Thursday, March 28, 2024

भारत में एक शानदार बौद्धिक प्रतिरोध की शुरुआत हो चुकी है: अरुंधति रॉय

(लंदन से प्रकाशित दि गार्जियन में छपा मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय का यह साक्षात्कार गैरी यौंग ने लिया है। अंग्रेजी में प्रकाशित इस इंटरव्यू का हिंदी में अनुवाद रविंद्र सिंह पटवाल ने किया है। पेश है पूरा साक्षात्कार- संपादक)

गैरी यौंग: इस मौके पर आज मैं उस चीज से बेहद परेशान हूं जिस तरह से चुनावों में एक के बाद दूसरा झटका लग रहा है। भारत में मोदी, ऑस्ट्रेलिया के चुनाव परिणाम, ये धुर दक्षिणपंथी न सिर्फ जीत रहे हैं बल्कि जीतकर दोबारा आ रहे हैं। बहुत सम्भव है कि ट्रम्प दोबारा जीतकर आ जाएं। बहुत सम्भव है कि ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन प्रधान मंत्री के रूप में चुने जाएं और हर बार हमें झटके महसूस हो।

अरुंधति रॉय: मैं अभी अमेरिका में थी और यह देखना काफी दिलचस्प था कि जिस इंसान का अभी तक मजाक उड़ाया जाता था और हंसी उड़ाई जाती थी, प्रबल सम्भावना है कि वही ट्रम्प दोबारा वापस सत्तानशीन हो। लेकिन मोदी और ट्रम्प में एक बड़ी असमानता है। मोदी के पीछे 95 साल पुराना संगठन है जिसके 6 लाख स्वयंसेवक हैं। इस लक्ष्य के लिए लोगों ने लम्बे समय से काम किया है।

 गैरी यौंग: हमारे प्रतिरोध के तरीकों के बावजूद जबकि वाम आन्दोलन और भारी संख्या में लोगों को सड़कों पर उतार सकता है, हमें लगता है कि इसे हम प्रभावशाली नहीं बना पा रहे हैं। इस क्षण यह एक पहेली की तरह बना हुआ है, जबकि पिछले दो वर्षों में अमेरिकी इतिहास की 4 सबसे बड़ी रैलियां और प्रदर्शन हुए हैं फिर भी ट्रम्प राजनैतिक रूप से अपना अस्तित्व बनाये रखने में कामयाब हैं।

अरुंधति रॉय: भारत में, जब वे लेफ्ट के बारे में कहते हैं तो इसका मतलब कम्युनिस्ट पार्टियों से होता है। और भारत में, लेफ्ट के फेल होने का मुख्य कारण ही यही है कि जाति के प्रश्न को कैसे सुलझाया जाए, वो उसी को नहीं हल कर सके हैं। “द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स” से लेकर आज तक के मेरे लेखन में मैंने काफी बार इसे उठाया है। मैं समझती हूं कि इसी तरह अमेरिका भी रंगभेद के मसले को नहीं सुलझा सका है। जाति व्यवस्था वह इंजन है जिस पर आधुनिक भारत दौड़ रहा है। आप सिर्फ यह कह कर मुक्त नहीं हो सकते कि “जाति व्यवस्था ही वर्ग व्यवस्था है, कामरेड।” यह सत्य नहीं है।

GY: एक अर्थ में यह कहें कि जबकि सारी परिस्थितियां भिन्न भिन्न हैं, लेकिन एक ही तरह के मॉडल को विभिन्न तरीके से दोहराया जा रहा है: ओबामा के बाद ट्रम्प आते हैं, वर्कर्स पार्टी के बाद बोलसोरनोकोमेस। इस रिक्त स्थान को हम खुद बनाते हैं, हम जी जान से इसे बनाते हैं और फिर कोई आता है जो इसे विस्फोटक गेंद से तहस-नहस कर देता है। क्या यह हमारी राजनैतिक शिक्षा की असफलता है, या किसी एजेंडा की विफलता है? हमसे क्या गलती हो रही है?

अरुंधती रॉय: मैंने 2002 के मुस्लिम जनसंहार के तुरंत बाद ही सबक सीख लिया था, जब 2000 लोगों को सड़कों पर काट डाला गया था। मैंने इसके बारे में लिखा और सोचा भी कि सिर्फ इसके बारे में लिखना एक तरह की राजनीति है। जैसे आप कहें; “ये घटित हुआ, ये लोग मार डाले गए।” लेकिन लोग मुड़कर कहेंगे: “तो क्या हुआ? वे इसी के काबिल थे।” और आप अनुभव करते हैं कि इस मामले में करुणा अब कभी भी प्रमुख कारक नहीं रह गई है। इसी तरह, अब जो अप्रवासियों के भय से घटित हो रहा है, वह एक तनाव पैदा करता है। आप इसे कैसे संभालेंगे?

GY: हालांकि यहां-वहां हमेशा की तरह इसको लेकर प्रतिक्रिया भी है, क्या ऐसा नहीं है? प्रगतिशील तबके से, उस व्यापक जन समूह से जो इस प्रतिक्रियावादी मौके को बेहद मुश्किल भरा पाते हैं। युद्ध विरोधी प्रदर्शन, वे सभी लोग जो सीरिया से आ रहे लोगों के लिए जर्मनी में पानी देने के लिए खड़े रहे, आक्युपाई वाल स्ट्रीट या ब्लैक लाइव मैटर प्रदर्शन में शामिल हुए। हमें करुणा का यह विस्फोट भी देखने को मिलता है।

 अरुंधति रॉय: हां, सॉलिडेरिटी तो दिखती है। मैं समझती हूं कि अमेरिका में आक्युपाई आन्दोलन ने भाषा बदली है। आज लोग 99% और 1% के बारे में बातें करते हैं। जो बातें पहले कहने की मनाही थी, उसे कहा जा रहा है। आपके पास बर्नी सैंडर्स हैं, जो कुछ समय पहले नहीं थे। एक समझदारी की सुबह हुई है, अमेरिका में भी, जहां हम समझते थे कि यहां वह सुबह कभी नहीं आयेगी। और मैं कहूंगी कि भारत में एक शानदार और बौद्धिक प्रतिरोध की शुरुआत हो चुकी है, हालांकि यह जीत नहीं सका है, लेकिन इसने चीजों को जिस तरह से धीमा कर दिया है वह अविश्वसनीय है।

GY: एक व्यक्ति के रूप में आप कैसे समझ सकते हैं, जिसमें जीवन का अधिकतर समय चीजों को एक अलग दिशा में ले जाने की कोशिश में गुजर जाता है? एक तरफ धन की ताकत है, जरखीदी है जो सत्ता के साथ बढ़ रहा है। और दूसरी तरफ आपके पास प्रतिरोध की शक्ति है, जो मुलायमियत में बढ़ रहा है, बहसों और विश्लेषण में जीता है। आपको यह आशावाद में छोड़ता है या निराशावाद में?

अरुंधति रॉय: यह तो मिनट दर मिनट और दिन प्रतिदिन बदलता रहता है। चाहे आप वृहद पैमाने पर सोच रहे हों या बेहद तात्कालिक रूप से। मेरे अंदर एक खास तरह का भयानक डर समाया हुआ है, जिसका इस चुनाव से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह तो उसके सामने कुछ नहीं जिसे मैं देख पा रही हूं। इतने सारे लोग और इतने कम संसाधन। वो चाहे पानी हो या जमीन हो- आप बेरोजगारी की हालत देख लो, हताशा और कुंठा को देख लें। सतह पर आपको यह दो जातियों की टकराहट के रूप में दिखाई देता है, या दो धर्मों के बीच में, दो समुदायों के बीच में- लेकिन इसके नीचे एक संकट को मंडराते स्पष्ट देख सकते हैं। और फिर आप अपना ध्यान उस चिड़िया की ओर मोड़ लेते हैं जो पेड़ पर अपना घोसला बना रही है, और अपने पीछे सब कुछ खाली छोड़ देना चाहती है। और मैं खुद से कहती हूं, चाहे कुछ हो जाए, चलो छोड़ देते हैं, जो भी हमारे साथ हुआ, हमारे मस्तिष्क के साथ हुआ, हमारी कल्पनाओं के साथ हुआ।

GY: आपकी नई किताब 20 वर्षों में लिखे निबन्धों का संग्रह है। प्रस्तावना में, आपने अपने उपन्यास The God Of Small Things के प्रकाशन के सम्बन्ध में और जो पैसे इसके जरिये आ रहे हैं उसके बारे में लिखा है और आपको नए भारत के उदाहरण के रूप में देखा जाता है जिसे आप वास्तव में चाहती हैं। लेकिन राजनैतिक मामले में कोई बदलाव नहीं चाहती हैं। फिर इसमें पेशे में भी भिन्नता नजर आती है, या विचारों के स्तर पर जो आपके लेखन के जरिये किया जा सकता है। इसलिए मेरे पूछने का मतलब है कि इन निबंधों ने आपके विचार में क्या किया? आपको क्या आशाएं हैं अपनी इस पुस्तक से? 

अरुंधति रॉय: मैं कहानी की ताकत पर विश्वास करती हूं। आंतरिक रूप से मैं एक कथाकार हूं। इसलिए जैसे ही मैं नर्मदा घाटी गई, (जहां एक बांध के लिए 250000 लोगों को विस्थापित किया गया था), मैं जानती थी कि यह एक कथा है। उस घाटी की एक कहानी है जिसे अलग तरीके से बताने की जरुरत है जिस तरह से बचपन की कहानी लिखी जाती है, या पहचान और जाति की कहानी सुनाई जाती है।

 GY: अधिकतर लेखक, कहानीकार इस तरह से खुद को नहीं बदलते और कूद पड़ते हैं। क्या इसका कारण यह नहीं कि ऐसा करना सुविधाजनक नहीं होता? जो चीजें आपने अपनी किताब में गिनाई हैं जो आपके साथ हुईं, जान से मार डालने की धमकी और क़ानूनी कदम इत्यादि। आपके जीवन के लिए क्या यह सब कुछ आसान था?

अरुंधती रॉय: मुझे नहीं लगता कि इसका कल्पना या हकीकत से कुछ लेना देना है, इसका सम्बन्ध राजनीति के साथ है। मेरे लिए, इस देश में रहने वाले व्यक्ति के रूप में, समझने की कोशिश न करने में एक तरह का अपमान शामिल है। मुझे लगता है कि यह मेरी ओर से महत्वाकांक्षा की एक निश्चित कमी के साथ भी है। जब मैंने “द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स” लिखा तो जाहिर है कि मुझे नहीं पता था कि यह इतना सफल होगी। मैं केवल इस तथ्य का उपयोग करके खुश थी कि अब मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र थी, मैं वही कर सकती थी जो मैं चाहती थी, जो मैंने सोचा था। मेरी स्वाभाविक चेतना ने मुझे साहित्य जगत से दूर कर दिया। मैंने बहुत कुछ बोला और नॉन-फिक्शन के साथ यात्रा की, क्योंकि इसके बारे में बोलने की ज़रूरत है और यह मेरे बारे में नहीं है। यह इन लड़ाइयों में शामिल बहुत सारे लोगों के बारे में है और लड़ाइयां स्वयं मे महत्वपूर्ण हैं।

GY: आपके काम की जड़ें भारत में हैं लेकिन अधिकतर लेखन खुद ब खुद वैश्विक स्तर को छूता है। हम पारिस्थितिकी, पर्यावरण, भ्रष्ट सरकारों, फासीवाद और साम्प्रदायिकता के बारे में बात कर रहे हैं। जब आप विश्व भ्रमण करती हैं, तो क्या आपको अपने काम और जहां आप यात्रा करती हैं के बीच सम्बन्ध बनाने में आसानी महसूस होती है?

अरुंधति रॉय: यह बेहद मजेदार सवाल है। The God of Small Things की कहानी दक्षिणी भारत के छोटे से गांव की कहानी है जहां मैं बड़ी हुई- एक बेहद विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश। और इसका 42 भाषाओं में अनुवाद हुआ। मैं एस्टोनिया जाती हूं और कोई कहता है : “यह तो मेरे बचपन की कहानी है, आपको इसके बारे में कैसे पता चला?”

कई विदेशी पत्रिकाओं और अख़बारों ने मुझसे कहा : “क्या आप हमारे लिए लिखेंगी?” लेकिन मैं एक चीज के बारे में निश्चित थी कि मैं पश्चिम के लिए पूरब का दुभाषिया बनने के लिए तैयार नहीं थी। मैं नहीं चाहती कि मेरी भाषा को इस तरह से संपादित किया जाए जो उनके खांचे में फिट बैठता हो। मैं जिस तरह से लिखती हूं उसी तरह से लिखना चाहती हूं। अगर यह आपको ठीक लगता है तो बहुत अच्छा, अगर नहीं लगता तो भी अच्छा है; मैं यहां के लिए लिखती हूं। बहस यहां है, लड़ाई भी यहीं लड़ी जा रही है। वास्तव में मुझे इसे साबित करने की जरुरत भी नहीं है, क्योंकि मेरे हिसाब से लेखकों की तरह ही पाठक भी उतने ही रहस्यमयी होते हैं, और वे चीजों को समझते हैं। आपको उन्हें चीजें आसान बनाकर देने की जरुरत नहीं है।

GY: मैं पूछना चाहता था उस निबंध के बारे में The Doctor and the Saint, जिसमें आप तर्क देती हैं। जिसमें भीमराव अम्बेडकर, गांधी के देवत्व के बराबर स्टेटस को चैलेंज करते हैं। जिसे भारतीय एलीट वर्ग ने पनपने ही नहीं दिया, जिससे एक खास तरह के भारत के विचार को थोपा जा सके, खासकर वर्ण व्यवस्था को बनाये रखने के सन्दर्भ में। गांधी के प्रति श्रद्धा और अम्बेडकर को इतिहास में अदृश्य करा देने को हम इन क्षणों में कैसे समझें?

अरुंधति रॉय: पश्चिमी देशों में अम्बेडकर वास्तव में पूरी तरह से अदृश्य दिखते हैं। लेकिन भारत में वे हमेशा दिखते हैं और जोर-शोर से सुनाई भी देते हैं। जब भी लोग यहां आते हैं, मैं कहती हूं कि अगर आप भारत के सबसे गरीब के झोपड़े में जायेंगे तो आपको गांधी की तस्वीर की जगह अम्बेडकर की तस्वीर दिखेगी। लेकिन हम सभी अपने खुद के इतिहास के मिथ्याकरण के शिकार हैं, जो कभी-कभी बेहद पीड़ादायक और गुस्से से भर देता है।

GY: ऐसा लगता है कि आधुनिक दक्षिणपंथ की यह विशिष्टता है कि वह लोगों को समझाने में कामयाब रहा कि चीजें उसी समय हुईं जब उन्हें नहीं होना था। और वो लोगों को उन्हीं चीजों को करने के लिए तैयार कर लेते हैं जिससे उनका खुद का नुकसान होने वाला है। मैं इस बात को जानने के लिए उत्सुक हूं कि कैसे लोग खुद के हितों के खिलाफ कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं?

अरुंधति रॉय: इसके बारे में मैं वाम मार्गियों की महान कमियों के बारे में बताना चाहूंगी। इसमें मैं कम्युनिस्ट लेफ्ट के बारे में भी कह रही हूं, वो हर चीज को भौतिकवाद में समेट कर रख देने में विश्वास करते हैं और लोगों के जटिल मनोविज्ञान को न समझ पाने में है। भारत में, लाखों किसानों की आत्महत्या हुई क्योंकि वे कर्ज में डूबे थे लेकिन यह कोई सरल उपाय नहीं है कि : चूंकि लोग भूखे हैं इसलिए क्रांति होकर रहेगी। ये इस तरह काम नहीं करता।

GY: आपको कब लगता है कि लेफ्ट इस बात को आत्मसात कर सकेगा, किन रूपों में?

अरुंधति रॉय: मैं सोचती हूं आने वाला संकट जिसमें जलवायु संकट और मशीन के इंटेलिजेंस का संयुक्त हमला प्रमुख है- यह तय करेगा कि अभी तक हम जिस तरह वाम और दक्षिण को देखते थे उसको फिर से देखने की जरूरत है। ये केटेगरी अब वैसी ही साफ़ साफ नजर नहीं आने वाली जैसा कि अभी तक हम इसे परिभाषित कर लेते थे। जैसे-जैसे संसाधन सिकुड़ते जायेंगे और समुद्र का स्तर बढ़ेगा, आप देखेंगे कि लोग उन सिकुड़ते संसाधनों पर अपने अधिकार के लिए एक समुदाय की तरह, एक जाति की तरह, एक राष्ट्र के रूप में गोलबंद होंगे। और दक्षिणपंथ हमेशा की तरह घृणा बांटने के लिए खड़ा मिलेगा।

GY: लेकिन क्या हमें उपलब्ध नहीं रहना चाहिए?

अरुंधति रॉय: हमें अवश्य उपलब्ध रहना चाहिए। लेकिन पॉइंट यह है कि आप न्याय को किस तरह सामने रखेंगे- अगर ऐसा वास्तव में होता है तो हम क्या प्रस्तावित कर रहे हैं- यह कब हथियार नहीं था? अन्याय एक हथियार है। मैं नहीं चाहती कि हम खुद को डुबों लें। इस बात पर कि हम कितने अप्रभावी रहे, क्योंकि मुझे यह नहीं लगता कि यह आवश्यक रूप से सच है। आप सोचिये कि यह कितना भयानक होता अगर यह अप्रभावी प्रतिरोध के स्वर ही नहीं होते।

GY: अपने My Seditious Heart  निबंध की प्रस्तावना में आप कहती हैं कि हमारे सामने सवाल है कि दुनिया पर कौन और क्या राज करेगा? क्या आप इसे विस्तार से बता सकती हैं?

अरुंधति रॉय: मेरे लिहाज से वास्तविक समस्या मेरे निबंध “मिस्टर चिदम्बरम का युद्ध” में परिभाषित हुई है। यह उड़ीसा के एक चपटे पहाड़ की चोटी के साथ शुरू होता है। जब भू वैज्ञानिक इस पहाड़ को देखते हैं तो उन्हें इसमें बॉक्साइट नजर आती है, और उन्हें लगता है कि इसका खनन कितना जरूरी है। जब पहाड़ों पर रहने वाले दूसरे लोग इस पहाड़ की तरफ देखते हैं तो उन्हें इस चपटे पहाड़ में रिसता हुआ पहाड़ नजर आता है, यह एक पानी की टंकी होता है, जिसमें मानसून का पानी इकट्ठा होता है और सदियों से समतल धरती के लिए पानी की आपूर्ति करता है। खनन कंपनियों के लिए, पहाड़ की कीमत उसमें बॉक्साइट की मौजूदगी में है जिसे खोद कर निकाला जा सकता है। पहाड़ पर निर्भर लोगों के लिए बॉक्साइट की कोई कीमत नहीं है अगर उसे पहाड़ से खोदकर निकाल लिया जाए। इसलिए निबंध इस प्रश्न के साथ खत्म होता है: क्या हम बॉक्साइट को पहाड़ में ही छोड़ दें? यह इस कल्पना पर निर्भर है कि न तो लेफ्ट है और न कोई दक्षिणपंथ है। यह निर्णय करने के लिए कि आप कैसे इनके बिना इसे मैनेज करेंगे- यह वह समझदारी है जिसकी हमें जरुरत है।

GY: आप क्या सोचती हैं कि हम बॉक्साइट उस पहाड़ पर छोड़ सकते हैं? क्या हमारे पास ऐसी कल्पनाशीलता की सम्भावना है?

अरुंधति रॉय: हममें से कुछ की है और कुछ की नहीं। मैं कह रही हूं हम, वे लोग जो कर रहे हैं और जो लड़ाई लड़ रहे हैं, का समर्थन अवश्य ही करना चाहिए। पहला कदम है कल्पनाशीलता को बचाकर रखना और फिर उससे आगे की ओर बढ़ना।

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हर्ष वर्धन
हर्ष वर्धन
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4 years ago

मेरा मत है कि मिस. रॉय जाति जाति पाति पाति कर कर के अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी चला रहीं हैं, और हमारा भी समय व्यर्थ। कभी रही होगी लूटमार जातिगत, तिसपर भी यह इस बात का किसी ने खण्डन नहीं किया है कि अंग्रेज़ों के क़दम पड़ते समय भले भारत में अंतर्जातीय रोटी बेटी के संबंध नहीं बनते थे, आपस में छुआछूत थी, पर भारत में ग़रीबी नाम की चीज न थी। गजनवी, घोरी, व मुग़लों के आगमन का कारण ही था, “सोने की चिड़िया।

लैफ्टिस्टों में फ़ितूर है, कि येन केन ब्राह्मणों को कुकुर बना दो और खुद ब्राह्मण (टॉप बुद्धिजीवी) हो लो। इसमें वे सफल भी रहे हैं। आवश्यक है कि अब यह सब बकन बखान बंद करें, और इस बात पर निगाह डालें कि आज, व्यावहारिक रूप से, यदि बकबक करने के आगे असल में कुछ लोगों को दिलाना है तो, भारत में तीन संप्रदाय गिनें – शासक वर्ग, धंधा वर्ग, व अन्य। शासक और धंधा वर्ग भी, और ऐसे अंधबुद्धिजीवी भी, इस अन्य वर्ग को एक ही ओर धकेल रहे हैं — कि आपस में लड़मर के सलट लो कितने लोग जियेंगे, जितने संसाधन हैं। जबकी संसाधनों की कोई कमी नहीं। जिस जनसंख्या को नरेन्द्र मोदी कभी एक्पोर्टिया माल बनाने को “डीमोग्राफिक डिवीडेंड” की उपाधि से नवाज़ रहे थे, वो देश को बिजली पानी दिलाने के लिए, अनाज उगाने के लिए भी, इसी में आजीविका भी है।

किंतु अरुणधति टाईप कभी इस तरह से लोग अपने संग नहीं जुटाएँगी। इन्हें जाति जाति करने, जातियुद्ध देखने की ही आदत है, यह यही करते रहेंगे। जैसे बी ए, एम ए, हर एग्ज़ाम में सवाल का जवाब वही का वही, जो चैंपियन गाईड से रटा था कभी। अमाँ राजनीति है, समाजशास्त्र है, इतिहास की समझ है, कि गणित है ससुरा, कि जी इस सवाल का तो यही जवाब है।

लैफ्ट वालों का अंधा ब्राह्मण द्वेश, लीडरों की अल्पबुद्धि और नियो ब्राह्मण बने रहने की ललक, संस्कृति से घृणा, इनमें अपना भी विध्वंस करेंगें, और देश भर का भी करना डालेंगे। क्यों इन्होंने राहुल गाँधी के पक्ष में, न्याय योजना के लिए कैंपेन न किया? इन्हें अर्थ और जान से कहीं अधिक संस्कृति ध्वंस की पड़ी है, और ब्राह्मण ध्वंस की। जो कभी के शासक-धंधा वर्ग से पिट पिटा कर पड़े हैं। मीटू अभियान में गुहा अरुणधति आदि कितनों ने कितना लड़ा? रत्ती भर भी नहीं, यह खुद ही धंधावर्ग के मुरीद हैं, वे इनके एनजीओस में बराबर धन टपकाते हैं। ताकि इनकी लड़ाई जो संस्कृति से है, वह चलती रहे, यह याद दिलातीं रहें, कि तुम सब कीड़े अलग अलग जात हो, और तुम्हें मारा जाने वाला है।

जिस दृष्टि से यह लोग भारत को देखते रहने से बाज़ ही नहीं आते, उससे स्पष्ट ही है, कि इनके पास चार आना किसी को बचाने की मंशा या प्लान नहीं। बौद्धिक क्षमता ही नही, तिसपर फ़ण्डिंग उसी कारपोरेट की जिसे विदेशियों की सेवा में रुचि है, अंदरूनी अर्थ में नहीं। जिसके चलते हर जाति का कामकाजी वर्ग पानी की कमी से मरने वाला है, जैसा की यह बता रही हैं। पेमेंट एडवांस मिल गई तो मैडम ने रुदालीकर्म हम मरतों के जीते जी ही चालू कर दिया।

डैम् टाइमपास 🤦🏻‍♀️

mithilesh kumari
mithilesh kumari
Guest
4 years ago

Intreview is very good. It describes our current isues. Arundhati Roy ji is concerned seriosly about society problems. I am also think that caste, relision all things is remain now but today environment issues is very big problem.

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