Friday, March 29, 2024

कपिल सिब्बल ने भरी अदालत में सुप्रीम कोर्ट में लोगों का भरोसा कम होने की बात कही

राज्यसभा सांसद और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने एक बार फिर सु्प्रीम कोर्ट की आलोचना की है। कपिल सिब्बल ने अब्दुल्ला आजम केस की सुनवाई के दौरान जजों की एक बेंच से कहा कि संस्था में लोगों का भरोसा धीरे-धीरे कम हो रहा है। कपिल सिब्बल बीते कुछ दिनों से कोर्ट की आलोचना कर रहे हैं। वह न्यायिक प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े कर चुके हैं।

कपिल सिब्बल ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ को बताया कि संस्था में विश्वास धीरे-धीरे कम हो रहा है। सिब्बल ने पीठ के समक्ष कहा कि जिस कुर्सी पर आप बैठते हैं, उसके लिए हमारे मन में बहुत सम्मान है। यह एक ऐसी शादी है जिसे बार और बेंच के बीच नहीं तोड़ा जा सकता है। यहां कोई अलगाव नहीं है और एक बार हमें पता चलता है कि क्या हो रहा है कभी इस छोर पर और कभी दूसरे छोर पर। और यह मेरे जैसे व्यक्ति को परेशान करता है, जिसने इस अदालत के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया।

जस्टिस रस्तोगी ने जवाब दिया कि हम हमेशा कहते हैं कि बार और बेंच रथ का पहिया हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ये दो पहिये हैं, भगवान जाने एक पहिया कहां जाता है और दूसरा पहिया कहां जाएगा जबकि रथ वहीं रहेगा। फिर भी हमें यह पता लगाना होगा कि हम सभी इस संस्था से संबंधित हैं और इस संस्था ने हमें सब कुछ दिया है तो हमारा बार से और हमें भी आत्मनिरीक्षण करने का अनुरोध है कि हम कैसे टिके रह सकते हैं। लोगों का विश्वास बना रहे इस पर काम करना होगा।

सिब्बल ने जवाब दिया कि अगर बार और बेंच दोनों नियमों का पालन करेंगे तो स्थिति में विश्वास कायम रहेगा। यदि एक वादी को लगता है कि उसकी सुनवाई की गई है और कानून को सही तरीके से लागू किया गया है, तो विश्वास बना रहेगा, भले ही निर्णय उसके खिलाफ हो।

सिब्बल ने कहा कि यह केवल एक तरह से हो सकता है कि हम इस छोर पर नियमों का पालन करते हैं और दूसरे छोर पर भी ऐसा ही होता है। विश्वास बहाल करने का यही एकमात्र तरीका है, कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अगर मैं अदालत में आता हूं और मुझे विश्वास है कि चाहे कुछ भी हो, चाहे निर्णय मेरे खिलाफ हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता- एक मुझे सुना गया, दूसरा कानून बिना किसी डर और पक्षपात के सही तरीके से लागू किया गया। अगर ये तीन चीजें होती हैं तो विश्वास बना रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम हारते हैं या जीतते हैं, यह महत्वपूर्ण है कि संस्था में हमारा विश्वास बना रहे, जो धीरे-धीरे कम हो रहा है।

जस्टिस बी वी नागरत्ना ने कहा कि हारने वाला पक्ष जो महसूस करता है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। हारने वाले पक्ष को भी संतुष्ट होकर वापस जाना चाहिए।

सिब्बल ने ये टिप्पणी सपा नेता आजम खान के बेटे अब्दुल्ला आजम खान की अपील पर बहस करते हुए 2017 में सुआर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव को इस आधार पर अलग रखने के खिलाफ की थी कि वह कम उम्र का था। सिब्बल ने हाल ही में तब सुर्खियां बटोरी थीं जब उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था कि उनको सुप्रीम कोर्ट से कोई उम्मीद नहीं बची है।

उन्होंने जकिया जाफरी और पीएमएलए मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की आलोचना करते हुए ये टिप्पणी की थी। हाल ही में, भारत के महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने एक वकील द्वारा सिब्बल के खिलाफ उनकी टिप्पणी के लिए आपराधिक अवमानना कार्यवाही की मंजूरी की मांग करने वाले एक आवेदन को खारिज कर दिया था। एजी ने कहा कि सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल द्वारा दिए गए बयान इसलिए हैं ताकि अदालत न्याय वितरण प्रणाली के व्यापक हित में बयानों पर ध्यान दे सके। एजी के अनुसार, बयानों का उद्देश्य अदालत को बदनाम करना या संस्था में जनता के विश्वास को प्रभावित करना नहीं था। तदनुसार सहमति को अस्वीकार कर दिया गया था।

अगस्त 22 में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से पारित कुछ फैसलों पर नाराजगी जाहिर की थी । सिब्बल ने कहा, अगर आपको लगता है कि आपको सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलेगी, तो आप बहुत गलत हैं। मैं यह बात सुप्रीम कोर्ट में 50 साल वकालत पूरी करने के बाद कह रहा हूं। उन्होंने कहा कि देश की सबसे बड़ी अदालत से अब “कोई उम्मीद नहीं बची” है।

उन्होंने कहा कि भले ही शीर्ष अदालत ने कोई ऐतिहासिक फैसला सुनाए हों, लेकिन इससे जमीनी हकीकत शायद ही कभी बदलेगी। बकौल सिब्बल, इस साल वे सुप्रीम कोर्ट में वकालत के 50 साल पूरे कर लेंगे। 50 साल बाद उन्हें लगता है कि इस संस्थान से कोई उम्मीद नहीं है। सिब्बल ने कहा, आप सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए प्रगतिशील निर्णयों के बारे में बातें करते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जो होता है, उसमें बहुत बड़ा अंतर होता है। सिब्बल ने सवाल किया, सुप्रीम कोर्ट ने निजता पर फैसला दिया और ईडी के अधिकारी आपके घर आ गए… आपकी निजता कहां है?

सिब्बल ने दिल्ली में न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) और नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स द्वारा “नागरिक स्वतंत्रता के न्यायिक रोलबैक” पर आयोजित एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल में वर्ष 2002 के गुजरात दंगों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और कई अन्य लोगों को विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा दी गई क्लीन चिट को चुनौती देने वाली कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी द्वारा दायर याचिका को खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की।

उन्होंने कहा कि धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी गई। इन प्रावधानों से प्रवर्तन निदेशालय को व्यापक अधिकार मिलते हैं। सिब्बल ने कहा कि 2009 में दायर छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियानों के दौरान सुरक्षा बलों की फायरिंग में 17 आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की कथित घटनाओं की स्वतंत्र जांच की मांग वाली याचिका को भी खारिज कर दिया।

सिब्बल ने यह भी कहा कि “संवेदनशील मामले” केवल चुनिंदा न्यायाधीशों को सौंपे जाते हैं और कानूनी बिरादरी आमतौर पर पहले से जानती है कि फैसले का परिणाम क्या होगा। उन्होंने कहा कि वास्तविकता ऐसी है कि संवेदनशील मामले कुछ ही न्यायाधीशों की पीठ में सुने जाते हैं। ऐसे मामलों में हमें समस्या पता होती है और हम परिणाम भी जानते हैं। चीफ जस्टिस तय करते हैं, …ऐसी अदालत आजाद नहीं हो सकती । राज्य सभा सांसद सिब्बल ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठाए।

उन्होंने कहा कि समझौता की प्रक्रिया के माध्यम से जिस कोर्ट में जज बिठाए जाते हों, एक अदालत जहां यह निर्धारित करने की कोई व्यवस्था नहीं है कि किस मामले की सुनवाई किस बेंच में की जाएगी। जहां भारत के मुख्य न्यायाधीश यह तय करते हैं कि किस मामले को किस पीठ में और कब सुना जाएगा, वह अदालत कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकती।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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