में पहली बार सरकार बनाने की हसरत पाले बैठी आम आदमी पार्टी को कड़ी चुनौती मिल सकती है। 

गौरतलब है कि भाजपा जनसंघ के जमाने से ही पंजाब में अकाली दल की सहयोगी की भूमिका में रही है। हालांकि वहां भाजपा का संगठनात्मक तौर पर आधार बेहद कमजोर है, लेकिन सूबे की 38 फीसदी हिंदू आबादी के एक बड़े हिस्से का उसको समर्थन मिलता रहा है। लेकिन अकेले चुनाव मैदान में उतरने पर यह समर्थन उसे चुनावी सफलता नहीं दिला सकता। चुनावी सफलता के लिए जरूरी है कि उसे सिखों का भी समर्थन मिले। दूसरी ओर अकाली दल का मुख्य जनाधार राज्य की जाट सिख आबादी में है। इस जनाधार के साथ हिंदुओं का समर्थन उसकी चुनावी संभावनाओं में इजाफा कर देता है। इसलिए ये दोनों पार्टियां सूबे में कांग्रेस विरोधी राजनीति में एक दूसरे की पूरक रही हैं। दोनों का गठजोड़ सूबे की राजनीति में कांग्रेस को कड़ी चुनौती देता रहा है। अकाली दल की वजह से जहां भाजपा को राज्य विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और कई बार सत्ता में भागीदारी करने का मौका मिलता रहा है, वहीं अकाली दल को भी लोकसभा में अपनी खासी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ ही केंद्र में बनी गैर कांग्रेसी सरकारों में प्रतिनिधित्व मिलता है। 

लेकिन दोनों पार्टियों का यह गठजोड़ केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों को लेकर एक साल पहले टूट गया था। हालांकि पिछले साल जून महीने में जब ये कानून अध्यादेश की शक्ल में लागू हुए थे तब भी और जब ये संसद में पारित हुए थे तब भी अकाली दल केंद्र सरकार में भागीदार बना हुआ था, लेकिन बाद किसानों की ओर से इन कानूनों का विरोध शुरू हुआ और विरोध की सबसे मुखर आवाज पंजाब से उठी तो अकाली दल को अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए केंद्र सरकार और एनडीए यानी भाजपा से अपना नाता तोडना पड़ा। उसके बाद से अब तक उसका पूरा समय सफाई देने में बीता है। हालांकि इस सफाई देने के सिलसिले में भी उसने भाजपा से ज्यादा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को ही अपने निशाने पर रखा है, इसीलिए आंदोलनकारी किसानों के बीच उसे हमेशा शक की निगाह से ही देखा गया है। 

अकाली दल को भी अपनी इस स्थिति का अच्छी तरह अहसास है और वह यह भी जानता है कि अकेले चुनाव लड़ कर उसे कुछ भी हासिल नहीं होना है। पिछले विधानसभा चुनाव 2017 में तो भाजपा का साथ होने के बावजूद उसकी इस कदर दुर्गत बनी थी कि वह विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो बैठा था और यह हैसियत पंजाब की राजनीति में नई नवेली आम आदमी पार्टी ने हासिल कर ली थी। उस चुनाव में कांग्रेस को 38.64 फीसदी वोटों के साथ 77 सीटें हासिल हुई थीं और उसने सरकार बनाई थी और अकाली दल 25.20 फीसदी वोटों के साथ महज 15 सीटें ही जीत सका था।

अकाली दल की सहयोगी भाजपा को 5.40 फीसदी वोट और 3 सीटें हासिल हुई थीं। जबकि पंजाब में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ी आम आदमी पार्टी को वोट तो अकाली दल से कम यानी 23.80 फीसद ही मिले थे लेकिन सीटें उसे अकाली दल के मुकाबले 5 ज्यादा यानी 20 सीटें मिली थीं। इस प्रकार विधानसभा में वह अकाली दल को पीछे धकेल कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस इन तीनों पार्टियों के मुकाबले बहुत भारी रही। उसे राज्य की 13 में 8 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि अकाली दल और भाजपा को 2-2 तथा आम आदमी पार्टी को महज एक ही सीट पर जीत मिली।

इस बार विधानसभा चुनाव को लेकर अभी तक कांग्रेस के सामने कोई सशक्त चुनौती नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर दलित वर्ग के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने और किसान आंदोलन को खुल कर समर्थन देने से भी उसकी स्थिति मजबूत हुई है। अकाली दल, भाजपा और कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोकहित कांग्रेस फिलहाल अलग-अलग हैं। ऐसे में माना जाता रहा है कि इस बार मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच ही होगा। हालांकि पिछले कुछ दिनों के दौरान आम आदमी पार्टी को भी राजनीतिक झटकों का सामना करना पड़ा है, क्योंकि उसके एक के बाद एक छह विधायक पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। 

लेकिन कृषि कानूनों की वापसी से राज्य में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। अगर अकाली दल का भाजपा के साथ फिर से गठबंधन हो जाता है तो उसका प्रदर्शन काफी हद तक सुधर सकता है। ‘पंजाब लोकहित कांग्रेस’ बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह तो पहले ही भाजपा के साथ तालमेल करने की घोषणा कर चुके हैं। उन्हें अकाली दल से हाथ मिलाने में भी कोई दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि पहले भी जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी थी तो वे अकाली दल में ही शामिल हुए थे। गौरतलब है कि अमरिंदर सिंह भी किसान आंदोलन के समर्थक रहे हैं और तीनों कानून वापस लेने के प्रधानमंत्री मोदी के ऐलान का स्वागत करते हुए उन्होंने किसानों से आंदोलन खत्म करने की अपील भी की है। अगर इन तीनों पार्टियों का गठबंधन हो जाता है तो जाट सिख और हिंदू वोटों का एक बड़ा हिस्सा इस गठबंधन के साथ जा सकता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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